इंटरसेक्शनलजेंडर पितृसत्ता की पाबंदियों के चलते कबड्डी खेलना छोड़ अपनी नई राह चुनती प्रीति

पितृसत्ता की पाबंदियों के चलते कबड्डी खेलना छोड़ अपनी नई राह चुनती प्रीति

ग्रामीण क्षेत्रों में तमाम छोटे-बड़े पैमाने पर लड़कियों और लड़कों में अंतर किया जाता है। खेलकूद भी ऐसा ही एक पैमाना है। जहां लड़कियों के खिलौने में चौका चूल्हा है वहीं लड़कों के लिए गेंद और बल्ला।

साल है 2008, एक छः साल की लड़की अपने पिता से कहती है कि वो दीपावाली में अपने घरौंदे को पूजने के लिए मिट्टी से बने बर्तनों का सेट चाहती है जो चमकीले नीले, गुलाबी रंग का होता है। साथ ही उस लड़की का नौ साल का एक बड़ा भाई भी है जो कहता है कि वो पटाखे और लेज़र पिस्टल टॉय चाहता है जिसमें नन्ही पीले रंग की गोलियां आती है। दूसरे ही दिन दोनों भाई-बहन एक साथ अपने-अपने खिलौने के साथ खेलते हुए दिखते हैं। देखने सुनने में ये वाकिया सुखद है, नहीं? सुखद है क्योंकि इतने सालों से ये सामान्यीकृत है। हमने अपने से बड़ों को ऐसे ही खेलते देखा है। बच्चों का तो स्वभाव ही है देखे हुए को दोहराना। इसमें कोई दोराय नहीं है कि अगर हम इस वाकिये को एक प्रगतिशील मानसिकता से देखेंगे तो हमें इसमें किसी प्रकार की परेशानी नहीं दिखेगी पर अधिकतर घरों में ये आगे चल कर भेदभाव का रूप धारण करती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में तमाम छोटे-बड़े पैमाने पर लड़कियों और लड़कों में अंतर किया जाता है। खेलकूद भी ऐसा ही एक पैमाना है। जहां लड़कियों के खिलौने में चौका-चूल्हा है वहीं लड़कों के लिए गेंद और बल्ला। ये पूरी तरह से नॉर्मलाइज हो चुका है। झारखंड के गिरिडीह जिले के पटेल नगर में रहने वाली इक्कीस वर्षीय प्रीति एक ऐसे घर से आती है जहां सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध हैं पर उसके एक मात्र सपने को पूरा करने में उन सुख-सुविधाओं की कोई भूमिका नहीं है। प्रीति कबड्डी खेलना चाहती थी और खेल की दुनिया में नाम कमाना चाहती थी पर उसके परिवार में कोई भी इस फैसले के पक्ष में नहीं था। 

“लड़की हो। घर की सीमा में रहो और पंख फैलाने की कोशिश मत करो। धूप में खेल-खेल के चेहरा बिगाड़ ली हो, कल को हाथ-पैर टूट जाएंगे तो शादी कौन करेगा? नहीं जाना है कहीं खेलने, चूल्हे चौके पर मन लगाओ, घर पर बैठ के पढ़ाई पूरी करो।”

कबड्डी में दिलचस्पी और कौशल विकास का सफर 

प्रीति ने बारहवीं तक की पढ़ाई गिरिडीह के डीएवी स्कूल से की है। जब वह सातवीं कक्षा में थी तभी से उसने स्कूल के तरफ से कबड्डी खेलना शुरू किया। साल दो साल के लगातार प्रयास के बाद वह काफ़ी अच्छी खिलाड़ी साबित हुई। अपनी टीम के साथ कैप्टन बनकर अलग-अलग स्तर पर खेलना, हारना और जीतना अब उसे भाने लगा था। हर साल हो रहे टूर्नामेंट में वह हिस्सा लेती और अपने स्कूल का एक महत्वपूर्ण चेहरा बन निखरती। प्रैक्टिस के दौरान थकान, धूप में खेलने से रंग का फीका पड़ना, दर्जनों चोटों और मोच पर मरहम पट्टी करना जैसे कारणों से परिवार जने डांटते और न खेलने की सलाह देते। वह उदास होती पर खेलते रहने की इच्छा को जारी रखती। घर से मनाही होने पर भी छुप-छुपाकर प्रैक्टिस पर आती और टीम का हिस्सा बनती। फिर टूर्नामेंट में जाने से एक दो दिन पहले बहला फुसलाकर अपने माता-पिता को मना लेती और स्कूल के तरफ से खेलने जाती। 

कबड्डी प्रतियोगिता जीतने के बाद अपने साथी खिलाड़ियों के साथ प्रीती।

जब वह ग्यारहवीं कक्षा में थी तभी टूर्नामेंट के दौरान उसके बेहतरीन प्रदर्शन से प्रभावित होकर उसे नेशनल लेवल पर खेलने का प्रस्ताव आता है। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। कितना सुंदर समय होता है जब आपके सपने आपकी ओर बाहें फैलाए खड़े हो। प्रीति के लिए ये समय उसकी ज़िंदगी का सबसे खुशनुमा पल होता है। वह घर जाती है और अपने माता-पिता के साथ अपनी खुशी साझा करती है और फिर वो समय आता है जब उससे सपने देखने का हक़ छिन जाता है। उसे शहर से बाहर जाकर खेलने की अनुमति नहीं दी जाती। बहुत आग्रह और आश्वशन के बाद भी उसे उसके सपनों से वंचित रखा जाता है।

निराश होकर जब मनाही का कारण पूछती है तो जवाब मिलता है, “लड़की हो। घर की सीमा में रहो और पंख फैलाने की कोशिश मत करो। धूप में खेल-खेल के चेहरा बिगाड़ ली हो, कल को हाथ-पैर टूट जाएंगे तो शादी कौन करेगा? नहीं जाना है कहीं खेलने, चूल्हे चौके पर मन लगाओ, घर पर बैठ के पढ़ाई पूरी करो।” कोच के निवेदन पर भी उसे अनुमति नहीं मिलती है। 

प्रीति का वर्तमान और जीवन जीने की इच्छा

बहरहाल, इसके बाद ही देश में कोरोना के कारण लॉकडाउन का सिलसिला शुरू हो जाता है। इस दौरान बाकी विद्यार्थियों की तरह उसकी घर से ही बारहवीं की पढ़ाई पूरी करती है। साल भर घर की परिधि में सीमित रही प्रीति अपने प्रति माता-पिता के विचारों को समझती है और पाती है कि बारहवीं के बाद भी उसे बाहर जाकर पढ़ाई करने की अनुमति नहीं मिलेगी। वो यह भी जान चुकी है कि उसकी आज़ादी उस घर तक सीमित है और कुछ महीनों या सालों में उसके ससुराल तक सीमित होगी। कबड्डी खेल पाने के अधूरे सपने के साथ वह फिलहाल घर पर रहकर ही गिरिडीह के ही एक कॉलेज से बी.ए. की पढ़ाई पूरी कर रही है।

प्रीति में बहुत हौसला भरा है और वो अपने ऊपर लागू पाबंदियों को अपने अस्तित्व पर हावी नहीं होने देती। वो इनका विद्रोह नहीं करती बल्कि सहजता से स्वीकारती है। अपने अभी के हालातों को परिभाषित करते हुए वह कहती है, “मैं इन पाबंदियों से निराश होती हूं पर हार नहीं मानती। मैं समझती हूं कि मुझे बहुत सारी सुख सुविधाएं मिली है और कितनी ही लड़कियों को तो यह भी नहीं मिलता इसलिए सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ने में किसी का नुकसान नहीं है”।

तस्वीर में प्रीती।

वह घर के सारे काम करती है। उसे तरह-तरह के व्यंजन पकाना, खाना और खिलाना रास आता है और इसलिए उसने “प्रीति किचन” के नाम से एक यूट्यूब चैनल भी बनाया है जिसमें वो अपनी रेसिपी साझा करती है। उसे मेंहदी लगाने में भी रुचि है और वो आस-पड़ोस की महिलाओं की मेंहदी लगाती है जिसके बदले में उसे बहुत बार पैसे भी मिलते हैं। वह यह भी बताती है कि वो एक कार्टून सीरीज़ के लिए कहानियां लिखती है, साथ ही घर पर कुछ छोटे बच्चों को पढ़ाती है जिसके लिए भी उसे पैसे मिलते हैं। इन छोटी-छोटी उपलब्धियों से उसे विश्वास होता है कि वो अपने शौक के माध्यम से घर की सीमा में रहकर भी पैसे कमा पाने का सुख प्राप्त कर सकती है। लेकिन अब वह सपने नहीं संजोती, इच्छाएं नहीं पालती, वो अपने माता-पिता की हर बात को मानती है तो बदले में सिर्फ़ पढ़ते रहने की शर्त को सामने रखती है। 

ग्रामीण इलाकों में लड़कियों द्वारा खेले जाने वाले कुछ खेल 

हम अपने बालपन में घर के बरामदे में ईट के टुकड़े से रेखाएं खींच कर कित-कित खेला करती थीं। आज भी गांव में बच्चियां ऐसे खेल को खेलती हैं। बारिश के मौसम में बच्चियां ‘घो घो रानी’ नामक खेल को खेलती हैं जिसमें एक लड़की को बीच में घेरकर कई लड़कियां खड़ी रहती और गाते हुए पूछती “घो घो रानी कितना पानी?” वह एड़ी के पास छूकर बताना शुरू करती, “इतना पानी”, फिर घुटना, कमर, पेट, छाती और गले तक बताती और फिर वह गुड़क से डूबने का अभिनय करती। जैसे ही वह डूबने का अभिनय करती, सभी लड़कियां खिलखिलाकर हंसने लगती और खेल खत्म हो जाता। आँख मिचौली, एक सहेली बाग में, गिल्ली डंडा, पकड़म पकड़ाई, इमली के दाने से खेले जाने वाले कुछ खेल और क्या कुछ जो गाँव की लड़कियां खेलती हैं अपने आप में एक कहानी कहती है, यादें भरती हैं। 

अपने अभी के हालातों को परिभाषित करते हुए वह कहती है, “मैं इन पाबंदियों से निराश होती हूं पर हार नहीं मानती। मैं समझती हूं कि मुझे बहुत सारी सुख सुविधाएं मिली है और कितनी ही लड़कियों को तो यह भी नहीं मिलता इसलिए सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ने में किसी का नुकसान नहीं है”।

देश की कितनी ही महिला खिलाड़ियों ने वो मुकाम पाया है जिसके वे योग्य है। खेल कूद में भी राष्ट्रीय स्तर पर समावेशी विकास होता दिखता है। हाल का उदाहरण है वीमंस आईपीएल। पर जमीनी स्तर पर आज भी समाज में लड़कियों को खेलने की मनाही होती है। हर दूसरे घर से आवाज़ें निकलती हैं, “चोट घाट लग जाएगा तो ज़िंदगी भर का धब्बा रह जाएगा, मर-मुरा जाओगी, पैर-हाथ टूट जाएंगे तो शादी कौन करेगा, पढ़ने लिखने की आज़ादी है तो उतने में संतुष्ट रहो, खेल कूद लड़को के करने की चीज़ है, अच्छे घर की लड़कियां भाग दौड़ नहीं करती ” वगैरह वगैरह। 

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” कहां तक सफल साबित हुआ है ये आज हमारी आँखों के सामने है। इसके साथ ही हमें ध्यान देना होगा उन प्रतिभाओं पर जो बरामदे में कित-कित खेलने से लेकर बड़े स्तर पर कबड्डी खेलने तक का सफर पूरा करती है। देश के कई छोटे बड़े इलाकों में लड़कियों की पढ़ाई पर प्रकाश डाला जाता है और ये कुछ हद तक सफल होता दिखता है पर खेल कूद के मामले में भी अगर लड़के और लड़कियों में अंतर किए बगैर हम एक जुगनू भर रोशनी भी ला पाएं तो ये प्रयास हमें अच्छा परिणाम देंगे।


नोटः लेख में शामिल तस्वीरें ऋषु ने उपलब्ध करवाई हैं।

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