संस्कृतिसिनेमा दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ आज भी क्यों प्रासंगिक है

दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ आज भी क्यों प्रासंगिक है

फ़िल्म की पटकथा शुरू होती है, बनारस के घाटों पर जलती लाशों के बीच आठ नौ साल की बच्ची, चुहिया ( सरला करियावसम) के बाल काटे जाते हैं, चूड़ियां तोड़ी जाती हैं क्योंकि उसके पति, जो उसके पिता की उम्र का था, का निधन हो जाता है और चुहिया को ता उम्र विधवा की ज़िंदगी बिताने के लिए उसका पिता उसे विधवा आश्रम छोड़ आता है।

कैनेडियन इन्डियन फिल्म डायरेक्टर दीपा मेहता 2000 के दशक तक एक फिल्म ट्रायलॉजी लेकर आईं, जिसमें फ़िल्म फायर, अर्थ और फ़िल्म वॉटर शामिल है। वॉटर 2005 में बनकर तैयार हुई लेकिन रिलीज़ 9 मार्च 2007 को हुई। फ़िल्म सन 1938 से बढ़ते हुए दौर में ब्रिटिश राज से मुक्ति की लड़ाई के मध्य विधवाओं के जीवन को बाकी परिस्थितियों से जोड़ते हुए दिखाती है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जिस दौर में कोई फ़िल्म निर्माता हकीकत को परदे पर नहीं उतारना चाहता था तब दीपा मेहता ने वॉटर फ़िल्म बनाना चुना। “एक विधवा को मृत्यु तक लंबे समय तक पीड़ित रहना चाहिए, संयमित और पवित्र। पति की मृत्यु के बाद भी सदाचारी पत्नी स्वर्ग में जाती है। जो स्त्री अपने पति के साथ विश्वासघात करती है, उसका जन्म सियार के गर्भ में होता है।” ये कथन मनुस्मृति (पंचम पाठ, छंद 156-161) के अनुसार विधवाओं के लिए दिशा निर्देश है जिसे फिल्म की शुरुआत में दिखाया जाता है जिससे ये साफ़ होता है कि हिंदू धर्म द्वारा पवित्र माना गया धर्मशास्त्र विधवाओं, महिलाओं के लिए कितना क्रूर है।

फ़िल्म की पटकथा शुरू होती है, बनारस के घाटों पर जलती लाशों के बीच आठ नौ साल की बच्ची, चुहिया (सरला करियावसम) के बाल काटे जाते हैं, चूड़ियां तोड़ी जाती हैं क्योंकि उसके पति, जो उसके पिता की उम्र का था, उसका निधन हो जाता है और चुहिया को ताउम्र विधवा की ज़िंदगी बिताने के लिए उसका पिता उसे विधवा आश्रम छोड़ आता है। यह जानते हुए कि बड़ी उम्र के व्यक्ति का निधन जल्दी हो जाएगा, छोटी बच्चियों की शादी ऐसे व्यक्तियों से की जाती रही। ये व्यवस्था जाति और पितृसत्ता दोनों की बुनियाद पर टिकी थी, छोटी उम्र में लड़कियों का विवाह कर देना उनसे उनके पसंद के व्यक्ति से शादी करने की आज़ादी छीन लेना था ताकि वे किसी अन्य जाति या धर्म के व्यक्ति के साथ संबंध में न आएं, और बड़े उम्र के व्यक्ति ही इसीलिए चुने जाते रहे ताकि लड़की को कंट्रोल किया जा सके।

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फ़िल्म के बढ़ने के साथ चुहिया विधवा आश्रम में आती है, वहां हर उम्र की विधवाएं थीं और सबकी अपनी अपनी कहानी लेकिन फिर भी एक बात सभी में समान थी कि वे सभी छोटी उम्र में विधवा हुई थीं। उनका रहना, खाना, सोना, काम सभी धर्मशास्त्र के अनुसार था। ज़मीन पर सोना, एक वक्त वो भी सादा खाना खाना, हंसना नहीं, भगवान के नाम का जप करते रहना। उन्हें ये यकीन दिलवा दिया गया कि उनका जीवन उन्हीं की वजह से ऐसा है, इसमें किसी का कोई कुसूर नहीं। इस समाज में आज भी यही होता है कि महिलाओं के जीवन में अभावों की ज़िम्मेदारी कोई व्यवस्था नहीं लेती।

तस्वीर साभार: Rogerebert.com

दीपा मेहता ने आश्रम की व्यवस्था को ठीक तरह से दिखाया है जैसे कि शारीरिक रूप से बेहतर और उम्रदराज महिला (मधुमति) की बाकी महिलाओं पर एकाधिकार था, और जो विधवा महिला समाज के अनुसार खूबसूरत थी, जिसका नाम कल्याणी (लीजा रे) था उसे एक अलग कमरे में रखा जाता था, और उसके बाल भी नहीं काटे गए थे। ऐसा इसीलिए था क्योंकि मधुमति कल्याणी को गांव के बड़े जमींदार सेठ द्वारकानाथ के यहां रोज़ रात को भेजती थी जिसके ज़रिये मधुमति को आश्रम चलाने के लिए पैसा भी आता था।

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दीपा मेहता द्वारा ये सीन डाला जाना कोई अतिश्योक्ति नहीं है क्योंकि इस समाज के अनुसार जिस महिला का पति नहीं होता या उसके साथ कोई पुरुष नहीं होता उस पर हर पुरुष का अधिकार होता है। सेठ द्वारकानाथ के ही बेटे नारायण (जॉन अब्राहम) जो कि एक गांधीवादी राष्ट्रवादी व्यक्ति है को कल्याणी से प्रेम हो जाता है। जब कल्याणी के प्रेम संबंध के बारे में मधुमति को ख़बर होती है तो उसे कमरे में बंद कर दिया जाता है तब शकुंतला (सीमा बिस्वास) उसे कमरे से बाहर निकालकर उसे अपने प्रेमी के पास भाग जाने को कहती हैं।

शकुंतला यह जान चुकी थी कि विधवाओं के पुनर्विवाह का कानून देश में लागू किया जा चुका है, बस उन तक ऐसे कानूनों को इसीलिए नहीं पहुंचाया जा रहा है। देश में पुनर्विवाह का कानून बेशक मौजूद है लेकिन आज भी पुनर्विवाह के नाम पर विधवा की शादी मृतक पति के भाई से करवा दी जाती है क्योंकि ये चलन अभी भी मौजूद है कि एक घर में ब्याहकर आई महिला की उस घर से अर्थी ही उठनी चाहिए। दूसरी ओर वृंदावन, मथुरा की विधवाएं इस परंपरा का जीता जागता सुबूत हैं जहां आज भी कोई दीपा मेहता जाकर वॉटर फिल्म का निर्माण जस की तस कर सकती हैं।

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कल्याणी आश्रम से भागकर नारायण के साथ नाव में सवार होकर उसके घर के करीब पहुंचती ही है कि वह समझ जाती है कि यही वही घर है जहां उसे हर रात लाया जाता है। यह समझते हुए वह नारायण से उसके पिता का नाम पूछती है। नाम जानकर वह नाव मुड़वाकर वापस आश्रम की ओर आती है। नारायण अपने पिता से जब कल्याणी के बारे में पूछता है तब सेठ जो कहता है उसका मानी होता है कि एक ब्राह्मण द्वारा किसी विधवा के साथ संबंध बनाना उस विधवा के लिए सौभाग्य की बात है और ब्राह्मण कितनी भी स्त्रियों के साथ संबंध बना सकता है। इसके जवाब में नारायण अपने पिता से कहता है कि उसके पिता जैसे लोगों ने ही वेदों के गलत अर्थ निकाले हैं।

तस्वीर साभार: National Canadian Film Day

दीपा मेहता ने सब परिस्थिति ठीक से दिखाई लेकिन यहां वह नारायण के मुंह से वेदों को डिफेंड कर गईं जबकि मनुस्मृति जैसा ग्रंथ पुरुष उसमें भी उच्च जाति के पुरुष के साथ खड़ा हुआ है तो इसमें ये बात उठती ही नहीं कि किसने किस धर्मशास्त्र, वेद को सही तरह से बताया है और किसने गलत तरीके से। वहीं नारायण जो एक गांधीवादी है, उसका इस तरह का वेदों का पक्ष लेना गांधी द्वारा वेदों में विश्वास, वर्ण व्यवस्था का पक्षी होना भी दिखाता है।

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कल्याणी नारायण के पास से वापस आश्रम जब लौटती है तो मधुमति उसे इशारा करती है कि उसे वापस किसी सेठ के पास ले जाया जाएगा। कल्याणी इतनी दुखी होती है कि वह यमुना घाट जाकर जल समाधि ले लेती है। वहीं नारायण बनारस छोड़कर कलकत्ता के लिए निकल जाना बेहतर समझता है। कल्याणी की मृत्यु तो हो जाती है लेकिन इस सीन के पीछे यह भी छिपा हुआ है कि सेठ द्वारकानाथ जैसे व्यक्तियों के पास फिर कोई कल्याणी वापस भेज दी जाएगी। फ़िल्म के अंत तक यही होता है कि मधुमति, चुहिया को उसके घर वापस भेजने के बहाने सेठ के पास भेज देती है।

देश में पुनर्विवाह का कानून बेशक मौजूद है लेकिन आज भी पुनर्विवाह के नाम पर विधवा की शादी मृतक पति के भाई से करवा दी जाती है क्योंकि ये चलन अभी भी मौजूद है कि एक घर में ब्याहकर आई महिला की उस घर से अर्थी ही उठनी चाहिए।

शकुंतला हर जगह चुहिया को ढूंढती है, जब नहीं मिलती तो मधुमति से पूछती है। मधुमति जब उसे बताती है की चुहिया को उसने कहां भेजा है तब शकुंतला चुहिया को ढूंढते हुए घाट आती है, जहां गुलाबी (रघुबीर यादव), मधुमति का नौकर चुहिया को बेहोशी की हालत में लाता है। शकुंतला चुहिया को कल्याणी बनते नहीं देखना चाहती थी इसीलिए जब बनारस में गांधी का जत्था ट्रेन से पहुंचा तब शकुंतला ट्रेन के पीछे भागते हुए सभी से कहती है कि इसे (चुहिया को) गांधी को दे दें, जब कोई नहीं सुनता तब नारायण की ही नज़र शकुंतला की तरफ़ जाती है और वह चुहिया को अपनी गोदी में ले लेता है।

फिल्म के आखिरी शॉट में शकुंतला ट्रेन को देखती रह जाती है और दर्शक शकुंतला का चेहरा देखते रह जाते हैं। फ़िल्म में कुछ जगह लगता है जैसे गांधी को अति ग्लोरिफाई किया गया है। जाति को लेकर विधवाओं के मध्य क्या स्थिति थी वह साफ़ की जा सकती थी लेकिन बावजूद इसके दीपा मेहता फिल्म के कॉन्टेंट के साथ, ऑथेंटिसिटी के साथ ईमानदार होती दिखती हैं। फ़िल्म विवाद के घेरे में भी आई थी, जब दीपा बनारस में फिल्म की शूटिंग कर रही थीं तब हिंदूवादी संगठन के लोगों ने विरोध किया था और ये कहते हुए कि फ़िल्म एंटी हिंदू है, शूटिंग रुकवा दी थी। सेट पर भी तोड़फोड़ की थी। इस सबके चलते दीपा मेहता ने फिल्म की शूटिंग श्रीलंका में शुरू की थी।

एक इंटरव्यू के दौरान दीपा मेहता फिल्म पर अपनी राय रखते हुए कहती हैं “पानी बह सकता है या पानी स्थिर हो सकता है। मैंने फिल्म को 1930 के दशक में सेट किया था लेकिन फिल्म में लोग अपना जीवन जीते हैं क्योंकि यह 2,000 साल से अधिक पुराने एक धार्मिक पाठ द्वारा निर्धारित किया गया था। आज भी लोग इन ग्रंथों का पालन करते हैं, यही एक कारण है कि लाखों विधवाएं हैं। मेरे लिए यह एक तरह का रुका हुआ पानी है। मुझे लगता है कि परंपराएं इतनी कठोर नहीं होनी चाहिए। उन्हें फिर से भरने वाले पानी की तरह बहना चाहिए।”

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तस्वीर साभार: Mubi

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