इंटरसेक्शनलजेंडर सुमित्रा सिंह: नौ बार की विधायक और राजस्थान की पहली महिला विधानसभा अध्यक्ष

सुमित्रा सिंह: नौ बार की विधायक और राजस्थान की पहली महिला विधानसभा अध्यक्ष

सुमित्रा सिंह ने नौ बार- 1957, 1962, 1967, 1972, 1977, 1985, 1990, 1998 और 2003 में विधायक का चुनाव जीता। यह चुनाव उन्होंने कांग्रेस, लोक दल, जनता दल, निर्दलीय और भाजपा से लड़े। 1967 में वह चिकित्सा और स्वास्थ्य मंत्री बनी। साल 2004 में राजस्थान की पहली महिला विधानसभा अध्यक्ष बनीं।

यूं तो हर क्षेत्र में ही लैंगिक असमानता मौजूद है लेकिन लोकतंत्र की आधारभूत कड़ी राजनीति में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी बहुत दूर का लगता है। भारत इस बात पर गुरूर करता है कि हमारे संविधान ने अपनी शुरुआत (1950) में ही सार्वभौमिक मताधिकार के साथ हर नागरिक को एक पायदान पर खड़ा कर दिया। लेकिन हमारी संसद, विधानसभाएं, राजनीतिक रैलियां, सार्वजनिक स्थल, सड़कें आज भी महिलाओं की राह तकते हैं।

इन्हीं परिस्थितियों के बीच एक दूरस्थ राज्य- राजस्थान, जो लैंगिक असमानता में अपनी ठीक-ठाक पहचान रखता है, वहां साल 1957 में एक महिला राजनीति में प्रवेश करती हैं और 9 बार विधायक चुनी जाती हैं। साल 1967 में मंत्री बनती हैं, 2004 में राजस्थान की पहली महिला विधानसभा अध्यक्ष और 6 दशक की राजनीतिक सक्रियता के बाद आज 2023 में भी उतनी ही निडरता से अपने विचार रखती हैं। इनका नाम है सुमित्रा सिंह।

शुरुआती जीवन

इनका जन्म औपनिवेशिक भारत में, साल 1931 में किसारी गांव के एक किसान परिवार में हुआ। उनके पिता एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी और प्रजामंडल के सदस्य थे। शायद इसीलिए जब राजस्थान में साक्षरता दर महज 3 प्रतिशत थी, उन्होंने सुमित्रा को पढ़ने के लिए वनस्थली विद्यापीठ भेज दिया, जब उनके गांव में लड़कियां तो दूर, लड़कों को भी नहीं पढ़ाया जाता था। वह अपने बचपन का एक किस्सा बताती हैं जहां उनके गांव के पंडित खेमराज उनका नामकरण और विद्या संस्कार करने आते हैं और कहते हैं कि वह जिंदा रही तो उनके राजयोग है।

हालांकि सुमित्रा भविष्यवाणी में अब मानती तो नहीं हैं लेकिन इस किस्से ने उन्हें उस वक्त खूब प्रेरित किया। दुर्भाग्य से राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री, हीरालाल शास्त्री की बेटी का देहांत हो गया था। यही सुमित्रा के लिए संयोग साबित हुआ। शास्त्री जी ने फिर प्रजामंडल के साथियों को अपनी बेटियों को पढ़ाने के लिए चिट्ठी लिखी। इस तरह 6 साल की सुमित्रा, अपनी मारवाड़ी ज़ुबान बोलती हुई, 40 तक पहाड़े याद होने की बदौलत वनस्थली में ‘कक्षा ब’ में दाखिला लेती हैं। 

अगले 14 वर्ष, उनकी पढ़ाई वहीं हुई। दाखिले के तीन महीने बाद ही वह अपने पिता को ‘हिंदी’ में चिट्ठी लिख रही थी। बाद में, विद्यालय में 2 घोड़ों पर एक साथ सवारी कर रही थी, तैराकी सीख रही थी, मॉक पार्लियामेंट में विपक्ष की नेता बन भाषण दे रही थी और खूब पढ़ रही थी। वहीं, उन्हें नेहरू ने देखा और कहा कि “यह लड़की अभी तो घुड़सवारी कर रही थी और अब इसने अपने तर्कों से सरकार को एकदम चुप भी कर दिया।” फिर उन्होंने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। लेकिन 5 नंबर से प्रथम श्रेणी से चूक जाने का वह आज भी मलाल करती हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि समाज से दूर हमेशा हॉस्टल में रहने के कारण उन्होंने खुद तो ज्यादा समाज की कुरीतियों का सामना नहीं किया। लेकिन उस वक्त किसी बच्ची का इतनी दूर पढ़ने जाना अपने आप में ही क्रांति थी। उनकी मां उन्हें मज़ाक में कहती थीं कि अब तुम्हारे इतने लंबे बाल कौन धोएगा, जिस पर उनका बाल मन भी एक झटके में जवाब देता कि मैं सब खुद कर लूंगी। सामाजिक दबाव के बारे में पूछने पर वह बड़ी बेबाकी और हिम्मत से कहती हैं कि, “हम में हिम्मत है और हम खुद कुछ करना चाहते हैं तो कौन रोक सकता है।”

तस्वीर साभार: सुरेंद्र मीणा
तस्वीर साभार: सुरेंद्र मीणा

सुमित्रा अपने शैक्षणिक जीवन में व्यस्त थी, तभी उनके पिता आज़ादी से कुछ महीने पहले ही, जेल में टी.बी की वजह से चल बसे। वह सुमित्रा को स्नातक की उपाधि लेता नहीं देख पाए। सुमित्रा का विवाह नाहर सिंह के साथ हुआ, जो संयोग से आज़ाद ख़याल व्यक्ति थे। उनके ससुर भी स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्होंने जागीरदारों का खूब शोषण सहा। सुमित्रा के शब्दों में, “हमारा रिश्ता खूब समानता से भरा और प्रेम से भरा था। मेरे जीवन की खुशी और सेहत का श्रेय इसी पारिवारिक शांति को जाता है।”

अरे छोरी! तू लड़कों को पढ़ाती है?

झुंझुनूं के एक इंटर कॉलेज में सुमित्रा फिर पढ़ाने लगी। जितनी उनकी उम्र थी, उतनी ही उम्र के लड़के वहां पढ़ते थे। राजनीति से दूर, अपने जीवन को वो अध्यापन से ही सार्थक करना चाह रही थी। उन दिनों को वह याद करते हुए बताती हैं कि तब शहर के दौरे पर राजस्थान के एक प्रसिद्ध किसान नेता, कुंभाराम आर्य का आना हुआ। उनसे मिलकर उन्होंने गुज़ारिश की कि वह अभी मोतीलाल कॉलेज में पढ़ाती हैं और राजस्थान यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाना चाहती हैं। कुंभाराम आर्य ने चौंककर कहा, “अरे छोरी! तू लड़कों को पढ़ाती है?” सुमित्रा के लिए यह बेहद आम सी बात थी। उन्होंने बिना हिचकिचाए कहा कि “हां, पढ़ाती हूं।” पांच मिनट के वार्तालाप के बाद ही उस नेता का कहना था कि सुमित्रा को कुछ पैसों के लिए नौकरी करने की बजाय चुनाव लड़ना चाहिए।

राजनीतिक जीवन

सुमित्रा को 1957 के चुनाव का टिकट मिला। गाड़ी में पुरुष कार्यकर्ताओं के बीच वो अकेली बैठ गांव-गांव जाती तो लोग कहते कि “कितने आदमियों में अकेली बैठी है।” सुमित्रा ने कभी ऐसी बातों पर गौर नहीं किया। उन्होंने किसानों के हक़, शिक्षा, समानता जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़ा और जीत गई। क्षेत्र में नहर के माध्यम से पानी पहुंचाने की बात उठाने वाली वह पहली व्यक्ति थी। विधानसभा में भी उन्होंने मुखर होकर सवाल पूछे और विधायकों को बेहिसाब पेंशन देने का विरोध किया। अगले चुनाव में क्षेत्र के पुरुष नेता एक सूत्र होकर इनका विरोध करने लगे। पर लोग कहते कि, “क्यूं, म्हार गांव म स्कूल खोली है छोरी। म्हें तो देस्यां इन ही बोट।” 

वर्तमान राजनीतिक दृष्टिकोण को देखते हुए कहती हैं, “पहले चुनाव जनता से समीपता, काम, चरित्र और संपर्क से जीते जाते थे। आज कोई काम नहीं देखता है। विधानसभा में किया गया काम देखना तो दूर की बात है। आज बस पैसे पर चुनाव होता है। पहले आलोचना राजनीति का मुख्य अंग थी। अब नेता अपने मूल मानवीय गुणों से ही दूर हो गए हैं।”

महज नौ साल की उम्र में जब वह अपने पिता से जेल में मिली, तभी से उनमें राजाशाही और समांतवाद के खिलाफ़ आक्रोश पनपा। बाद में जब प्रसिद्ध उद्योगपति बिरला ने चुनाव लड़ा और लगभग नेता उनकी तरफ़ थे, तब भी सुमित्रा ने खुलकर पूंजीवाद का विरोध किया। वह कहती हैं, “बिरला ने चुनाव में खूब पैसा खर्च किया। उनके सामने थे एक किसान और सुमित्रा उनकी चुनावी प्रभारी थी। आखिरकार किसानों ने एकजुट होकर बिरला को हरा दिया। सुमित्रा सिंह ने नौ बार- 1957, 1962, 1967, 1972, 1977, 1985, 1990, 1998 और 2003 में विधायक का चुनाव जीता। यह चुनाव उन्होंने कांग्रेस, लोक दल, जनता दल, निर्दलीय और भाजपा से लड़े। 1967 में वह चिकित्सा और स्वास्थ्य मंत्री बनी। साल 2004 में राजस्थान की पहली महिला विधानसभा अध्यक्ष बनीं।

सुमित्रा सामंतवाद और पूंजीवाद का खुलकर विरोध करती हैं। वर्तमान राजनीतिक दृष्टिकोण को देखते हुए कहती हैं, “पहले चुनाव जनता से समीपता, काम, चरित्र और संपर्क से जीते जाते थे। आज कोई काम नहीं देखता है। विधानसभा में किया गया काम देखना तो दूर की बात है। आज बस पैसे पर चुनाव होता है। पहले आलोचना राजनीति का मुख्य अंग थी। अब नेता अपने मूल मानवीय गुणों से ही दूर हो गए हैं।”

महिलाओं की स्थिति पर बात करने पर उन्होंने कहा कि बहुत चीजों में हालात पहले से भी ज्यादा दूभर हो गए हैं। उनकी उम्र भारत की उम्र से भी ज्यादा है। ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के बारे में उन्होंने कहा कि “बहुत कुछ जो उस वक्त सोचा था, पूरा नहीं हुआ। सब कुछ ही अधूरा पड़ा है।”

आज जब राजस्थान में हर रोज़ कोई न कोई जातीय सभा हो रही है, कभी ब्राह्मण सभा, कभी करनी सेना की तो कभी जाट महाकुंभ। साल 1947 का किस्सा सुनाते हुए उन्होंने बताया कि जब विभाजन के समय मुस्लिम समुदाय के लोग रेल से पाकिस्तान की ओर जा रहे थे तो चिड़ावा तक बहुत जनसंहार हुआ। उस वक्त झुंझुनूं के लोग अपनी किसानी के औजार लेकर सीमा पर तैनात हो गए और उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा की। तब से आज तक यहां कोई भी सांप्रदायिक तनाव नहीं हुआ और शहर में दोनों समुदायों की बराबर आबादी रहती है। 

उन्होंने हमेशा जनसंघ के विचारों का सामना किया और अब आरएसएस की क्षेत्र में बढ़त पर चिंता प्रकट करते हुए कहा कि आज देश अघोषित आपातकाल में है। उनका मानना है कि राजस्थान ने पंचायती राज में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने की सुंदर पहल की लेकिन अब भी अधिकतर जगह परिवार के मर्द ही अपने पास सत्ता रखते हैं। वह पढ़ी लिखी, आज़ाद, बेबाक महिलाओं का राजनीति में आना बहुत जरूरी समझती हैं। शहर के सारे पुराने नेताओं के बच्चे आज राजनीति में हैं लेकिन परिवारवाद का विरोध करते हुए उन्होंने अपने बेटे से कहा, “मैं डेमोक्रेट हूं। मेरे बाद तुम खुद जनता से पूछना की जनता तुम्हें स्वीकारती है या नहीं।”

तब भी लोग महिला को पुरुषों के साथ देख बात बनाते थे, आज भी बनाते हैं। पहले भी महिलाओं की राजनीति में स्वीकार्यता नहीं थी, आज भी नहीं है। तब भी ऐसी कहानी कोई बड़ी बात थी, आज भी यह आम नहीं है। तब भी सुमित्रा सिंह ने अपने तीन बच्चों के पालन-पोषण और काम को बहुत मुश्किल से संतुलित किया, आज भी इसके लिए हमारे पास कोई ढांचा मौजूद नहीं है। 

आज सुमित्रा सिंह 92 वर्ष की हैं। अगले महीने वह 93 की हो जाएंगी। अब भी वह रोज़ 3 घंटे अखबार पढ़ती हैं, रोज़ लोगों से मिलती हैं और बागवानी करती हैं। वर्तमान स्थिति के बारे में पूछने पर वह बार-बार चुप्पी से घिर जाती हैं। महिलाओं की स्थिति पर बात करने पर उन्होंने कहा कि बहुत चीजों में हालात पहले से भी ज्यादा दूभर हो गए हैं। उनकी उम्र भारत की उम्र से भी ज्यादा है। ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के बारे में उन्होंने कहा कि “बहुत कुछ जो उस वक्त सोचा था, पूरा नहीं हुआ। सब कुछ ही अधूरा पड़ा है।” उन्हें अपने जीवन में आर्थिक सहूलियत रही। अपने पिता और ससुर के स्वतंत्रता सेनानी होने का और जीवन के संयोग का भी फायदा मिला। वह कहती हैं “फिर भी किसने सोचा था कि एक किसान की बेटी यह सब कर पाएगी और सवाल करती हैं कि “आज के दौर में तो ऐसा सफर कितना ही मुमकिन है?”


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