“ये केंद्र का मामला है इसके लिए बाल विकास मंत्रालय के पास जाइए” यह टिप्पणी देश की सर्वोच्च अदालत छात्राओं और कामकाजी महिलाओं को पीरियड्स लीव देने से जुड़ी एक जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार करते हुए की है। इस जनहित याचिका में सभी राज्यों के लिए मेंस्ट्रुअल लीव नियम बनाने की बात पर जोर दिया गया था। देश के मुख्य न्यायधीश डी. वाई. चंद्रचूड सहित तीन जजों की बेंच ने इस पर सुनवाई करने से ही इनकार कर दिया।
इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, “यह एक नीतिगत मामला है तो हम इस पर कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। नीतिगत विचारों को ध्यान में रखते हुए, यह उचित होगा कि अगर याचिकाकर्ता इसके लिए केंद्रीय महिला एवं बाल विकास से संपर्क करे।” इतना कहकर कोर्ट ने यह जनहित याचिका निरस्त कर दी।
जनहित याचिका पर संक्षिप्त सुनवाई करते हुए बेंच ने एक लॉ स्टूडेंट की दलीलों को हवाला देते हुए कहा है कि अगर हर महीने महिलाओं को मेंस्ट्रुअल लीव दी जाएगी तो यह उनकी कार्यस्थल पर नियुक्ति को भी प्रभावित कर सकती है। अदालत ने कहा है कि याचिका में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया गया है लेकिन मामला नीति से जुड़ा हुआ है तो हम इस पर कुछ नहीं कर सकते।
दिल्ली के शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी द्वारा वकील विशाल तिवारी के माध्यम से याचिका दायर की गई। याचिका में मैटरनिटी बेनिफिट एक्ट 1961 की धारा 14 के पालन के लिए केंद्र और राज्यों को निर्देश देने की मांग की गई थी। द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के अनुसार तिवारी का कहना है कि मेंस्ट्रुएशन एक जैविक प्रक्रिया है और महिलाओं और छात्राओं के साथ शैक्षिक संस्थानों और कार्यस्थल पर इस वजह से भेदभाव नहीं होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, “यह एक नीतिगत मामला है तो हम इस पर कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। नीतिगत विचारों को ध्यान में रखते हुए, यह उचित होगा कि अगर याचिकाकर्ता इसके लिए केंद्रीय महिला एवं बाल विकास से संपर्क करें।”
जस्टिस चंद्रचूड ने आगे कहा है, “हम इसे नकार नहीं रहे हैं लेकिन विद्यार्थी ने कहा है कि वास्तव में नियोक्ता (इंप्लॉयर) ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। इस मुद्दे के कई अलग आयाम हैं हम इसे नीति-निर्माताओं पर छोड़ देते हैं। पहले उन्हें नीति बनाने दीजिए, फिर हम उस पर विचार करेंगे।” अदालत ने कहा है कि इस नीति के बहुत से आयाम शामिल होने की वजह से हमारा मत हैं कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को इस पर ध्यान देना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा है कि किसी भी तरह का न्यायिक आदेश महिलाओं के विरूद्ध भी जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट आखिर क्यों नहीं ले सकता फैसला
इस मामले में अदालत ने बार-बार एक बात कही है कि यह एक नीतिगत मामला है, वह इस समस्या का निपटारा नहीं कर सकती है। अदालत का यह तर्क दिया है कि अगर हम आदेश देते है तो इंप्लॉयर, महिला कर्मचारियों को नौकरी रखने में हिचकेगें। सुप्रीम कोर्ट की ये दलील असल में मामले की गंभीरता को कम करती दिखती है। अगर सुप्रीम कोर्ट इस फैसले पर कोई आदेश नहीं भी ले सकता तो क्या अदालत पीरियड्स लीव के मामले में सरकार की जवाबदेही के लिए उसे तलब नहीं कर सकती। अदालत की ओर से पीरियड्स लीव के मुद्दे की महत्वता को समझते हुए सरकार से स्पष्ट और तय समय-सीमा में जवाब मांगा जा सकता है कि वह इस मामले पर क्या कर रही है। बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की जिम्मेदारी बता कर इस मामले को फिर से ठंडे बस्ते में डालने का काम किया है।
पीरियड्स होने वाले लोगों के स्वास्थ्य, अधिकार और आवश्यकता को देखते हुए बिहार और केरल जैसे राज्यों मे पीरियड लीव का प्रावधान है। साल 1992 से बिहार सरकार में कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए दो दिन का मेंस्ट्रुएल लीव प्रावधान है। ठीक इसी तरह जनवरी 2023 में केरल सरकार ने भी राज्य के सभी शिक्षण संस्थानों में पीरियड्स लीव की सुविधा जारी की है।
सुप्रीम कोर्ट में मैटरनल बेनिफिट एक्ट 1961 के तहत भारत में सभी राज्यों के लिए यह नियम बनाने के लिए याचिका दायर की गई थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई करने से ही मना कर दिया। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है अलग-अलग स्तर पर अदालत के सामने यह मामला कई बार जा चुका है। साल 2020 में दिल्ली हाई कोर्ट केंद्र सरकार और आप सरकार से पीरियड्स के दौरान छुट्टी के लिए कह चुका है। इकोनॉमिक्स टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के अनुसार जस्टिस डी.एन. पटेल और जस्टिस प्रतीक जलान की बेंच ने उस समय केंद्र और दिल्ली सरकार से ऐसे मामलों में लागू नियम, कानून और नीतियों के अनुसार जल्द से जल्द व्यवहारिक रूप से निर्णय लेने के लिए कहा था।
लगातार बनी हुई है पीरियड लीव की मांग
राज्य और संस्था स्तर पर पीरियड्स के दौरान छुट्टी की मांग कई बार कई स्तर पर लगातार उठती आ रही है लेकिन अब तक इसके बारे में कोई फैसला तो दूर इस विषय पर चर्चा तक नहीं हुई है। साल 2017 में शिवसेना की पार्षद शीतल महात्रे ने राज्य, अर्ध सरकारी और निजी संस्थानों में काम करने वाली महिला कर्मचारियों के लिए महीने में एक दिन की पीरियड लीव की मांग की थी। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में भी महिला शिक्षक संगठन की ओर से महीने में पीरियड्स लीव के तौर पर तीन अतिरिक्त छुट्टियों की मांग की थी। ये चंद कुछ घटनाएं हैं जो दिखाती है कैसे मेंस्ट्रुएल लीव एक ज़रूरी मुद्दा है जिसपर नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है।
जस्टिस चंद्रचूड ने आगे कहा है, “हम इसे नकार नहीं रहे हैं लेकिन विद्यार्थी ने कहा है कि वास्तव में नियोक्ता (इंप्लॉयर) ऐसा व्यवहार कर सकते हैं। इस मुद्दे के कई अलग आयाम हैं हम इसे नीति-निर्माताओं पर छोड़ देते हैं। पहले उन्हें नीति बनाने दीजिए, फिर हम उस पर विचार करेंगे।”
एक तरफ कुछ समूह, संस्थान और व्यक्तिगत स्तर पर पीरियड्स के मुद्दे पर बात करने की कोशिश की जा रही है दूसरी तरफ मौजूदा सरकार इस को लेकर चुप्पी साधे हुए है। वहीं भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता सार्वजनिक तौर पर पीरियड्स पर बातचीत तक को गलत कहते हैं। द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के अनुसार बीते वर्ष अरूणाचल प्रदेश विधानसभा में राज्य में पीरियड लीव से जुड़े एक प्राइवेट बिल का विरोध करते हुए भारतीय जनता पार्टी के विधायक लोकम तसर ने कहा था कि विधानसभा एक पवित्र स्थल है यहां पर इस तरह की अपवित्र बात नहीं करनी चाहिए और राज्य महिला आयोग को इस विषय में कदम उठाना चाहिए। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा था कि हमारी निशी (जनजाति) पीरियड्स के दौरान महिलाओं को रसोई से दूर रखा जाता है। ठीक इसी तरह बीजेपी के दूसरे नेता ताना हिन ने विधानसभा में कहा था कि ऐसी छुट्टी ज़रूर बिहार और केरल में स्वीकार होगी लेकिन हमारी जगह पर नहीं हो सकती है। इस बिल के सदन में चर्चा के दौरान महिलाओं और पीरियड्स लीव की मांग को लेकर यह तक कहा कि छुट्टी के लिए महिलाएं झूठ भी बोल सकती हैं।
भारतीय जनता पार्टी के नेताओं यह सोच और इस पर पार्टी के किसी बड़े नेता का बयान न आना दिखाता है कि सरकार इस मुद्दे को किस नज़र से देखती है। सरकार की चुप्पी और इस दिशा में कोई नीति न बनाना साफ करता है कि मौजूदा सरकार पीरियड्स के मुद्दे को आवश्यक विषय की नज़र से ही नहीं देखती है। यह साफ है कि केरल और बिहार में इस तरह की नीति मौजूद है और वहां की महिलाएं इसका फायदा भी उठा रही है। बावजूद इसके राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार मेंस्ट्रुएल लीव को लेकर कोई पॉलिसी तो दूर इस का ज़िक्र भी नहीं करती दिखती है।
पीरियड्स को लेकर खुलकर बात न करना और इस विषय की गंभीरता को न समझना संकीर्ण सोच दिखाता। इस संस्कृति को बदलने के लिए पीरियड्स से जुड़े मुद्दे और इसकी व्यापकता को ध्यान में रखकर नीतियां बनाने और चर्चा करने की बहुच ज्यादा आवश्यकता है। क्योंकि पीरियड्स केवल महिलाओं का विषय नहीं है बल्कि ट्रांस, नॉन-बाइनरी लोगों को भी इसमें शामिल करके सोचना ज़रूरी है।