इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत ग्रामीण इलाकों में विटिलिगो से जुड़े मिथ्यों के कारण भेदभाव और तिरस्कार का सामना करतीं औरतें

ग्रामीण इलाकों में विटिलिगो से जुड़े मिथ्यों के कारण भेदभाव और तिरस्कार का सामना करतीं औरतें

यहां पूरब के सारे इलाके इस छुआछूत की मानसिकता से ग्रस्त हैं। हालत यह है कि यहां जिसके घर में किसी को विटिलगो है तो उस घर में कोई शादी नहीं करना चाहता।

इन दिनों बीबीसी पर विटिलिगो से जुड़ी एक रिपोर्ट देखी ‘द डिफिनेशन ऑफ ब्यूटी।’  इसमें कुछ लोग अपनी देह के विटिलिगो पर अपने अनुभव और सामाजिक जीवन में मिली पीडाओं पर बात कर रहे थे। इसे देखते हुए मुझे समझ में आया कि वे शहरी पढ़े लिखे वर्ग के लोग हैं लेकिन जो सफ़ेद दाग को लेकर एक सामाजिक दृटिकोण हैं उसे झेलते आ रहे हैं। विटिलिगो से लड़ती स्वर्णकांता रिपोर्ट में कहती हैं, “बाहर निकलती हूं तो लोग अजीब नजरों से देखते हैं और शायद लोगों की दृष्टि के कारण उनको खुद भी ये  लगता है कि कोई चीज चिपक गयी है स्कीन पर जिसे निकाल कर फेंक दूं। 

विटलाइगो फाइटर आकाश ऐसे लोगों के लिए एक एनजीओ चलाते हैं आकाश कहते हैं कि किसी को दाग नहीं चाहिए। बाहर निकलते ही लोग अजीब सी नजरों से देखते रहते हैं। वह कहते हैं जब पहले गाँव में रहते थे तो लोग इसे देवी देवता का प्रकोप मानते थे। आगे वह बताते हैं कि ट्रीटमेंट में हम बहुत फंसे पिता रिक्शा चालक थे पर सात आठ लाख रुपये खर्च कर दिये। ख़ैर ये सारे लोग फाइटर हैं और अपने जीवन में सफ़ेद दाग के कारण जो चुनौतियां आ रही हैं जीवन में उसी के साथ लड़ना ही इनके लिए खूबसूरती है।

इसे देखते हुए जो एक सवाल मन में उठता है कि यहां लोग अपने अनुभव से कह रहे हैं। ये अनुभव गंवई इलाकों के जनजीवन में विटिलिगो के कारण जो भयानक तिरस्कार मिलता है उससे कुछ कम ही है। गाँव में इस विटिलिगो को ‘फूल’ कहा जाता है। किसी को विटिलिगो हो गया है तो कहेंगे कि फलां को फूल पड़ गया है। इसे इस भयानक अर्थ में लिया जाता है कि गाँव में रहनेवाला या उस स्थानीयता की सोच में ढला मनुष्य कांप जाता है कि उसे कोई बहुत भयानक रोग हो गया है।

रिपोर्ट को देखते हुए देखते हुए मेरा ध्यान अपने आसपास आज तक होते आ रहे सामाजिक तिरस्कार की तरफ गया कि कैसे महज देह पर इस अलग रंग के कारण गाँवों में उन व्यक्तियों का आजीवन तिरस्कार किया जाता है। अब यह बात ध्यान देने की है कि ये शहरी पढ़े-लिखे लोग हैं जो मन के तमाम पूर्वाग्रहों से लड़ रहे हैं। लेकिन गांवों में इसकी स्थिति ये है कि ऐसे लोग शादी ब्याह उत्सव में  भरी भीड़ में कहीं एक जगह अलग खाना खा रहे हैं। खुद को सभ्य और संस्कारी कहनेवाला समाज अपने इस दुराव पर शर्मिंदा होने की बजाय इनका मज़ाक भी बनाता रहता है।

ग्रामीण इलाकों में आए दिन सामने आते ये मामले बताते हैं कि इस बात को लेकर हमारा समाज ज्यादा नहीं बदला। विटिलिगो को लेकर उनकी मानसिकता वही है। बस दहेज कानून के मजबूत होने से अब ससुरालवाले थोड़े से पीछे हट रहे हैं।

यहां पूरब के सारे इलाके इस छुआछूत की मानसिकता से ग्रस्त हैं। हालत यह है कि यहां जिसके घर में किसी को विटिलिगो है तो उस घर में कोई शादी नहीं करना चाहता। अगर किसी को बहुत कम दाग है कहीं जो छिपा हुआ है सामने से दिखता नहीं और उसकी शादी ये बात छिपाकर कर दी गई तो बाद में पता चलने पर छोड़ने की कोशिश की जाती है। कुछ समय पहले तो बकायदा लड़की को छोड़ दिया जाता था लेकिन बाद में दहेज कानून बनने से छोड़ना उतना आसान नहीं रह गया।

मेरी सगी मौसी की मौत बस इस दाग के कारण मिली यातना के कारण हो गई थी। उनकी बांह पर छोटा सा उजला दाग था। घरवालों ने यह बात छिपाकर उसकी शादी कर दी थी। ससुराल जाने पर ससुरालवालों को दाग दिख गए। फिर शुरू हो गई अमानवीय यातना। उस लड़की को इतना मारा -पीटा जाता कि आसपास के लोग कांप जाते थे। यह यातना इसलिए दी जाती थी ताकि वह ससुराल छोड़कर चली जाए। लेकिन वह सब सहती रहती है। अवध के गाँवों में अधिकांश घरों में यह सीख अब भी बेटियों को दी जाती है कि चाहे जान चली जाए पर पति का घर नहीं छूटना चाहिए। लेकिन आखिरकार ससुरालवालों ने उनके भाई बुलाकर उसे मायके विदा कर दिया जहां मानसिक और शारीरिक कष्ट के कारण जल्दी ही उनकी मौत हो गई। यह हमारे समाज की विडंबना है एक स्वस्थ मनुष्य जिसकी देह पर कहीं एक उजला दाग था महज उसके कारण आखिरकार उसकी असमय मौत हो गई। मानसिक और शारीरिक यातना से उनको जल्दी ही टीबी हो गई थी। मायके में इलाज चलता रहा पर ठीक न हो सकी।

मेरे परिवार की इस घटना से कोई अनुमान न लगाए कि ये कुछ साल पहले की बात है। हमारे आसपास के परिवारों में इस तरह की चीजें चलती रही हैं लेकिन बात बस छूटने छोड़ने तक गई। बाकी विटिलिगो के कारण सामजिक दुर्व्यवहार और अपमान में कोई कमी नहीं आयी है। हालात तो यहां तक है कि गाँव में जिसकी देह पर विटिलिगो है उसके हाथ से कोई पानी नहीं पीता, कोई कुछ खाता नहीं है। अभी इसी साल की घटना है पास के ही गाँव बोधिपट्टी में एक नवविवाहिता जिसकी शादी बड़े ही धूमधाम से हुई थी बाद में पता चलता है कि लड़की को विटिलिगो है। ससुरालवाले लड़की को छोड़ देते हैं। मायकेवालों ने पहले पंचायत बुलाई लेकिन उससे बात नहीं बनी तो कानून का सहारा लिया। तब जाकर लड़की ससुराल में रह पाई। 

विटिलिगो को लेकर गाँव में जितनी अमानवीयता दिखती उतनी ही सहजता से उस अमानवीयता को उतनी ही आसानी से स्वीकार भी किया जाता है। यह बात ज़ाहिर है कि जो समाज में हाशिये पर होता है उसके साथ ज्यादा अमानवीयता होती है। पुरुषों के मामले में तिरस्कार उतना नहीं दिखता जितना स्त्रियों को लेकर दिखता है।

ग्रामीण इलाकों में आए दिन सामने आते ये मामले बताते हैं कि इस बात को लेकर हमारा समाज ज्यादा नहीं बदला। विटिलिगो को लेकर उनकी मानसिकता वही है। बस दहेज कानून के मजबूत होने से अब ससुरालवाले थोड़े से पीछे हट रहे हैं। मछली गाँव की रहने वाली प्रमिला बताती हैं कि पहले विटिलिगो उनको नहीं था। शादी के बाद गोदना गुदवाने से केमिकल के रिएक्शन हुआ और उनकी चमड़ी का रंग सफ़ेद हो गया। इसके बाद ससुरालवालों ने उन्हें छोड़ दिया था। इस तरह की अनगिनत कहानियों से अवध के गाँव भरे हुए हैं। गांववालों से चर्चा करो तो बड़े गर्व से वे इस बात को स्वीकार करते हैं।

विटिलिगो को लेकर गाँव में जितनी अमानवीयता दिखती उतनी ही सहजता से उस अमानवीयता को उतनी ही आसानी से स्वीकार भी किया जाता है। यह बात ज़ाहिर है कि जो समाज में हाशिये पर होता है उसके साथ ज्यादा अमानवीयता होती है। पुरुषों के मामले में तिरस्कार उतना नहीं दिखता जितना स्त्रियों को लेकर दिखता है। हमारे गाँव की ही एक स्त्री हैं जिनको विटिलिगो है। वह बड़े शान से यह बात बताती हैं कि उनको ससुराल वालों ने छोड़ा नहीं बल्कि जब उनके तीनों बेटे पैदा हुए तो दूध उन्हें नहीं पिलाने दिया गया। गाँव की एक औरत को बच्चों को दूध पिलाने के लिए रखा गया था। यहां मान्यता है कि विटिलिगो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है तो माँ के दूध न पिलाने से को बच्चों में नहीं आ सकता। अब इस तरह की भ्रांति के लिए माँ को अपने बच्चों को कभी दूध नहीं पिलाने दिया गया। इसमें वे तर्क देते हैं कि ये एक तरह का असाध्य रोग होता है जो अनुवांशिक होता है।  इस तरह की अनगिनत निराधार दलीलें हैं उनके पास जिनका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं होता लेकिन सदियों की धारणा टूटती नहीं। 

विटिलिगो के कारण सामजिक दुर्व्यवहार और अपमान में कोई कमी नहीं आयी है। हालात तो यहां तक है कि गाँव में जिसकी देह पर विटिलिगो है उसके हाथ से कोई पानी नहीं पीता, कोई कुछ खाता नहीं है।

अब जब यह बात साबित हो गई है कि विटिलिगो एक तरह का त्वचा का रंग है। यह भिन्न इसलिए हो जाता है कि जिस मिलेनिन के कारण त्वचा का रंग बनता है वह जब कहीं कम हो जाता है तो त्वचा का रंग सफ़ेद रह जाता है। यह एक बात गौर करने की है कि गाल में डिम्पल पड़ने का कारण भी कुछ उसी तरह से है लेकिन समाज में उसे सौंदर्य का प्रतीक मान लिया गया है और सफ़ेद रह गई त्वचा को भद्दा रोग। आप जब विटिलिगो को लेकर बनी धारणा का अध्ययन करेगें तो पाएंगि कि पूर्वाग्रह और मान्यता किस तरह से समाज की सोच को जकड़कर रखता है। हम इनसे एकदम से निकल नहीं पाते। ये रंग-रूप की बनी-बनाई धारणा कंडीशनिंग बनकर हमें आजीवन दुख देती है। 


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