हाल ही में अपने एक फ़ैसले में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक डॉक्टर के खिलाफ एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया। इस डॉक्टर पर अवैध लिंग परीक्षण के संबंध में सूचना पर एक अस्पताल में छापेमारी के बाद पीसीपीएनडीटी अधिनियम की कई धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया था। हाई कोर्ट ने कहा कि गर्भ में मौजूद भ्रूण की लैंगिक जानकारी तक पहुंच पर प्रतिबंध सीधे तौर पर महिलाओं के प्रति द्वेष की समस्या से जुड़ा है, जो न केवल इस देश में बल्कि विश्व स्तर पर भी सभी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि की महिलाओं को प्रभावित करता है।
इस मामले के तहत ज़िला उपयुक्त प्राधिकरण, पीसी एंड पीएनडीटी, रोहतक को कुछ डॉक्टरों द्वारा जीवन अस्पताल, नई दिल्ली में भ्रूण के अवैध लिंग निर्धारण के संबंध में एक सूचना प्राप्त हुई थी और फिर वह सूचना डॉ. नितिन राज्य कार्यक्रम अधिकारी, पीसी और पीएनडीटी (डीएफडब्ल्यू) को भेज दी गई थी। इसके बाद संबंधित अधिकारियों को सूचित किया था। ऐसी सूचना मिलने पर, दिल्ली में संबंधित प्राधिकरण ने एसडीएम, डिफेंस कॉलोनी, दक्षिण पूर्वी दिल्ली की अध्यक्षता में जिला निरीक्षण निगरानी समिति (डीआईएमसी) टीम, दक्षिण पूर्व जिला, नई दिल्ली और पीसी एंड पीएनडीटी टीम, रोहतक की एक संयुक्त छापेमारी टीम का गठन किया था।
सभी ने मिलकर एक महिला को फ़र्ज़ी मरीज़ बनाकर जीवन हॉस्पिटल में भेजा और फिर सही समय पर छापेमारी करके अस्पताल में आरोपी लोगों को पकड़ लिया उसके बाद डॉ. शिखा और एक डॉ. रविंदर सभरवाल को जिला उपयुक्त प्राधिकरण, दक्षिण पूर्वी दिल्ली के कार्यालय से एक निलंबन आदेश दिया, साथ ही उन्हें कारण बताओ नोटिस प्राप्त भी भेजा, जिसके द्वारा पीसी और पीएनडीटी अधिनियम की धारा 20 (2) के तहत जीवन अस्पताल के पंजीकरण को सस्पेंड कर दिया गया था।
हाई कोर्ट ने कहा कि गर्भ में मौजूद भ्रूण की लैंगिक जानकारी तक पहुंच पर प्रतिबंध सीधे तौर पर महिलाओं के प्रति द्वेष की समस्या से जुड़ा है, जो न केवल इस देश में बल्कि विश्व स्तर पर भी सभी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि की महिलाओं को प्रभावित करता है।
इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट की जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 (पीसीपीएनडीटी अधिनियम) के सख्त कार्यान्वयन के लिए अधिकारियों को कई निर्देश पारित करते हुए कहा कि भ्रूण का लिंग जानने पर लगा प्रतिबंध सीधे तौर पर महिलाओं के प्रति द्वेष की समस्या से जुड़ा है, जो न केवल इस देश में बल्कि विश्व स्तर पर भी सभी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि की महिलाओं को प्रभावित करता है।
पीसी एंड पीएनडीटी ऐक्ट क्यों लागू हुआ?
पीसी एंड पीएनडीटी अधिनियम 20 सितंबर 1994 को भ्रूण के लिंग के निर्धारण के लिए मुख्य रूप से कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए प्रसव पूर्व निदान तकनीकों को प्रतिबंधित करने के इरादे से लागू किया गया था। इस अधिनियम का शुरुआती उद्देश्य कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाना था। यह अधिनियम गलती करनेवाले रेडियोलॉजिस्ट/सोनोलॉजिस्ट को बचने का कोई प्रस्ताव नहीं देता है।
इस अधिनियम के बारे अदालत ने कहा कि सुविचारित और अच्छी तरह से लागू किया गया पीसी और पीएनडीटी अधिनियम और नियम लैंगिक असंतुलन से निपटने के लिए हस्तक्षेप के साधन हैं। अधिनियम के सामाजिक संदर्भ के साथ-साथ अपराध को भी याद रखने की ज़रूरत है। साथ यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि लैंगिक हिंसा, चाहे वह जन्म के बाद एक महिला बच्चे की सुरक्षा हो या उसके पैदा न होने पर भी हो, केवल राज्य की चिंता नहीं है, बल्कि अदालतों की भी चिंता है। जबकि व्यवहारिक परिवर्तन प्रत्येक परिवार से शुरू होना चाहिए। जब तक उक्त लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए कानून का सख्त होना ज़रूरी है।
लिंग-चयनात्मक अबॉर्शन से जुड़ा हुआ है लिंग-निर्धारण परीक्षण
कोर्ट ने यह भी कहा कि जब यह अधिनियम विधायिका द्वारा बनाया गया था, तो अन्य चिकित्सा मुद्दों के साथ-साथ इसका मुख्य उद्देश्य भ्रूण में मौजूद बच्चे के सेक्स बताने की प्रथा को रोकना और दंडित करना भी था। विधायिका इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ थी कि देश के अधिकांश हिस्सों में कन्या भ्रूण हत्या एक आम मुद्दा था। पिछला लिंगानुपात जनसंख्या प्रवृत्ति देश में पुरुष संतानों के लिए वरीयता दर्शाती है। यह मुद्दा इस हद तक अत्यंत महत्वपूर्ण था कि एक लड़की के जन्म से पहले ही उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपायों के पूरक के लिए और उसके लिंग के आधार पर उसकी हत्या नहीं की जाए, विभिन्न सरकारों ने अतीत में कई योजनाओं को लागू किया।
हाल ही में, लड़कियों की शिक्षा और कल्याण को प्रोत्साहित करने के लिए, सरकार ने ऐसी योजनाएं लागू की हैं जिनमें मुफ्त शिक्षा जैसे प्रोत्साहन प्रदान करना और बेटी के जन्म पर एक निश्चित राशि बैंक में जमा करना शामिल है, ताकि उसे बोझ न समझा जाए और उसके माता-पिता को इस बात की चिंता नहीं हो कि उसकी शिक्षा या शादी का खर्चा कैसे उठाया जाए। माज में देखा गया है कि ज़्यादातर लोग लड़कियों को बेटियों के रूप में इसीलिए पसंद नहीं करते हैं कि उसके बड़े होने तक उसकी शिक्षा का बोझ कैसे उठाएंगे और जवान होने के बाद उसकी शादी का खर्चा कैसे वहां होगा। शिक्षा पर खर्चा न करने के पीछे का कारण लड़कियों को दूसरे घर का कूड़ा समझने की सोच है। यही सोच लड़कियों को अच्छा खाने को न देने और शिक्षा पर खर्चा करने से माता-पिता को रोकती है। वे ये सोचते हैं कि इस पर खर्चा करने का क्या फायदा यह तो दूसरे घर चली जाएगी।
एक बच्चा वह भी लड़का हो- इसी सोच से लिंग निर्धारण एक छोटा उद्योग बन गया है
हालांकि, एक अजन्मी बच्ची की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए व्यवहारिक बदलाव ज़रूरी हैं। सरकारों द्वारा अलग-अलग योजनाओं को लागू किए जाने के बावजूद हमारा पितृसत्तात्मक समाज हमेशा कम से कम एक लड़के की इच्छा रखते हैं। यह लिंग निर्धारण के लिए एक प्रमुख मानदंड बन गया और इसी वजह से एक लड़की के मामले में अवैध अबॉर्शन होता है । अवैध लिंग निर्धारण परीक्षण और उसके बाद, अवैध अबॉर्शन अपने आप में एक छोटा उद्योग बन गया।
‘दोहरी हिंसा‘ का सामना
कहने की जरूरत नहीं है कि एक महिला अपने जेंडर के आधार पर ‘दोहरी हिंसा’ का सामना करती है। पहले, एक महिला पर उसके परिवार के सदस्यों द्वारा केवल एक लड़के को जन्म देने के लिए दबाव डाला जाता है। हालांकि, कुछ स्थितियों में, पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग के कारण महिलाएं खुद एक लड़का चाहती हैं। इस तथ्य पर विचार करते हुए कि एक बार जब वह बूढ़ी हो जाएगी, तो उसके पास एक बेटा होगा जो उसे सहारा देगा। कुछ मामलों में महिलाओं में यह भी असुरक्षा की भावना होती है कि अगर वे एक लड़के को जन्म देने में सक्षम नहीं होती हैं, तो उन्हें परिवार के सदस्यों के साथ-साथ पितृसत्तात्मक समाज द्वारा भी सम्मान या महत्व नहीं दिया जाएगा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि जब यह अधिनियम विधायिका द्वारा बनाया गया था, तो अन्य चिकित्सा मुद्दों के साथ-साथ इसका मुख्य उद्देश्य भ्रूण में मौजूद बच्चे के सेक्स बताने की प्रथा को रोकना और दंडित करना भी था। विधायिका इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ थी कि देश के अधिकांश हिस्सों में कन्या भ्रूण हत्या एक आम मुद्दा था।
दूसरी ओर, ऐसी स्थितियां होती हैं जब एक महिला के परिवार में पहले बच्चे के रूप में पहले से ही एक बेटी होती है, और उन मामलों में, महिलाओं को अबॉर्शन कराने के लिए गंभीर मानसिक दबाव का सामना करना पड़ता है। अगर उनका दूसरा बच्चा लड़का नहीं होता है तो उन्हें मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ता है और उनके शारीरिक स्वास्थ्य से फैसले भी परिवार लेता है। इसी से बचने के लिए महिला लिंग निर्धारण का रास्ता चुनती हैं और भ्रूण में बेटा न होने की स्थिति में उसका अबॉर्शन उन्हें करवाना पड़ता है। इस तरह के अबॉर्शन कानून के खिलाफ किए जा रहे हैं जो चयनात्मक लिंग निर्धारण पर आधारित हैं और इस अधिनियम के उद्देश्य पर अंकुश लगते हैं।
महिलाओं के स्वास्थ का उत्पीड़न
लिंग-चयनात्मक परीक्षण, उसके बाद लिंग-चयनात्मक गर्भपात आमतौर पर दूसरी तिमाही के बाद के चरणों के दौरान किए जाते हैं। यह काम न केवल महिलाओं को शारीरिक पीड़ा और आघात पहुंचाती है, बल्कि भावनात्मक उथल-पुथल का कारण भी बनती है। जो महिलाएं ऐसी परिस्थितियों में अबॉर्शन कराने का विकल्प चुनती हैं या परिवार के दबाव में अबॉर्शन कराने के लिए मजबूर होती हैं, वे प्राइवेट क्लीनिकों का विकल्प चुनती हैं जहां पर डॉक्टर असुरक्षित और अस्वच्छ उपकरणों का उपयोग करते हैं। बड़ी संख्या में हमारे देश में महिलाओं के पास सुरक्षित और स्वच्छ गर्भपात सेवाओं तक पहुंच नहीं है। चूंकि वे सरकारी अस्पतालों में ऐसा नहीं करवा सकती हैं, तो वे घर पर या असुरक्षित निजी क्लीनिकों में असुरक्षित तरीके अपनाती हैं। ऐसी महिलाएं चिंता, भय और दुख की भावनाओं का अनुभव कर सकती हैं जिन्हें व्यक्त करना मुश्किल है।
पीसी और पीएनडीटी अधिनियम प्रसव पूर्व निदान प्रक्रियाओं के संचालन को नियंत्रित करता है और लिंग चयन को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है। लेकिन, लिंग निर्धारण परीक्षण का व्यवसाय भ्रूण के लिंग को बताने के लिए परीक्षण करने पर समाप्त नहीं होता है, बल्कि कई मामलों में लिंग-चयनात्मक गर्भपात में समाप्त होता है, जो एक प्रमुख चिंता का विषय है। एक कठोर अधिनियम के होने के बावजूद भी यह कार्य आज भी देश में कई क्लिनिक में चोरी-छिपे किया जाता है जो कि की विफलता को दर्शाता है।