इंटरसेक्शनलजेंडर बात अग्रणी महिला वास्तुकार प्रेरिन जमशेदजी और उर्मिला चौधरी की

बात अग्रणी महिला वास्तुकार प्रेरिन जमशेदजी और उर्मिला चौधरी की

आर्किटेक्चर क्षेत्र में महिलाओं का प्रवेश 1930 के दशक में शुरू हो गया था। भारत से जिन दो महिलाओं का नाम इस श्रेणी में सबसे पहले लिया जाता है वह प्रेरिन जमशेदजी मिस्त्री और उर्मिला यूली चौधरी का हैं। पुरुष प्रधान आर्किटेक्चर के क्षेत्र में शुरुआती दौर में इन दो महिलाओं ने मिलकर चुनौती दी।

आर्किटेक्चर का नाम सुनते ही दिमाग में बड़ी-बड़ी इमारतें और नक्शों की तस्वीरें घूमने लगती है। साथ ही इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में पुरुषों का प्रभुत्व नज़र आता हैं। आर्किटेक्चर क्षेत्र में महिलाओं का प्रवेश 1930 के दशक में शुरू हो गया था। भारत से जिन दो महिलाओं का नाम इस श्रेणी में सबसे पहले लिया जाता है वह प्रेरिन जमशेदजी मिस्त्री और उर्मिला यूली चौधरी का हैं। पुरुष प्रधान आर्किटेक्चर के क्षेत्र में शुरुआती दौर में इन दो महिलाओं ने मिलकर चुनौती दी। आइए जानते हैं प्रेरिन और उर्मिला के बारे में।

प्रेरिन जमशेदजी मिस्त्रीः पहली महिला आर्किटेक्ट

साल 1913 में प्रेरिन जमशेदजी मिस्त्री का जन्म एक पारसी परिवार में हुआ था। इनका परिवार मूल रूप से नवसारी से ताल्लुक रखता था। उनके पिता प्रख्यात शहर आर्किटेक्ट और इंजीनियर जमशेदजी पेस्टनजी मिस्त्री थे। इनके परिवार में कई पुरुष आर्किटेक के फील्ड से जुड़े हुए थे। प्रेरिन ने आर्किटेक्चर में जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स से 1936 में डिप्लोमा किया था। जब यह ख़बर देश में फैली कि कोई महिला पहली बार आर्किटेक्चर में डिप्लोमा करने जा रही है तब के अख़बार में 23 वर्षीय लड़की की प्रशंसा में लेख लिखे गए। उनकी सराहना इसीलिए की गई कि प्रेरिन ने घर से “बाहर” कदम रखने की सोची जो बाकी महिलाओं के लिए प्रेरणा बनेगा और भविष्य में वह एक अच्छी इमारत निर्माता बनेंगी।

कंस्ट्रक्शन वर्ल्ड में छपी रिपोर्ट्स के मुताबिक हमारे देश में 46.67 प्रतिशत महिलाओं के पास आर्किटेक्ट होने का लाइसेंस हैं लेकिन इनमें से मात्रा 20 प्रतिशत महिलाएं ही आर्किटेक्चर के तौर पर प्रैक्टिस कर पाती हैं।

प्रेरिन ने प्रारंभिक शिक्षा बॉम्बे में ही गुजराती शिक्षा मे ली थी और दस साल की उम्र में इंग्लैंड जाना हुआ। जहां से वह क्रोयोडों हाई स्कूल से शिक्षा समाप्त कर ही भारत लौटीं। लौटने पर उनके पिता के द्वारा परिवार की चली आ रही आर्किटेक्चर फर्म मिस्त्री एंड भेद्वार को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा। इस फर्म ने बॉम्बे में एयरपोर्ट का पहला रनवे, कोलोबा कफे परेड सी वॉक्स भी बनाया था। प्रेरिन इस फर्म से साल 1937 में आर्किटेक्चर में डिप्लोमा लेने के बाद जुड़ी थीं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्किटेक्चर के आर्किटेक्चरल विभाग की वह पहली महिला छात्रा थीं। पढ़ाई के दौरान कॉलेज की वाद-विवाद समिति के विषय “महिलाओं को आर्किटेक्ट नहीं बनना चाहिए” के खिलाफ़ बोली थीं। निसंदेह उस वक्त पुरुष छात्र और वहां के अध्यापक यह देख कर हैरान हो गए थे।

तस्वीर में अपने परिवार के साथ पेरिन। तस्वीर साभारः Parsikhabar.net

आर्किटेक्चर के तौर पर प्रेरिन जमशेदजी के मुख्य कामों में सर बेहरामजी करंजिया बंगलो, खटाऊ हिल्स में रिहायशी इमारतें, पब्लिक इमारतें और सेंट स्टीफन चर्च का डिजाइन, कंस्ट्रक्शन शामिल है। प्रेरिन सिर्फ़ नक्शे नहीं बनाती थीं, उनके और भी शौक थे जैसे पियानो बजाना, हॉकी खेलना। इसके अलावा बॉम्बे की हैफकाइन इंस्टीट्यूट से वह सांपों की स्टडी भी कर रही थीं। उन्होंने बिजनेसमैन आर्देशिर भिवंडीवाला से शादी की थी। 1989 में 76 उम्र में उनका निधन हो गया था। प्रेरिन जमशेदजी ने बतौर आर्किटेक्चर काम केवल भारत में ही नहीं विदेशों में भी किया था।

उर्मिला यूली चौधरीः चंड़ीगढ़ सिटी प्रोजेक्ट की एकमात्र महिला वास्तुकार

आप कभी अगर चंडीगढ़ ना भी गए होंगे तो यह ज़रूर सुना होगा कि चंडीगढ़ बहुत प्लैन्ड यानी योजनाबद्ध और खूबसूरत शहर है। कहा जाता है कि चंडीगढ़ प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु की ड्रीम सिटी है। इसे फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कॉरब्यूजर और उनके कुछ साथी, पियरे जेनरेट, मैक्सवेल फ्राय, जेन ड्र्यू और भारत से आर्किटेक्ट एम. एन. शर्मा शामिल थे। इसी प्रोजक्ट में भारत बल्कि एशिया की पहली क्वालिफाइड महिला आर्किटेक्ट उर्मिला यूली चौधरी भी शामिल थीं। साल 1951 में वह कोरब्यूजर की टीम कैपिटल प्रोजेक्ट चंडीगढ़ से जुड़ी और शहर की प्लानिंग, डिजाइनिंग, कंस्ट्रक्शन में अहम भूमिका निभाई। इसी सिलसिले में वह साल 1951 से लेकर 1981 तक चंडीगढ़ में ही रहीं और अलग-अलग पदों पर काम करती रहीं।

उर्मिला यूली का शुरुआती जीवन

उर्मिला यूली चौधरी क्वालिफाइड आर्किटेक्ट, शिक्षक, डिजाइनर और लेखक थीं। उनका जन्म 4 अक्टूबर 1923 में उत्तर प्रदेश राज्य के शहर शाहजहांपुर में हुआ था। इनके पिता राजनायिक थे इसीलिए वह दुनिया में घूमते हुए बड़ी हुईं। उन्होंने अपनी पढ़ाई विदेश से की। आर्किटेक की पढ़ाई पढ़ने आस्ट्रेलिया चली गई। साल 1947 में सिडनी विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया से आर्किटेक्चर में स्नातक की। विंडसर हाउस स्कूल कोबो, जापान से से भी पढ़ाई की थी। जूलियन अशबोर्ड स्कूल ऑफ आर्ट, सिडनी से पियानो और गायन भी सीखा था, इनके अलावा उन्होंने इंग्लेवुड न्यू जर्सी, अमेरिका से सेरामिक्स में डिप्लोमा भी किया था।

चड़ीगढ़ प्रोजेक्ट टीम के साथ उर्मिला चौधरी। तस्वीर साभारः WAC

अपनी पढ़ाई खत्म कर साल 1951 में भारत लौटीं और ली कॉर्ब्यूजर की टीम में शामिल हो गईं। 1951 से 1981 के बीच ही इन्होंने पंजाब राज्य सरकार के साथ बतौर कंसल्टिंग आर्किटेक्ट के रूप में जुड़े जुगल किशोर चौधरी से विवाह किया था। इन्होंने ना सिर्फ़ चंडीगढ़ के बनने में अहम भूमिका निभाई थी बल्कि हरियाणा की साल 1971 से 1976 और पंजाब की साल 1976 से 1981 तक मुख्य आर्किटेक्ट थीं। उर्मिला चौधरी को चंडीगढ़ के सरकारी दफ्तरों के लिए कम दाम में बेहतरीन फर्नीचर डिजाइन करने के लिए राष्ट्रपति द्वारा 1954 में गोल्ड मेडल मिला था।

उर्मिला चौधरी ने अपने जीवन में कई पदों पर काम किया। उन्होंने साल 1963 से लेकर 1965 तक दिल्ली स्कूल ऑफ़ आर्किटेक्चर एंड प्लानिंग में बतौर डायरेक्टर अपनी सेवा भी दी। एक एक लेखिका भी थीं। उन्होंने ली कोरब्यूजर और टीम के साथ किए काम की याद में “दोज वर द डेज” किताब लिखी थी। इतना ही नहीं ली कोरब्यूजर की किताब “थ्री ह्यूमन एस्टेब्लिशमेंट” का फ्रेंच से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था। इनकी फ्रेंच भाषा पर इतनी शानदार पकड़ थी कि भारतीयों और फ्रेंच आर्किटेक्ट टीम के मध्य एक अनुवादक की भूमिका में भी रही थीं। किताब लेखन के अलावा वे कई आर्किटेक्चरल पत्रिकाओं में लिखती थीं, प्रोग्रेसिव आर्किटेक्चर, आर्किटेक्चरल डिजाइन, कैसेबेल, द ट्रिब्यून में सिनर्स एंड विनर्स कॉलम शामिल हैं।

उर्मिला चौधरी ने शैक्षिक भवनों के डिजाइन और सरकारी भवनों के लिए लकड़ी की कुर्सियों के डिजाइन पर पियरे जनरेट के साथ काम किया। उन्होंने भारतीय पुरुषों और महिलाओं के अनुपात से कुर्सियों को सेट किया। साल 1981 में वह पब्लिक सर्विस से रिटायर हो गई थी। रिटायरमेंट के बाद भी वह कई परियोजनाओं से जुड़ी रही। यूली इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्किटेक्ट्स में फेलो थीं। रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स के लिए चुनी जाने वाली पहली महिला थीं।

सितंबर 2009 में रुपिंदर सिंह (पत्रकार, लेखक, फोटोग्राफर) के ब्लॉग पर उपलब्ध लेख के अनुसार एक तस्वीर चस्पा है जिसमें टूटा-फूटा घर और एक अलमारी देखी जा सकती है। वह टूटा मकान किसी वक्त में उर्मिला यूली चौधरी का घर हुआ करता था। जिस महिला ने टावर्स ऑफ़ शैडोज, ज्योमेट्रिक हिल, मार्टेयर्स मेमोरियल बनाया उसका घर टूट चुका है। चंडीगढ़ सिटी प्रोजेक्ट के बाद फ्रेंच आर्किटेक्चर टीम वापस लौट गई लेकिन पियरे जेनरेट, ली कोरब्यूजर की आर्किटेक्चरल विरासत को उर्मिला ने अपने आगे के कामों में ज़िंदा रखा। न्यूनतम आर्थिक लागत, सादगी, न्यूनतम चीजें कुछ ऐसे मूल्य हैं जो उनकी डिजाइन की हुई इमारतों में देखने मिलते हैं। 20 सितंबर 1923 में, 71 साल की उम्र में चंडीगढ़ में ही दुनिया को अलविदा कह दिया था।

जब कोई महिला आर्किटेक्चर के बारे में सोच नहीं सकती था। उर्मिला ने आर्किटेक्चर पुरुषों की टीम में अपनी जगह बनाई और बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स किए। आज आर्किटेक्चर की दुनिया में उर्मिला यूली चौधरी और प्रेरिन जमशेदजी मिस्त्री ने वास्तुकार के क्षेत्र में नींव रखी थी। ये दोनों महिलाएं वास्तुकला क्षेत्र की वे अग्रणी महिलाएं है जिन्होंने भारत में इस क्षेत्र अन्य महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए राह बनाई।

महिलाओं का आर्किटेक्चर में योगदान

आर्किटेक्चर का क्षेत्र कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री हमारे देश की दूसरी बड़ी इंडस्ट्री है जो जीडीपी में बड़ा योगदान देती है लेकिन यहां भी जेंडर गैप, भुगतान में अंतर का सामना करना पड़ता है। ये दोनों ही अंतर में बाहरी और आंतरिक दोनों जगह महिलाओं के काम को लेकर गढ़े गए रूढ़िवादी विचार से प्रेरित हैं। बाहरी कारणों में क्लाइंट द्वारा महिलाएं आर्किटेक्चर क्षेत्र में हो ही नहीं सकतीं और अगर हैं तो सिर्फ घर की सजावट वाला काम (इंटीरियर डिजाइनर) ही हो सकती हैं और उनके काम में विश्वास भी कम किया जाता है।

कंस्ट्रक्शन वर्ल्ड में छपी रिपोर्ट्स के मुताबिक हमारे देश में 46.67 प्रतिशत महिलाओं के पास आर्किटेक्ट होने का लाइसेंस है लेकिन इनमें से मात्रा 20 प्रतिशत महिलाएं ही जो आर्किटेक्चर के तौर पर प्रैक्टिस कर पाती हैं। प्रैक्टिस में महिलाओं की संख्या कम होने के कारणों में अपने से सीनियर व्यक्ति द्वारा शोषण पहला मुख्य कारण है। कई परतों में भेदभाव होता है, महिलाओं के काम को पुरुष के काम के मुकाबले कई-कई बार परखा जाता है। आर्किटेक्चर क्षेत्र सीखने के पहलू से चैलेंजिंग हो सकता है लेकिन इसमें काम महिलाएं कैसे और कितना कर पाती हैं इसे पितृसत्तात्मक समाज ने और भी कठिन बना दिया है।


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