इंटरसेक्शनलजेंडर अरुणा रॉय: सूचना के अधिकार कानून को आकार देने वाली सामाजिक कार्यकर्ता

अरुणा रॉय: सूचना के अधिकार कानून को आकार देने वाली सामाजिक कार्यकर्ता

अरुणा रॉय ने अपने सामाजिक कार्यकर्ता साथियों शंकर सिंह और निखिल डे के साथ मिलकर राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र के राजसमंद जिले के देवडूंगरी गांव में 1990 में ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ की स्थापना की।

सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में महिलाओं का योगदान सतत रूप से रहा है। कई महिलाओं ने अलग-अलग क्षेत्र में नारीवादी नज़रिए से ना सिर्फ कार्य किया बल्कि बदलाव की स्थिति में बड़ा योगदान दिया है। उन्हीं महिलाओं में से एक नाम हैं अरुणा रॉय। अरुणा रॉय एक नारीवादी, सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ की संस्थापक भी हैं। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्य कर चुकी हैं और वर्तमान में गरीब, मजदूर, महिलाओं, वंचित तबके के लोगों के अधिकारों और अवसरों के लिए काम कर रही हैं। सूचना का अधिकार कानून लागू करने में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं।

शुरुआती जीवन और शिक्षा

अरुणा रॉय का जन्म तमिलनाडू राज्य के चेन्नई शहर में 26 मई 1946 में एक तमिल ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनका परिवार प्रगतिशील और शिक्षित था। इनकी माता का नाम हेमा और पिता का नाम ई.डी. जयाराम था। इनके पिता छोटी उम्र में ही शांतिनिकेनत मे चले गए थे। पढ़ाई करने के बाद में उन्होंने वकालत की थी। इनके दादा-दादी भी बहुत शिक्षित थे। राजनीति, समानता की बातें इनके परिवार की दिनचर्या का हिस्सा थी। चार भाई-बहनों में अरुणा सबसे बड़ी थी। उनके घर में तमिल, अंग्रेजी और हिंदी तीनों भाषा बोली जाती थी। उनके परिवार के सभी लोग सामाजिक सरोकार के कामों में बहुत योगदान देते थे। अरुणा ने बचपन से ही इसी माहौल को देखा और इसी सकारात्मक सोच में पली बढ़ी।

पढ़ाई पूरी होने के बाद अरुणा ने कुछ समय के लिए प्रोफेसर के तौर पर शिक्षण कार्य किया। उसके बाद साल 1967 में भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। वह अपने पहले ही प्रयास में आईएएस के लिए चयनित हो गई थी।

शुरुआती पढ़ाई के पूरा हो जाने के बाद उन्होंने दो साल के कलाक्षेत्र एकेडमी, चेन्नई में दाखिला लिया था। वहां उन्होंने भरतनाट्यम और कर्नाटक संगीत में भी प्रशिक्षण हासिल किया। उसके बाद उन्हें पांडिचेरी के अरबिंदो आश्रम में भेज दिया था वहीं उनका परिवार दिल्ली रहने लगा था। कुछ समय आश्रम में रहने के बाद वह भी अपने परिवार के साथ आकर दिल्ली रहने लगी थी। दिल्ली आकर उन्होंने इंदप्रस्थ कॉलेज फॉर वीमन से अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की। अरुणा रॉय कई भाषाओं हिंदी, अंग्रेजी, तमिल, फ्रेंच आदि में पारंगत हैं।

पढ़ाई पूरी होने के बाद अरुणा ने कुछ समय के लिए प्रोफेसर के तौर पर शिक्षण कार्य किया। उसके बाद साल 1967 में भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी। वह अपने पहले ही प्रयास में आईएएस के लिए चयनित हो गई थी। आईएएस बन कर वह जनता की सेवा करना चाहती थी। पुरुष प्रधान समाज में पितृसत्ता और रूढ़िवादी विचारधाराओं को ना मानते हुए नारीवादी विचारधारा के साथ संवैधानिक ढांचे में महिलाओं को आगे बढ़ाना चाहती थी। उनका उद्देश्य मजदूर, गरीब लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों और अवसरों को दिलाने के लिए निस्वार्थ भावना से काम करना था।

सिविल सेवा से दिया इस्तीफा

प्रशासनिक सेवा में रहते हुए उन्होंने अलग-अलग स्तर पर काम किया और पदोन्नत्ति भी हासिल की। लेकिन पद पर रहते हुए सिस्टम में भ्रष्टाचार, गुटबाजी आदि से पूरी व्यवस्था से उनका मोहभंग हो गया और जिसे भीतर रहकर सुधारना संभव नहीं था। उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने का फैसला किया। नौकरी से इस्तीफा देने के उनके फैसले पर हालांकि परिवार वालों ने दोबारा सोचने को कहा था लेकिन उन्होंने ठाना कि काम इस तरह से नहीं हो सकता है। अरुणा रॉय ने आठ साल तक आईएएस के पद पर काम किया। 

सिविल सेवा से इस्तीफा देने के बाद अरुणा रॉय राजस्थान राज्य के अजमेर जिले के पास एक छोटा सा गांव तिलोनिया चली गई। जहां उनके पति संजीव बंकर ने ‘सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर’ की स्थापना की थी। उन्होंने गांवों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए ‘बेयरफुट कॉलेज’ की स्थापना की थी। तिलोनिया में आने के बाद अरुणा ने ग्रामीण लोगों के बीच में रहकर उनकी परिस्थिति, समस्याओं, दैनिक जीवन जीने के लिए जरूरी संसाधनों की कमी से लेकर कई समस्याओं को समझा। इस समय का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने ग्रामीण परिस्थिति को समझते हुए उनके मुद्दों पर काम करने के लिए उन्हीं के बीच रहना जरूरी समझा और वहीं काम में जुट गई।

तस्वीर साभारः The News Minute

उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में महिला सशक्तिकरण पर बहुत ध्यान दिया। साथ ही विकास के लिए कॉलेज में ग्रामीण स्वरोजगार को बढ़ावा देने का काम किया। ग्रामीण महिलाओं को शिक्षा, लेखन, हस्तकला से निर्मित वस्तुओं के द्वारा पहचान बनाना, अपने अधिकारों और हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज उठाने पर जोर दिया। महिलाओं के साथ ग्रामीण समस्याओं पर कई रैलियां निकाली, आंदोलन किए जिससे सभी के प्रयास से गांव की स्थित बेहतर हुई।

सूचना का अधिकार को लागू करने में दिया योगदान

तस्वीर में शंकर सिंह और निखिल डे के साथ अरुणा रॉय। तस्वीर साभारः Safar India

अरुणा रॉय ने अपने सामाजिक कार्यकर्ता साथियों शंकर सिंह और निखिल डे के साथ मिलकर राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र के राजसमंद जिले के देवडूंगरी गांव में 1990 में ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ की स्थापना की। एमकेएसएस ने मजदूरों के अधिकारों, न्यूनतम मजदूरी के लिए धरना प्रदर्शन किए। खुला मंच तैयार किया जहां लोग खुलकर अपनी बात रख सके और राज्य के विकास की हकीकत आम जनता को बताई। एमकेएसएस की शुरुआत के बाद सूचना के अधिकार की मांग उठी। 

सामाजिक कार्यों और उनसे हुए बदलाव के लिए साल 2008 में उन्हें प्रतिष्ठित रमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित किया गया। साल 2010 में लाल बहादुर शास्त्री नैशनल अवॉर्ड से भी सम्मानित किया जा चुका हैं।

उन्होंने अपने काम के दौरान पाया की सरकार की योजनाओं, उनके द्वारा विकास के नाम पर किए गए काम, ग्रामीण लोगों, मजदूरों के हक और व्यवस्थाओ में काफी हेरफर और भ्रष्टचार है। उसके बाद सरकार के कामकाज की पारदर्शिता के लिए एक पूरा अभियान चलाया और सूचना का अधिकार के लिए कई रैलियां, धरना प्रदर्शन, आंदोलन किए गए। धीरे-धीरे उनका ये प्रयास पूरे देशभर में फैल गया और साल 2005 में सूचना का अधिकार कानून राजस्थान समेत अन्य राज्यों में भी लागू हुआ। 

रमन मैग्सेसे से हुई सम्मानित

देश में मनरेगा, भोजन का अधिकार, शिक्षा, महिलाओं के लिए समान वेतन, जन चेतना, सम्मेलन, महिला समूह, हिंसा, महिला सशक्तिकरण, समानता और बदलाव के लिए आज तक वे अपने साथियों के साथ मिलकर लगातार काम कर रही हैं। सामाजिक कार्यों और उनसे हुए बदलाव के लिए साल 2008 में उन्हें प्रतिष्ठित रमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित किया गया। साल 2010 में लाल बहादुर शास्त्री नैशनल अवॉर्ड से भी सम्मानित किया जा चुका हैं। साल 2011 में अरुणा रॉय का नाम टाइम मैग्जीन द्वारा दुनिया के सौ प्रतिष्ठित लोगों की सूची में शामिल किया गया। अरुणा रॉय पावर टू द पीपलः द राइट टू इन्फॉरमेशन स्टोरी, वी द पीपल जैसी किताबों की लेखिका भी हैं। 

स्रोतः

  1. Wikipedia
  2. Indian Development Review

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