महिला आंदोलन के बारे में आपने कभी न कभी इतिहास की किताबों में ज़रूर पढ़ा होगा। इन आंदोलनों के माध्यम से हमारे भारतीय समाज में कई महिला विरोधी कुरीतियों के ख़िलाफ़ न केवल सामूहिक आवाज़ बुलंद हुई बल्कि इससे कई क़ानूनी बदलाव भी हुए। महिलाएं संगठित होकर सड़कों पर उतरी और हिंसा के ख़िलाफ़ न्याय की मांग की। लेकिन जब बात आती है नारीवादी आंदोलन तो कई बार इस बात को लेकर संदेह होता है कि क्या महिला आंदोलन और नारीवादी आंदोलन एक ही है या दोनों में कोई फ़र्क़ है?
फिर मन में ये भी विचार आता है कि ‘अब अगर नारीवाद में हम महिलाओं के अधिकार की बात कर करते हैं तो महिला आंदोलन का उद्देश्य भी तो महिलाओं के अधिकार ही होते हैं तो इसे दो अलग-अलग नामों से क्यों जाना जाता है या वाक़ई इन दोनों में फ़र्क़ है?’ आइए आज के अपने इस लेख में हम ये जानने की कोशिश करते हैं कि महिला आंदोलन और नारीवादी आंदोलन में क्या फ़र्क़ है या ये दोनों एक-दूसरे से अलग कैसे हैं?
राष्ट्रीय महिला आयोग की साल 2022 में आयी रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या 31,000 दर्ज़ की गयी है, जो 2014 के बाद सबसे अधिक हैं। ग़ौरतलब है कि ये दर्ज़ शिकायतें है और जैसा कि हम जानते है हमारे आसपास महिला हिंसा की ऐसी ढ़ेरों घटनाएं होती हैं जिन्हें कभी दर्ज़ नहीं किया जाता है। इससे हम महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ती हिंसा का अंदाज़ा लगा सकते है, ऐसे में जब एक तरफ़ हमारे देश में महिला हिंसा के मामले दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे है तो वहीं दूसरी तरफ़ देश में कई व्यक्ति और समूह अलग-अलग स्तर पर इस हिंसा को ख़त्म करने की दिशा में काम कर रहे है। अब देश के अलग-अलग जगहों पर महिला हिंसा को कम करने वाली पहल को हम अलग-अलग स्तर से इसके प्रभाव को समझ सकते है, जो हमें महिला आंदोलन और नारीवादी आंदोलन में फ़र्क़ समझने में मदद करेगी।
पहला स्तर: हिंसा के सर्वाइवर्स की मदद
जब भी कोई महिला हिंसा का सामना करती है तो उसकी सबसे बुनियादी स्तर पर महिला को मदद पहुंचाने का काम किया जाता है। उन्हें चिकित्सा संबंधित मदद दी जाती है या फिर उन्हें सुरक्षित जगह पर रखने की व्यवस्था की जाती है। साथ ही, पुलिस में शिकायत दर्ज़ करवाने में मदद करने और मुक़दमा करने और न्याय मिलने में मदद करने की भी पहल की जाती है। ये सभी प्रयास महिला के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन ये बड़े स्तर पर महिला की समस्या पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डालते हैं। एकतरफ जब हम हिंसा की सर्वाइवर एक महिला को अलग-अलग माध्यम से मदद कर रहे होते हैं, ठीक उसी समय दूसरी जगहों को अन्य महिलाएं हिंसा का सामना कर रही होती हैं।
दूसरा स्तर: हिंसा के ख़िलाफ़ सामूहिक विरोध को बढ़ावा
वहीं दूसरे स्तर पर महिला हिंसा को कम करने के लिए किए जा रहे प्रयास ज़्यादा प्रभावी होते है, जिसके तहत महिलाओं को हिंसा का पहचान करने, इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने और अन्य को भी एकजुट होकर महिला हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। ब्रेकथ्रो संस्था द्वारा घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ चलाया गया अभियान ‘बेल बजाओं’ इसका सटीक उदाहरण है, जिसने न केवल महिला को घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ बोलने के लिए प्रेरित किया, बल्कि पड़ोसियों को भी घरेलू हिंसा दख़ल देकर इसे रोकने के लिए प्रोत्साहित किया। इससे जब महिलाएं मुखर होने लगती हैं, हिंसा के ख़िलाफ़ और अपने अधिकारों को लेकर जब बात करने लगती हैं तो उनपर अलग-अलग तरह की पाबंदियों के बढ़ने का भी ख़तरा बढ़ने लगता है।
तीसरा स्तर: नीतियों में बदलाव की मांग
तीसरे स्तर पर महिला हिंसा के मुद्दे को एक प्रणालीगत मुद्दे के रूप में देखा जाता है, जिसके तहत मज़बूत क़ानून, सजाएँ और नीतियों पर ज़्यादा काम किया जाता है। इसके उदाहरण है बलात्कार के ख़िलाफ़ मृत्युदंड की मांग या फिर मी टू अभियान। लेकिन ऐसा नहीं है कि क़ानून बन जाने या मुक़दमा चलने से महिला के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा रुक गई।
इस दिशा में नारीवादी कार्यकर्ता मानतें है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को ख़त्म करने के लिए हमें लंबे समय की रणनीति पर काम करने की ज़रूरत है, जिसका प्रभाव गहरा हो और जो समस्या का समाधान कर सके, जिसके तहत पुरुषत्व के पितृसत्तात्मक मूल्य और मानदंड जो औरतों को यौनिक वस्तु समझते हैं और पुरुष जो महिलाओं को अपनी संपत्ति समझते हैं- ऐसी विचारधारा के विरुद्ध काम किया जाता है।
नारीवादी ये मानते हैं कि जब तक समाज में पुरुषों को इजाज़त होगी कि कोई भी ‘असुरक्षित’ औरत उनके लिए हिंसा का सर्वाइवर बनाए जाने के लिए है या फिर पत्नियों का मतलब सिर्फ़ पुरुष की आज्ञा का पालन करना है, ऐसी विचारधारा को जड़ से ख़त्म करने की दिशा में काम नहीं किया जाएगा तब तक हम महिला हिंसा की समस्या को ख़त्म नहीं कर सकते है। लेकिन इसका ये मतलब क़तई नहीं है कि हिंसा की सर्वाइवर महिलाओं को बुनियादी मदद पहुंचाना, उन्हें जागरूक करना या फिर नीतियों में बदलाव ज़रूरी नहीं है, ये बेहद ज़रूरी है लेकिन सिर्फ़ यही तक सीमित रह जाना सही नहीं है।
आख़िर में अगर हम महिला आंदोलन और नारीवादी आंदोलन के बुनियादी फ़र्क़ को देखें तो इनमें फ़र्क़ यही है कि महिला आंदोलन क़ानून निर्माण या हिंसा के ख़िलाफ़ किसी महिला को न्याय दिलाने की बात करता है। लेकिन वहीं दूसरी तरफ़ नारीवादी आंदोलन हमें दूरगामी रणनीति को तैयार करता है जो समस्या की मूल वजहों को पहचानने और इसके ख़िलाफ़ एक बड़े समूह को एकजुट करके जागरुका पैदा करने का काम करते हैं, जिससे बदलाव की प्रकिया का हिस्सा एक बड़ा समूह बने।
अब अगर महिला आंदोलन सिर्फ़ महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने की पैरोकारी करते हैं, लेकिन उनके स्तर (जैसे क़ानून के समानता के अधिकार, हिंसा से स्वतंत्रता निजी निर्णय-निर्धारण इत्यादि) को छूती भी नहीं है तो ये हमें जेंडर समानता देने में मदद नहीं करेंगी, क्योंकि ये समस्या की जड़ तक जाने का काम नहीं कर रही है। यही वजह है कि कई बार ऐसा भी देखा गया है कि महिला आंदोलन की कमान उन हाथों में भी रही है जो नारीवाद से असहज होती है और कई बार उसे नकार भी देती हैं, जो महिला आंदोलन और नारीवादी आंदोलन के बीच का बुनियादी फ़र्क़ है।