इंटरसेक्शनलजाति लैंगिक हिंसा और समावेशी नज़रिया: हिंसा का आधार सिर्फ जेंडर नहीं होता| #GBVInMedia

लैंगिक हिंसा और समावेशी नज़रिया: हिंसा का आधार सिर्फ जेंडर नहीं होता| #GBVInMedia

हिंसा के बाद दलित महिलाएं न सिर्फ सामाजिक तौर पर बल्कि राजनीतिक, न्यायिक, स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच तक में कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना केवल अपनी जातिगत पहचान के कारण करती हैं।

एडिटर्स नोट: यह लेख हमारे अभियान #GBVInMedia के तहत प्रकाशित किया गया है। यह लेख हमारी रिपोर्ट लैंगिक हिंसा और हिंदी मीडिया की कवरेजका ही एक हिस्सा है। इस अभियान के अंतर्गत हम अपनी रिपोर्ट में शामिल ज़रूरी विषयों को लेख, पोस्टर्स और वीडियोज़ के ज़रिये पहुंचाने का काम करेंगे।

लैंगिक और यौन हिंसा से जुड़े मामलों में यह सवाल अक्सर उठाया जाता है कि क्या सर्वाइवर की जातिगत पहचान का ज़िक्र करना ज़रूरी है। इस सवाल के जवाब में यही तर्क हर बार दिया जाता है कि हिंसा की सर्वाइवर की पहचान सिर्फ एक महिला के तौर पर होनी चाहिए। यहां उसकी जाति, धर्म, यौनिकता, क्षेत्रीयता, विकलांगता आदि मायने नहीं रखती। उदाहरण के तौर पर साल 2020 में 14 सितंबर को उत्तर प्रदेश के हाथरस ज़िले में हुई घटना के बाद बार-बार यह सवाल उठाया गया कि क्या सर्वाइवर की जाति का ज़िक्र होना ज़रूरी है? हालांकि, इस मामले में यह सवाल नहीं पूछा गया कि अगर सर्वाइवर की जातिगत पहचान मायने नहीं रखती थी तो क्यों घटना के बाद आरोपियों के पक्ष में तथाकथित ऊंची जाति के लोगों द्वारा महापंचायत की गई थी।

हाथरस मामले पर नवभारत टाइम्स की इस रिपोर्ट के शीर्षक को देखिए, यहां कुछ ऐसे शब्द इस्तेमाल किए गए हैं- “पीड़िता से रेप का सामने आया सच।” लैंगिक हिंसा के एक बेहद संवेदनशील मामले से जुड़ी इस अहम रिपोर्ट में ऐसे शब्द एक ‘संस्पेंस’ काम माहौल बना रहे हैं। यहां पीड़िता जिसकी मौत हो चुकी है, उसे भी अप्रत्यक्ष रूप से विक्टिम ब्लेमिंग के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। हालांकि, खबर के अंदर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया गया है लेकिन ऐसे गंभीर मुद्दे पर एक असंवेदनशील शीर्षक का इस्तेमाल उस पूर्वाग्रह से ग्रसित नज़र आता है, जिसके मुताबिक मीडिया के लिए लैंगिक हिंसा से जुड़ी खबरों की कवरेज बिना ‘सनसनी’ के अधूरी हैं।

ख़बर के आखिरी पैरा में सिर्फ एक जगह पीड़िता की जातिगत पहचान का ज़िक्र किया गया है। लैंगिक हिंसा के मामलों में सर्वाइवर की लैंगिक पहचान के साथ-साथ जातिगत पहचान का ज़िक्र होना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि दलित महिलाओं के साथ हिंसा सिर्फ इसलिए नहीं होती क्योंकि वे महिलाएं हैं। बल्कि उनके साथ हिंसा के मूल कारण में उनकी जातिगत पहचान भी होती है। 

जाति आधारित लैंगिक हिंसा की एक घटना के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया द्वारा इस्तेमाल की गई इस हेडलाइन को देखिए जहां हिंसा के मूल कारण जातिवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को केंद्र में रखा गया है।

स्वाभिमान सोसाइटी और इक्वैलिटी नाउ की एक रिपोर्ट बताती है कि दबंग जातियों द्वारा दलित महिलाओं और लड़कियों के दमन के लिए यौन हिंसा की जाती है। ह्यूमन राइट्स वॉच के भी अनुसार हाशिये के समुदाय से संबंध रखने वाली यौन हिंसा की सर्वाइवर्स के लिए न्याय पाने में बड़ी बाधा का सामना करना पड़ता है। दलित महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा के आरोपियों की जब जातिगत पहचान का विश्लेषण किया जाता है तो यह बात और पुख्ता नज़र होती है। लेकिन लैंगिक हिंसा की कवरेज में मेनस्ट्रीम मीडिया हमेशा इस पहलू को नज़रअंदाज़ करता है।

अपने काम और सोशल मीडिया के ज़रिये मैं लगातार इस बात पर ज़ोर डालती रही हूं कि दलित और आदिवासी महिलाओं की तस्वीरों को साझा करते वक्त एक कुटील आनंद का अनुभव करते हैं। मीडिया यौन हिंसा और जाति आधारित हिंसा के बीच कोई फर्क नहीं समझता जबकि दोंनो ही बेहद गंभीर अपराध हैं जो मानवाधिकार और सहमति का हनन करते हैं। जब यौन हिंसा दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ होती है तो वह उनके ऊपर हिंसा की एक और परत के रूप में काम करती है। लेकिन इसे एक यौन हिंसा के मामले के रूप में ही देखा जाता है जबकि यह एक जाति आधारित हिंसा भी है। 90% मेनस्ट्रीम मीडिया पर तथाकथित ऊंची जाति और हेट्रोसेक्सुअल लोगों का वर्चस्व है, जो न इस अंतर को समझना चाहते हैं, न ही इसे ज़रूरी मानते हैं। हमारे सामने यौन हिंसा की सर्वाइवर्स दलित और आदिवासी महिलाओं की तस्वीरें लगातार साझा की जाती हैं, जो उनके क्षत-विक्षत शरीर की तस्वीरों को साझा करके संवेदना हासिल करना चाहते हैं। कई मीडियाकर्मियों और कार्यकर्ताओं द्वारा इस मुद्दे को लगातार कई सालों तक उठाए जाने के बावजूद कोई फर्क देखने को नहीं मिला- ज्योत्सना सिद्धार्थ

हिंसा के बाद दलित महिलाएं न सिर्फ सामाजिक तौर पर बल्कि राजनीतिक, न्यायिक, स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच तक में कई स्तरों पर चुनौतियों का सामना केवल अपनी जातिगत पहचान के कारण करती हैं। उदाहरण के तौर पर भंवरी देवी के गैंगरेप के मामले पर एक स्थानीय कोर्ट ने दोषियों को बरी करते हुए यह टिप्पणी की थी कि “उच्च जाति का कोई सदस्य निम्न जाति की महिला से पवित्रता के कारण बलात्कार नहीं कर सकता।” ऐसी ही एक टिप्पणी बिलकिस बानो के गैंगरेप के दोषियों की रिहाई के बाद भी बीजेपी विधायक सीके राउलजी ने की। जहां उन्होंने कहा था कि क्राइम किया है कि नहीं किया है हमें पता नहीं है। ब्राह्मण लोग थे वैसे भी ब्राह्मण का जो कुछ भी है उसका संस्कार अच्छा है। जेल में, जेल से पहले उनका बिहेव अच्छा था, उन्हें फंसाया गया होगा।

मेरा मानना है कि बदलाव तभी आएगा जब हाशिये के समुदाय के लोगों को मेनस्ट्रीम मीडिया में रोज़गार और प्रतिनिधित्व मिलेगा। मीडिया के पितृसत्तात्मक व्यवहार को बदलने के लिए उसे जाति आधारित भेदभाव को बुनियादी स्तर पर चिन्हित करने की ज़रूरत है। मौजूदा वक्त में मेनस्ट्रीम मीडिया में नेतृत्व के पदों पर 90% तथाकथित ऊंची जाति और हेट्रोसेक्सुअल लोग हैं, जहां महिलाओं, क्वीयर, ट्रांस, दलित, आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है। परिणामस्वरूप हमें मीडिया की ब्राह्मणवादी, मर्दवादी, विभाजनकारी कार्यशैली देखने को मिलती है, जिसे समय-समय पर हाशिये की पहचान से आनेवाले लोग चुनौती देते रहते हैं। कार्यस्थल के इस ब्राह्मणवादी हेट्रोसेक्सुअल ढांचे को बदलने के लिए समावेशी समर्थन और काम के ज़रिये ही बदला जा सकता है- ज्योत्सना सिद्धार्थ

साल 2019 में दलित महिलाओं के रेप के प्रतिदिन 10 रेप केस दर्ज किए गए। वहीं, साल 2015-2020 के बीच दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा में 45% की बढ़त देखी गई। ये आंकड़े बताते हैं कि कैसे लैंगिक हिंसा के मुद्दे को सर्वाइवर की जातिगत पहचान से अलग करके नहीं देखा जा सकता। हालांकि, रिसर्च के दौरान हमने पाया कि जाति के आधार पर होनेवाली लैंगिक हिंसा के मसले को रिसर्च में शामिल अख़बार और वेबसाइट्स दोंनो में ही बेहद कम रिपोर्ट किया जाता है। सर्वाइवर और दोषी की जातिगत पहचान को बेहद कम ख़बरों में वरीयता दी गई। तीन अख़बारों और तीन वेबसाइट्स की 500 से अधिक खबरों के विश्लेषण के बाद हम इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि मीडिया के लिए जाति कोई अहम पहलू नहीं है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content