संस्कृतिकिताबें अन्या से अनन्या: कठघरे में खड़ी औरत की कहानी

अन्या से अनन्या: कठघरे में खड़ी औरत की कहानी

उनकी आत्मकथा के शीर्षक के मायने अगर आप शब्दकोश में तलाशने जाएंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी। शब्दकोश में अन्य और अनन्य शब्द तो मिलेंगे लेकिन एक स्त्री के नज़रिये से इनकी विवेचना नहीं मिलेगी।

प्रभा खेतान को एक नारीवादी लेखिका के तौर पर हम जानते हैं। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि वह एक सफल बिजनेस वीमन भी थीं। उनकी आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ उनकी भोगी हुई ज़िन्दगी की बेबाक कहानी है। एक समाज जो स्त्री को हमेशा से दोयम दर्जे का मानता आ रहा है, उस समाज में खुद को साबित करना, अपने वजूद को तलाशना काबिल-ए-तारीफ है। 

उनकी आत्मकथा के शीर्षक के मायने अगर आप शब्दकोश में तलाशने जाएंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी। शब्दकोश में अन्य और अनन्य शब्द तो मिलेंगे लेकिन एक स्त्री के नज़रिये से इनकी विवेचना नहीं मिलेगी। ‘अन्या से अनन्या’ कहानी है उस स्त्री की जो अलग थी या समाज जिसे ‘दूसरी’ मानता था।

कहते हैं कि हमारे बचपन के माहौल का असर हमारे ऊपर सबसे ज्यादा पड़ता है। बचपन की घटनाएं मन-मस्तिष्क पर छाप छोड़ जाती हैं। प्रभा खेतान का बचपन उपेक्षित था। गोरी माँ की काली/सांवली बेटी को माँ अपना नहीं पा रही थी। जो प्यार और सम्मान बाकी भाई-बहनों को मिला वह प्रभा को कभी नहीं मिला। पढ़ते समय हमें यह लगता है कि कोई माँ अपने ही बच्चे के प्रति इतनी निर्मम कैसे हो सकती है? उसमें माँ की भी ग़लती नहीं है। वह भी तो उसी पितृसत्तात्मक समाज की पैदाइश है। उन्होंने भी तो बचपन से यही सुना है कि गोरा रंग सुंदर होता है और काला बदसूरत। काली लड़की से कौन शादी करेगा।

प्रभा को बचपन में लगने लगा था स्त्री होना मात्र अम्मा की नज़र में पाप है, एक हीन स्थिति है, गुलामों का जत्था है जो बिना मालिक के जी नहीं पाएगा।

माँ से तो प्यार मिला नहीं। घर में काम करनेवाली दाई माँ ने खूब दुलार किया लेकिन मगर माँ के प्यार की कमी तो रह गई। एक कमी जो उम्र भर खलती रही। प्रभा लिखती हैं, “मैं उपेक्षिता थी, आत्मसम्मान की कमी ने मेरा ज़िंदगी भर पीछा किया। माँ ने प्यार नहीं किया। यह तो समझ रही थी, क्योंकि मैं ठहरी काली। माँ की तरह गोरी नहीं। मैं बहुत शांत, गीता की तरह स्मार्ट नहीं, मुंह पर फटाफट जवाब नहीं दे पाती, लेकिन मैं पढ़ने में तो अच्छी थी, क्या यह काफी नहीं था?”

उनकी आत्मकथा पितृसत्तात्मक वर्चस्व को परत दर परत उधेड़ती चलती है। प्रभा को बचपन में लगने लगा था स्त्री होना मात्र अम्मा की नज़र में पाप है, एक हीन स्थिति है, गुलामों का जत्था है जो बिना मालिक के जी नहीं पाएगा। जब वह प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ रही थीं तो वहाँ उनके एक टीचर ने उनसे कहा था , “स्त्री होना कोई अपराध नहीं है पर नारीत्व की आंसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध है।”

प्रभा को समझ आ चुका था कि इस समाज में खुद के लिए जगह बनानी होगी। अगर आप अपने फ़ैसले खुद लेना चाहते हैं तो उसके लिए आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना पड़ेगा। जब वह 22 साल की थीं तब उनकी ज़िंदगी में एक ऐसा मोड़ आया जिससे पूरी ज़िंदगी प्रभावित होनेवाली थी। 22 साल की उम्र में वह पहली बार डॉक्टर साहब से मिलीं। अपनी उम्र से दोगुने डॉक्टर साहब से प्रभा खेतान को प्रेम हो गया। मसला डॉक्टर साहब की ज्यादा उम्र नहीं थी…मसला था की वह शादीशुदा थे।

उनकी आत्मकथा के शीर्षक के मायने अगर आप शब्दकोश में तलाशने जाएंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी। शब्दकोश में अन्य और अनन्य शब्द तो मिलेंगे लेकिन एक स्त्री के नज़रिये से इनकी विवेचना नहीं मिलेगी। ‘अन्या से अनन्या’ कहानी है उस स्त्री की जो अलग थी या समाज जिसे ‘दूसरी’ मानता था।

एक ऐसा समाज जहां दूसरी स्त्री को उपवस्त्र, रखैल और न जाने क्या-क्या संज्ञाएं दी जाती हैं। वहां अपने इस संबंध को वह कभी कोई नाम नहीं दे पाईं। अपनी आत्मकथा में प्रभा खेतान लिखती हैं , “मैं क्या लगती थी डॉक्टर साहब की? प्रियतमा, मिस्ट्रेस, शायद आधी पत्नी, पूरी पत्नी तो मैं कभी नहीं बन सकती क्योंकि एक पत्नी पहले से मौजूद थी। वे बाल-बच्चों वाले व्यक्ति थे। पिछले बीस सालों से मैं उनके साथ थी मगर किस रूप में…? इस रिश्ते को…नाम नहीं दे पाऊंगी। भला प्रेमिका की भूमिका भी कोई भूमिका हुई? प्रेम तो सभी करते हैं। प्रेम करन वाली स्त्री, माँ, बहन, पत्नी वह कुछ भी हो सकती है या फिर सीधे-सीधे उसे रखैल कहो न। रखैल का क्या अर्थ हुआ? वही जिसे रखा जाता है, जिसका भरण-पोषण पुरुष करता हो। लेकिन डॉक्टर साहब तो मेरा भरण पोषण नहीं करते, उनसे मैंने कभी कोई आर्थिक सहायता नहीं ली। मैं तो खुद कमाती थी, स्वावलम्बी थी, एक आत्मनिर्भर संघर्षशील महिला थी।”

प्रभा खेतान ज़िंदगीभर अपनी अस्मिता तलाशती रहीं। डॉक्टर साहब के साथ नाम जुड़ने के कारण समाज उन्हें अच्छी निगाहों से नहीं देखता था। वह लिखती हैं, “पार्टियों में डॉक्टर साहब का कोई न कोई परिचित चेहरा मिल ही जाता है। उनके रिश्तेदार, दोस्त, परिचित, डॉक्टर साहब के साथ-साथ चलती हुई उनकी पत्नी। भीड़ में बिल्कुल अकेली वर्जनाओं के अथाह सागर में गोते लगाती हुई मैं सोच नहीं पाती कि कहां खड़ी होऊं किस कोने में। इन कुंठाओं से निकलने का मुझे एक ही रास्ता नज़र आया कि मैं अपना व्यापार खड़ा कर लूं और वह भी निर्यात का, कम से कम देश विदेश घूम तो सकूंगी, लोगों की ऩजर में इज़्ज़त मिलेगी वह अलग।”

‘अन्या से अनन्या’ की स्त्री अपने सदियों के भय के साथ है तो मुक्त होकर जीने के साहस के साथ भी। यह हाशिये पर रखी गई स्त्री के केंद्र में आने की कथा है।

जब प्रभा खेतान चमड़े के बैग बनाने का कारोबार शुरू करने वाली थीं, उस वक़्त उन्हें बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। ये मुश्किलें आर्थिक से ज्यादा निजी ज़िंदगी से संबंधित थीं। वह मिस्टर बासु के साथ साझेदारी में यह व्यापार शुरू करना चाहती थीं। इस पर डॉक्टर साहब के एक दोस्त ने कहा था, “चिड़िया हाथ से निकल जाएगी।” डॉक्टर साहब का कहना था, “पराये मर्द के साथ कैसे काम करोगी?” जब उनका कोई वश नहीं चला तो उन्होंने स्वयं के लिए भी कंपनी में हिस्सेदारी मांग ली और कहा – “ठीक है तुम्हारी कंपनी में मेरा भी हिस्सा होगा।” तब प्रभा ने कहा था पर आप तो डॉक्टर हैं आप कैसे काम करेंगे?” तो जवाब मिला था, “क्या हुआ डॉक्टर व्यापार नहीं करते। फिर नीरज (उनका छोटा बेटा) तो है, पढ़ाई पूरी कर के मेरा हिस्सा वह संभाल लेगा।”

यह आत्मकथा हमें एक ऐसी यात्रा पर ले जाती है जहां एक लड़की बचपन से पितृसत्ता का कटु दंश झेलती आती है। कभी बचपन में अपने ही बड़े भाई द्वारा यौन शोषण का सामना करती है और उसे कहा जाता है, “किसी को कुछ बताना मत।” बड़े होने पर एक विवाहित डॉक्टर से प्रेम होने के कारण समाज ताउम्र उसे कठघरे में खड़ा रखता है। उस पुरुष से कोई सवाल नहीं करता। स्त्री होने के कारण हर निगाह इनसे सवाल करती और उपेक्षित दृष्टि से देखती है। वह स्त्री जो एक सफल लेखिका थी, खुद का कारोबार खड़ा करती है, उसमें भी सफल होती है। लेकिन समाज वह स्थान नहीं देता जिसकी वह हक़दार थीं। ‘अन्या से अनन्या’ की स्त्री अपने सदियों के भय के साथ है तो मुक्त होकर जीने के साहस के साथ भी। यह हाशिये पर रखी गई स्त्री के केंद्र में आने की कथा है।


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