समाजख़बर लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए क्यों ज़रूरी हैं ‘नारीवादी नीतियां’

लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए क्यों ज़रूरी हैं ‘नारीवादी नीतियां’

जर्मनी से पहले नारीवादी विदेश नीति को कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको, लक्समबर्ग, नीदरलैंड और स्पेन जैसे अन्य देशों ने हाल के वर्षों में अपनाया है।

मार्च महीने की शुरुआत में जर्मनी से एक ख़बर आई कि जर्मन विदेश नीति को नारीवादी नज़रिये से बनाया जा रहा है। जर्मनी विदेश मंत्री एनालेना बेयरबॉक शुरू से ही देश की विदेश नीति को नारीवादी बनाने पर जोर दिया है। मीडिया में सामने आई ख़बर के मुताबिक़ बेयरबॉक ‘नारीवादी विदेश नीति’ के लिए अलग से एक राजदूत नियुक्त करना चाहती हैं ताकि जर्मनी कूटनीति और विकास के कामों में महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए दुनिया भर में पैरवी करें। महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व और लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए योजनाएं लागू की जाएं। जर्मनी के इस कदम ने उसे उन देशों के क्लब में शामिल कर दिया है जो एक नारीवादी विदेश नीति का अनुसरण कर रहे हैं।

जर्मनी से पहले नारीवादी विदेश नीति को कनाडा, फ्रांस, मैक्सिको, लक्समबर्ग, नीदरलैंड और स्पेन जैसे अन्य देशों ने हाल के वर्षों में अपनाया है। हालांकि, साल 2022 में स्वीडन ने नारीवादी विदेश नीति को खत्म कर दिया था। इसके बाद कई तरह की चर्चाएं भी उठी थी कि नारीवादी सिद्धांतों को केंद्र में रखकर बनी नीतियों को अन्य राजनीतिक विचारधाराएं सत्ता में आकर कैसे नकार भी सकती है। साथ ही जर्मनी के इस फैसले के बाद फिर से ये सवाल आ रहा है कि इन सिद्धांतों को व्यवहार में लाने के लिए किस तरह से काम करना होगा। नारीवादी विदेश नीति के ढ़ाचे को सरकारों की ओर शिफ्ट करने के लिए किस तरह के सामंजस्य की आवश्यकता है और यह क्यों ज़रूरी है।

शांति वार्ताओं में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से समझौते के विफल होने की 64 प्रतिशत भागीदारी कम हो जाती है। कम से कम 15 वर्षों तक चलने की 35 प्रतिशत संभावना अधिक हो जाती है।

नारीवादी विदेश नीति क्या है?

नारीवादी विदेश नीति या नारीवादी कूटनीति एक ऐसी अवधारणा है जो लैंगिक समानता को हासिल करने के लिए मूल्यों और नीतियों को बढ़ावा देने के लिए कहती है। इन नीति के तहत उन लोगों का समर्थन करना है जो अपनी लैंगिक पहचान, धर्म, उम्र, विकलांगता या कई अन्य वजहों से हाशिए पर धकेल दिए गए हैं। नारीवादी विदेशी नीति से मतलब पारंपरिक राजनीति एवं कूटनीति की तय संरचना से अलग समावेशी दुनिया का निर्माण हो सकें। 

नारीवादी विदेश नीति का मूल्य उद्देश्य समाज में समानता को विकसित करने के सहयोग से है।  लैंगिक समानता को प्राथमिकता देने वाले कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और उनका लक्ष्य हासिल करना। नारीवादी विदेश नीति की मुख्य प्रतिबद्धता यह है कि दुनिया में सार्वजनिक नीतियों में महिलाओं की भागीदारी बढ़े, देश की विदेश सेवा में उनका प्रतिनिधित्व में वृद्धि करना है। इसी के तहत नीतियों को लागू करने के लिए राजदूतों के पदों की संख्या को बढ़ाना जिससे इस दिशा में जारी नीतियों पर निगरानी की जा सकें। 

तस्वीर में मॉर्गेट वॉलस्ट्रोम, तस्वीर साभारः The week

मार्गेट वॉलस्ट्रोम की घोषणा के बाद से नारीवादी विदेश नीति का विषय अंतरराष्ट्रीय संबंधो की दिशा में काम करने वाले शोधार्थी और और विद्वानों के बीच एक गहन चर्चा का विषय बनता जा रहा है। मार्गेट  वॉलस्ट्रोम, स्वीडिश विदेश मंत्री रही हैं जिन्होंने नारीवादी विदेश नीति की अवधारणा पर सबसे पहले चर्चा की थी। इंटरनैशनल पीस इंस्टीट्यूट में छपे उनके बयान के अनुसार “मेरे लिए शुरुआत से यह स्पष्ट था कि बिना महिलाओं के सहयोग के हम स्थायी शांति हासिल नहीं कर सकते है।” वह आगे कहती है, “हम सब जानते हैं कि महिलाएं, शांति और सुरक्षा एक मुद्दा है। यह केवल महिलाओं के मुद्दे, शांति और सुरक्षा के मुद्दे नहीं है बल्कि एक ऐसा मुद्दा है जो स्थायी शांति का केंद्र है।” 

महिलाओं का नेतृत्व क्यों ज़रूरी है

काउंसिल ऑन फॉरेन (सीएफआर) पॉलिसी में छपे एक अध्ययन के मुताबिक महिलाएं संघर्ष की स्थिति में शांति बहाल करने में ज्यादा योगदान देती हैं। जब दुनिया में कई देश युद्ध की स्थिति से गुजर रहे हो तब यह बात बहुत मायने रखती है। सीएफआर के अनुसार 1990 के दशक में संघर्ष विराम के समझौते पांच साल के भीतर ही विफल साबित हो गए। शांति के प्रयासों में महिलाओं को शामिल करना न केवल मानवाधिकार का विषय है बल्कि ये सुरक्षा के लिहाज से भी ज़रूरी है। शांति वार्ताओं में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से समझौते के विफल होने की 64 प्रतिशत भागीदारी कम हो जाती है। कम से कम 15 वर्षों तक चलने की 35 प्रतिशत संभावना अधिक हो जाती है। दुनिया भर में संघर्षों के विश्लेषण से पता चलता है कि महिलाएं संघर्ष की रोकथाम और प्रांरभिक चेतावनी, शांति व्यवस्था को बनाने और संघर्ष के बाद समाधान में महत्वपूर्ण योगदान देती है। 

विदेश मंत्रालय में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से जुड़े एक रिसर्च के आधार पर जारी आंकड़े की बात करते तो वहां स्थिति बदलने के लिए पहला कदम उठाने की अभी भी ज़रूरत है। विदेश मंत्रालय में  54 डिविजन के शीर्ष में केवल 11 में महिलाएं हेड हैं। इससे अलग 36 डिविजन के हेड पुरुष हैं।

कोई भी समाज जब तक अपनी पूरी क्षमता हासिल नहीं कर सकता तब तक समाज के सभी लिंग, वर्ग के लोग अपनी बात बराबरी से नहीं कर सकते। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीति एक ज़रिया है जिससे हम लैंगिक असमानता को खत्म कर सकते हैं। अगर भारत के परिदृश्य से नारीवादी विदेश नीति को लेकर बात करें तो हाल के समय से यहां भी इस विषय में चर्चाएं तेजी से चल रही है। भारत लैंगिक समानता के मामले में अपने लक्ष्यों की पूर्ति करना चाहता है तो भारत को एक नारीवादी विदेश नीति को अपनाने पर जोर देना होगा। साल 2015 में भारत ने विदेश मंत्रालय के तहत जेंडर बजट का क्रियान्वयन भी देखा गया। साल 2007 में भारत ने सार्क, आईबीएसए, आईओआरए और अन्य बहुपक्षीय मंचों के माध्यम से लैंगिक सशक्तिकरण कार्यक्रमों का समर्थन करने के लिए लीबिया में संयुक्त राष्ट्र मिशन के लिए पहली महिला इकाई तैनात की।

भारत में कूटनीति के तौर पर इस तरह के कुछ कदम उठाए गए है। ठीक इससे अलग विदेश मंत्रालय में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से जुड़े एक रिसर्च के आधार पर जारी आंकड़े की बात करते तो वहां स्थिति बदलने के लिए पहला कदम उठाने की अभी भी ज़रूरत है। विदेश मंत्रालय में  54 डिविजन के शीर्ष में केवल 11 में महिलाएं हेड हैं। इससे अलग 36 डिविजन के हेड पुरुष हैं। सात डिविजन को लेकर अंतर है क्योंकि मंत्रालय के कुछ अधिकारी एक से अधिक डिविजन का नेतृत्व कर रहे हैं। यह आंकड़ा विदेश मंत्रालय की वेबसाइट से जनवरी 2022 के डेटा के आधार पर अध्ययन करके तैयार किया गया है। 

जिस तरह भारतीय राजनीति में ज्यादातर पुरुषों का अनुपात महिलाओं से ज्यादा है ठीक उसी तरह ब्यूरोकेसी में भी प्रतिनिधित्व और नेतृत्व में महिलाएं अभी भी पीछे हैं। वर्तमान लोकसभा में 28 मंत्रियों में से केवल 2 महिलाएं कैबिनेट मंत्री हैं। प्रतिनिधित्व का यह स्तर राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी को साफ दिखाता है। भले ही चुनावी समय के समय पार्टियां घोषणापत्रों में लैंगिक समानता की बात करती हो लेकिन सरकार प्रबंधन में उनका प्रतिनिधित्व वास्तविकता दिखा देता है। 

तस्वीर साभारः The Daily Targum

महिलाएं दुनिया की आधी आबादी है लेकिन फिर भी उन्हें हर जगह समान रूप से प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है। यही नहीं जहां उनके जीवन से जुड़ी नीतियां या फैसले लिए जाते हैं जैसे राजनीति या अन्य मैनेजमेंट बोर्ड आदि में उनकी भागीदारी नहीं होती है और न ही उसको शामिल करना आवश्यक माना जाता है। आज भी 1.2 अरब महिलाएं उन देशों में रहती है जहां उनके पास सुरक्षित अबॉर्शन तक का अधिकार नहीं है। पितृसत्ता के नियम के तहत अनपेड केयर वर्क उनपर हर जगह लादा गया है। आपदाओं और संघर्ष से प्रभावित क्षेत्रों में तो महिलाएं सबसे ज्यादा यौन हिंसा का सामना करती हैं। इसलिए नीतियों के निर्माण, संघर्षों के समाधान और वैश्विक व्यापार तक की नीति में महिलाओं को और अधिक शामिल करने की ज़रूरत है।

जबतक महिलाओं और लड़कियों के अधिकार सुनिश्चित नहीं होंगे तबतक भेदभाव का सामना उन्हें करना पड़ेगा। गरीबी, निर्भरता और हिंसा से बचाव और अधिकारों का उल्लंघन होना महिलाओं के सामाजिक विकास में पहली बाधा है। इन असमानताओं को दूर करने के लिए हमें समावेशी तरीके से समान प्रतिनिधित्व के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है। राजनीति और कल्याणकारी नीतियों में उनको आगे बढ़ाने से इसकी शुरुआत होगी।


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