इंटरसेक्शनलजेंडर समाज और बाज़ार के बने-बनाए मानकों में जकड़ा स्त्री के रूप-रंग का प्रश्न

समाज और बाज़ार के बने-बनाए मानकों में जकड़ा स्त्री के रूप-रंग का प्रश्न

दुनियाभर में सुंदरता के कुछ निश्चित मापदंड बना दिए गए हैं जो विचार जड़ होकर भेदभाव का एक समाज बना चुका है। हमारे यहां ‘वधु चाहिए’ का हर एक विज्ञापन शुरू कुछ ऐसे होता है, “गोरी, छरहरी, कद लंबा, कान्वेंट एडुकेटेड गृह-कार्य में दक्ष।”

प्रकृति के कितने रंग हैं और सब सुंदर हैं। वहां रंग का कोई भेद नहीं है और रूप या आकार का भी कोई सीमित मानक नहीं है। उसके यहां सब सुंदर है लेकिन दुनियाभर में सुंदरता के कुछ निश्चित मापदंड बना दिए गए हैं जो विचार जड़ होकर भेदभाव का एक समाज बना चुका है। हमारे यहां ‘वधु चाहिए’ का हर एक विज्ञापन शुरू कुछ ऐसे होता है, “गोरी, छरहरी, कद लंबा, कान्वेंट एडुकेटेड गृह-कार्य में दक्ष।” ध्यान से देखेगें तो यह विज्ञापन ही कितना अमानवीय है जो एक मनुष्य को प्रॉडक्ट की तरह पेश करता है। लेकिन भारतीय समाज की बरसों पुरानी कंडीशनिंग जिससे वह ऊबर नहीं पाता उसके मुताबिक छोटे कद की, सांवली और गोल-मटोल लड़की नहीं चाहिए। यानी छोटे कद की सांवली या काले रंग की लड़की मनुष्य होने के अर्थ में नहीं है, हमारा समाज कुछ यही बात कह रहा है।

एक सांवली लड़की को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है वह फेयर एंड लवली का विज्ञापन बड़े अच्छे से बताता था। कैसे नौकरी के लिए इंटरव्यू और पिता से अपनी पहचान के लिए बात के बीच सांवले या काले होने की समस्या जुड़ गई और फेयर एंड लवली ने उसका हल निकाल लिया। जैसे दुनिया बस गोरा होने से ही चल रही है। समय के साथ एक परिवर्तन और जुड़ा है, अब लड़कियां ही नहीं काले होने की मुश्किल से जूझती हैं बल्कि लड़कों की भी फेयरनेस मेंन्स क्रीम आने लगी है। मर्दों वाले साबुन-तेल के साथ मर्दोंवाली फेयरनेस क्रीम।

आज से बहुत समय पहले तक की कोई तस्वीर आपके हाथ लगी हो तो गौर फरमाइए कि ज्यादातर आम लोग सांवले ही थे। अति कुलीन घरानों, राजा-रानी या जमींदारों के परिवारों को छोड़ दिया जाए तो खेती-किसानी में लगे आम लोग गेहुंए या सांवले थे। उस समय की अपनी समस्याएं थीं लेकिन ऐसी नहीं थी। अगर ऐसा होता तो महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी के रूप को देखकर जब राजा ने उपहास किया तो वो यह कहकर सबका मुंह बंद कर नहीं पाए होते,  “मोहि का हंससि कि कोंहरहिं” यानि मुझ पर हंस रहे हो या मुझे बनाने वाले कुम्हार यानि ऊपरवाले पर।

इसलिए सामान्य रंग-रूप वाले लड़कों के परिवार वालों की यही ख्वाहिश होती है कि लड़की ऐसी मिले जिससे वे ‘ऊपर वालों’ में शामिल हो जाए। यह सचेत भले न हो लेकिन हमारे अवचेतन में गहरे पैठा है जिसका पूरा बोध बाज़ार को है। वह धीरे से यह कुंठा हमारे मन में भरता है।

आज विज्ञान और तकनीक जितना आगे है उस माध्यम से बहुत ही सटीक जवाब दिया जा सकता है। लेकिन यह जवाब देने के लिए सच और सौन्दर्य की समझ होनी चाहिए। अगर ध्यान से देखगें तो बड़ी ग्लोबल दुनिया ने लोगों की कुंठाओं को ग्लोबल कर दिया है। लोग पहले सौन्दर्य अपने समाज की सीमाओं के भीतर देखते थे लेकिन अब उनके सौन्दर्य का मापदंड बदल गया है। विवाह के लिए लड़की-लड़का नहीं एक मॉडल चाहिए। वैसा जैसा किसी विज्ञापन में आता है। चूंकि हमारे यहां अभी भी ज्यादातर लड़कियों को चुनाव की आजादी नहीं है। लड़कों को ही वधु पसंद या नापसंद करने की आज़ादी है, इसलिए लड़के विज्ञापन में आनेवाली मॉडल जिसकी एक निश्चित लम्बाई, वजन और रंग-रूप होता है, उसे ढूंढते रहते हैं। इसी प्रक्रिया में अनगिनत लड़कियों के अपमान का लंबा सिलसिला लिखा जाता है। जहां उनके तमाम गुण बाज़ार द्वारा नियत मापदंड के आगे फीके साबित होते हैं।

सौंदर्य के इस बाजार ने स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित किया है। हमारे देश की लड़कियों का कैसा स्वास्थ्य है, उस पर क्या कहें। यहां तो कुछ जिन्दगी की जद्दोजहद, कुछ घर की तंगी, ऊपर से सुंदरता की बाज़ारू समझ। ज्यादातर लड़कियों को पर्याप्त भोजन नसीब नहीं है और जिन्हें है उनके बीच जीरो फीगर की बीमारी का रोग परोसा जा रहा है। ज्यादातर लड़कियां खून की कमी से पीड़ित हैं। बाजार ने हमारी आंखों पर एक ऐसा चश्मा लगा दिया है कि हमें सबकुछ उसके हिसाब से ही दिखने लगा है। कुछ भी उससे इतर स्वीकार नहीं है।

बाज़ार की एकरसता आंखों के भीतर जा बैठी है। एक रंग, एक सांचा, एक तरह की मुस्कान, एक तरह का पहनावा, एक तरह का खानपान। बेहद उबाऊ। पहाड़ का लड़का या लड़की हो या पंजाब का, हम सबको एक ही तराजू में रखकर तौलने लगते हैं। जैसे रंग रूप और सौंदर्य के अन्य मिथकों का बाज़ार ने एक जाल बुन दिया है जिसमें हम में हर कोई फंस रहा है अगर जो इस जाल को समझ पा रहा है तो अपने अपनों को भी एकदम से बाजार के चलन से बचा नहीं पा रहा है। जिस समाज और जिस पुरुष की ओर स्त्री टकटकी बांधे देखती है उसकी नज़र मर्दवादी तो थी ही अब वह बाज़ारवादी भी हो गई है। उसे औरत का सौन्दर्य कुछ खास किस्म के इंच में, लम्बाई और चौड़ाई में नजर आता है। 

चूंकि हमारे यहां अभी भी ज्यादातर लड़कियों को चुनाव की आजादी नहीं है। लड़कों को ही वधु पसंद या नापसंद करने की आज़ादी है, इसलिए लड़के विज्ञापन में आनेवाली मॉडल जिसकी एक निश्चित लम्बाई, वजन और रंग-रूप होता है, उसे ढूंढते रहते हैं। इसी प्रक्रिया में अनगिनत लड़कियों के अपमान का लंबा सिलसिला लिखा जाता है।

दुख इस बात का है कि इस सौन्दर्यबोध के बीच इंसान गायब है। औरत अब वह औरत नहीं रही। वह बाज़ार का ऐसा उत्पाद है जिसे पैसे और मर्द ने बनाया है। नाओमी वुल्फ ने अपनी किताब ‘ब्यूटी मिथ’ में तमाम बातों के अलावा लिखा है कि अपने शरीर को लेकर शर्मिंदा स्त्री कभी पूरा प्रेम नहीं कर सकती और इसी तरह सौन्दर्य के अपने संर्कीण नज़रिये को लेकर रहनेवाला पुरुष अपने सामने खड़े सच्चे प्रेम को कभी पहचान नहीं सकता। आज भी अंग्रेजों को उनके रंग के कारण गोरे कहा जाता है। जिन गोरों ने पूरे देश को गुलामी में पीसकर रख दिया, उनके प्रति नफरत या घृणा का भाव हमारे मन में नहीं है। घृणा किस रंग से है काले से। हमारी संवेदनाएं ठीक से देखें तो नस्लीय, वर्णीय, लैंगिक और जातीय हैं। 

तमाम अफ्रीकी नस्ल के लोग हमारे लिए काले हैं। जबकि इतिहास में झांके तो उन्होंने हमारे साथ कुछ ऐसा बुरा नहीं किया है बल्कि दर्द की अगर कोई एकता बनती है तो उन्हीं के साथ बनती है। अफ्रीकी लेखक न्गुगी वा थ्योंगो ने अपनी किताब ‘भाषा संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता’ में इसी औपनिवेशिक मानसिकता पर चोट की है। औपनिवेशिक ताकतें अपने आर्थिक और राजनीतिक नियंत्रण को ज्यादा से ज्यादा मुक्कमल रूप देने के लिए सांस्कृतिक परिवेश पर अपना नियंत्रण बनाने की कोशिश करती हैं। शिक्षा, धर्म, भाषा, साहित्य, गीत, नृत्य के विविध रूप, अभिव्यक्ति के प्रत्येक रूप आदि पर नियंत्रण करके वे जनता के समग्र मूल्यों पर नियंत्रण हासिल कर लेते हैं। इस तरह जनता के विश्व दृष्टिकोण पर भी उनका नियंत्रण हो जाता है। इसी के अधीन लोग खुद को परिभाषित करने लगते हैं।

दुख इस बात का है कि इस सौन्दर्यबोध के बीच इंसान गायब है। औरत अब वह औरत नहीं रही। वह बाज़ार का ऐसा उत्पाद है जिसे पैसे और मर्द ने बनाया है। नाओमी वुल्फ ने अपनी किताब ‘ब्यूटी मिथ’ में तमाम बातों के अलावा लिखा है कि अपने शरीर को लेकर शर्मिंदा स्त्री कभी पूरा प्रेम नहीं कर सकती।

ये नींव हमारे घर परिवार से हमारे मन में रोपना शुरू होता है। आज हमारे घरों में जो बच्चा उनके सौंदर्य के मानक फिट नहीं है उसे हर वक्त यह एहसास कराया जाता रहेगा बहुत अन्य तरह के तरिके से अच्छा या बुरा, प्यार से या खराब तरीके बच्चे को ख़ासतौर पर लड़कियों को यह तो बताया ही जाता है कि कुदरत या भगवान ने कुछ नाइंसाफी तो कर दी है लेकिन वे उसे अपने अच्छे गुणों से पाट सकती हैं। कोंकण से लेकर पूरे दक्षिण में काले या सांवले लोगो को गोरे पीतवर्णी ब्राह्मणों से रोज अपमानित होना पड़ा। लेकिन सौन्दर्यबोध वही रहा। जैसे यह हमारे समाज की गहरी चाह हो,  शासकों के रंग-रूप के प्रति यह आकर्षण बना है। इसलिए सामान्य रंग-रूप वाले लड़कों के परिवार वालों की यही ख्वाहिश होती है कि लड़की ऐसी मिले जिससे वे ‘ऊपर वालों’ में शामिल हो जाए। यह सचेत भले न हो लेकिन हमारे अवचेतन में गहरे पैठा है जिसका पूरा बोध बाज़ार को है। वह धीरे से यह कुंठा हमारे मन में भरता है। फिर एक बड़ा सा होर्डिंग में  रोज दिखें गोरी-निखरी, पूरे हफ्ते लगाएं, फलां क्रीम लगा र आम भारतीय की कुंठा पर मुहर लगा देता है। फिर रहें परेशान, झेले अपमान।

ठीक यही बात इस समाज की जड़ व्यवस्था के प्रति आकर्षण का भी है। ब्राह्मणवाद या सामंतवाद लोगों को ऐसे ही भाता है उनकी जीवनशैली उनके रीति रिवाज, रहन सहन , बोलना यहां तक खान-पान तक लोगों का स्वप्न बनता है। यही गुलामी का स्वप्न अपने शोषकों की तरह जीवन जीने की इच्छा किसी भी समाज के स्वस्थ निर्माण में बेहद घातक है। यही इच्छा शासन करने, सुख-सुविधा भोगने की प्रवृत्ति की ओर जोड़ देती है। जब एक शोषित समाज संघर्ष की जमीन याद नहीं रख पाता तब नव-सामंतवादी समाज को जन्म देता है और तब परिवर्तन की लड़ाई फिर वहीं पीछे चली जाती है।


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