एडिटर्स नोट : जाति की परतें हमेशा महिलाओं के संघर्षों को कई गुना ज़्यादा बढ़ाने का काम करती हैं। जब बात युवा महिलाओं की आती है तो उनके संघर्ष को उजागर करने का कोई स्पेस नहीं होता। ग्रामीण उत्तर भारत के हाशियेबद्ध मुसहर समुदाय की युवा महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने की दिशा में है ‘हाशिये की कहानियां‘ अभियान एक पहल है। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवा महिलाओं की उन युवा महिलाओं की कहानियों को सामने लाना है, जिनकी तरफ़ अक्सर मुख्यधारा का रुख़ उदासीन होने लगता है। इसी पहल में यह दूसरी कहानी है सरिता की। यह लेख स्वाती सिंह ने द रेड डोर एवं क्रिया संस्था द्वारा संचालित यंग विमेन लीडर फ़ेलोशिप के तहत लिखा है।
“दीदी, शिक्षा की तो कोई जाति नहीं होती है न। ऐसा तो नहीं है कि हर किताब की कोई जात हो। अब जब किताब-कॉपी और शिक्षा की कोई जाति नहीं है तो फिर हम या हमारे बच्चे हमारी जाति के आधार पर क्यों नहीं पढ़ सकते हैं?”
अलग-अलग गाँव से आई महिलाओं के साथ उनके नेतृत्व-निर्माण के लिए आयोजित एक कार्यशाला में जब शिक्षा के अवसर से जातिगत आधार पर दलित समुदाय को दूर करने की चर्चा हुई तो 26 वर्षीय सरिता ने बुलंद आवाज़ और साफ़ शब्दों यह बात कही। सरिता की बात से सभी आश्चर्यचकित थे, क्योंकि किसी ने ये उम्मीद भी नहीं की थी कि मुसहर जाति की कोई युवा महिला भी शिक्षा के संदर्भ में कुछ बोल सकती है। शायद बैठक में मौजूद महिलाओं ने इससे पहले मुसहर समुदाय की महिलाओं को सिर्फ़ रोटी, कपड़ा, मकान और अपनी ग़रीबी के संदर्भ में बात करते हुए सुना होगा। सरिता के लिए भी यह पहली बार था जब वो अलग-अलग गाँव से आई अलग-अलग जाति की महिलाओं के साथ बैठकर किसी कार्यशाला में हिस्सा ले रही थी। यह मेरी सरिता से पहली मुलाक़ात थी।
सरिता से जब मैंने इस वाक़ये के बाद बात की तो उसने बताया, “जब मैं वहां सभी महिलाओं के साथ थी तो मुझे बहुत डर और झिझक महसूस हो रही थी। जब भी गाँव में मैं अगर किसी रास्ते या खेत से गुजरती हूं तो अक्सर लोग मेरी जाति को संबोधित करते हुए यह कहते हैं कि तुम मुसहर हो इसलिए थोड़ा दूर हटकर चलो। तुम्हारी परछाई से भी हम अशुद्ध हो जाएंगे। हमलोगों के घर के पास से मत निकलो। लेकिन उस दिन सभी लोग साथ बैठे थे तब और डर था कि कहीं यहां भी महिलाएं ऐसे न बोल दें। इसके बाद जब शिक्षा की बात आई तो पता नहीं कैसे वे बातें मेरे मुंह से एक़बार में निकली। शायद ये मेरे बचपन के अनुभव की वजह से था। जब मैं बचपन में एक़बार स्कूल गई थी तो वहां भी मुझे मेरी जाति की वजह से भगा दिया गया और आज भी कई बार मेरे बच्चों को स्कूल में जाति के आधार पर अन्य बच्चों से भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है।”
बालिका वधु बनी ‘सरिता’
साल 2011 की ज़नगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुसहर आबादी क़रीब 250,000 है। इनमें साक्षरता का कुल स्तर 3% है और महिलाओं की शिक्षा का स्तर 1% है। वहीं दूसरी ओर, मुसहर समुदाय के साथ जातिगत हिंसा और भेदभाव का बढ़ता स्तर हमेशा उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने में रोड़ा बनने का काम करता है।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के सेवापुरी ब्लॉक का एक गाँव है खरगूपुर। वही सेवापुरी ब्लॉक, जिसे साल 2020 में नीति आयोग ने ‘मॉडल ब्लॉक’ बनाने के लिए गोद लिया था। सरिता उसी गाँव की मुसहर बस्ती में रहती है। बारह-तेरह साल की उम्र में सरिता की शादी पास के जौनपुर ज़िले के एक गाँव में हुई। सरिता के तीन बच्चे हैं और उनका पति प्रयागराज में मज़दूरी का काम करता है।
सरिता बस्ती में एक संस्था की तरफ़ से चलाए जा रहे पाठशाला कार्यक्रम के जुड़कर सहायिका टीचर का काम कर रही है। वह बस्ती की पहली टीचर है, जो मज़दूरी और भीख मांगने के काम की धारा को चुनौती देकर शिक्षा से जुड़े काम कर रही है। यूं तो उसने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, लेकिन उसको पढ़ना-लिखना हमेशा से पसंद रहा है।
सरिता अपने ससुराल की बजाय अपने मायके में रहती है। जब उनसे उनकी बस्ती में होनेवाले बाल-विवाह के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, “हमलोगों की मुसहर जाति में लड़कियों की शादी कच्ची उम्र में कर दी जाती है। ऐसा यह कहकर किया जाता है कि अगर लड़कियों की शादी कच्ची उम्र में होगी तो खुद से अपने साथी का चुनाव करने की बजाय परिवार के चुने हुए लड़के से शादी करेंगी, जिससे परिवार की इज़्जत बनी रहेगी या फिर कभी ग़रीबी का हवाला दिया जाता तो कभी महिलाओं के साथ बढ़ती यौन-हिंसा से बचाव का।”
बाल-विवाह की इस प्रथा के बारे में आगे बताते हुए सरिता कहती हैं, “हमलोगों को बचपन से ये बताया जाता है कि तुम्हारी शादी जल्दी कर देंगें, क्योंकि उम्र होने पर कोई शादी नहीं करता है। अगर लड़की की उम्र ज़्यादा हो गई या लड़की बालिग़ हो गई तो लोगों के बीच यह गलतफ़हमी फैला दी जाती है कि शायद लड़की की पहली शादी हो चुकी है और उसने अपने पति को छोड़ दिया है और उसके चरित्र पर सवाल उठने लगता है। इसलिए कच्ची उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती है।”
एक स्वयंसेवी संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक़, मुसहर समुदार में आज भी 12 साल से 13 साल की लड़कियों की शादी कर दी जाती है। सरिता की बस्ती में भी यह बेहद आम है, अलग-अलग वजहों का हवाला देकर लड़कियों की छोटी में उम्र में शादी करना मानो अब एक चलन-सा बन गया है, जिसके चलते स्कूल जाने की उम्र में लड़कियां ससुराल जाने को मजबूर की जाती हैं।
बाल विवाह आज भी मुसहर समुदाय की प्रमुख सामाजिक समस्याओं में से एक है। इस कुप्रथा के पीछे का तर्क इस समस्या की जटिलता और समुदाय में महिलाओं की स्थिति को समझने में मदद करता है। यह बताता है कि समुदाय में महिलाओं की यौनिकता और उनके अधिकारों के ऊपर पितृसत्तात्मक समाज कितना हावी है। उदाहरण के तौर पर सविला के ही समुदाय में सबसे बड़ा डर इस बात है कि कहीं लड़की खुद से अपने साथी का चुनाव न कर लें, इसलिए उसके इस विवेक को विकसित होने से पहले ही कच्ची उम्र में उसकी शादी कर दी जाए।
अपने काम के बारे में बताते हुए सरिता कहती है, “मुझे पढ़ने-पढ़ाने का काम हमेशा से अच्छा लगता था। मैं मन ही मन सोचती थी कि अगर मैं इस जाति में पैदा नहीं हुई होती तो ज़रूर टीचर बनती। लेकिन अब धीरे-धीरे मेरा सपना पूरा होता दिखाई दे रहा है। अब मैं ये सोच पाती हूं कि मेरे बच्चे भी मज़दूरी या भीख मांगने को मजबूर नहीं होंगें, बल्कि अपनी पढ़ाई पूरी करके अच्छा काम करेंगे।
वहीं अगर लड़की ने बालिग़ होने बाद शादी की बात आती है तो उसके चरित्र पर सवाल उठने लगता है। यह समाज की वह सच्चाई जो आज भी मुख्यधारा से दूर है। सरिता भी एक बालवधू है, उसने बालवधू के दंश को झेला है और उसके साथ ही वह आज भी जातिगत भेदभाव और हिंसा सामना आए दिन करती है। लेकिन अब धीरे-धीरे ही सही सरिता की ज़िंदगी में कुछ बदलाव आ रहे हैं।
समुदाय की पहली टीचर बनने की ओर बढ़ते कदम
इन दिनों सरिता बस्ती में एक संस्था की तरफ़ से चलाए जा रहे पाठशाला कार्यक्रम के जुड़कर सहायिका टीचर का काम कर रही है। वह बस्ती की पहली टीचर है, जो मज़दूरी और भीख मांगने के काम की धारा को चुनौती देकर शिक्षा से जुड़े काम कर रही है। यूं तो उसने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, लेकिन उसको पढ़ना-लिखना हमेशा से पसंद रहा है। शुरुआत में उसे पाठशाला से जुड़ने में हिचक महसूस हो रही थी। उसे छोटे बच्चों के साथ बैठने शर्म आती थी, लेकिन फिर धीरे-धीरे सरिता ने हिम्मत करके पढ़ना-लिखना सीखना शुरू कर दिया है और अब वो बस्ती के बच्चों को धीरे-धीरे पढ़ाने में सक्षम भी हो रही है।
अपने काम के बारे में बताते हुए सरिता कहती है, “मुझे पढ़ने-पढ़ाने का काम हमेशा से अच्छा लगता था। मैं मन ही मन सोचती थी कि अगर मैं इस जाति में पैदा नहीं हुई होती तो ज़रूर टीचर बनती। लेकिन अब धीरे-धीरे मेरा सपना पूरा होता दिखाई दे रहा है। अब मैं ये सोच पाती हूं कि मेरे बच्चे भी मज़दूरी या भीख मांगने को मजबूर नहीं होंगें, बल्कि अपनी पढ़ाई पूरी करके अच्छा काम करेंगे। और इस काम से सबसे अच्छी बात ये है कि मेरे इस काम से बस्ती की और लड़कियों ने भी पढ़ने आना शुरू कर दिया है और अब वो कहती कि हमलोग भी एकदिन टीचर बनेंगे।”
मुसहर समुदाय आज भी हाशिये पर बसने को मजबूर समुदाय है, जिनका किसी भी तरह का सक्रिय राजनीतिक नेतृत्व उत्तर प्रदेश में नहीं रह।, शायद यही वजह है कि यह समुदाय खुद को समाज से अलग पाता है, क्योंकि उनके बुनियादी अधिकारों पर आवाज़ उठाने के लिए कोई नहीं है। ऐसे में जब सरिता जैसी महिलाएं अपने छोटे-छोटे कदम शिक्षा और अधिकार की तरफ़ बढ़ाना शुरू करती हैं तो यही आने वाले समय सामाजिक बदलाव की पहल साबित होती है।