सशक्तिकरण, सामाजिक बदलाव और एक न्यायपूर्ण समाज बनाने का दावा करते पूंजीवादी सेलिब्रेशन की जगर-मगर में माँओं की स्थिति का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए। किसी समाज की आरंभिक संस्कृति का निर्धारण उसकी जरूरतों पर निर्भर होता है और बाद में सत्ता उसे अपनी आवश्यकता पर उपयोग करने लगती है। आज बाज़ार पितृसत्तात्मक समाज की जड़भूत संरचना को अपनी तरह से इस्तेमाल कर रहा है।
सोने के आभूषणों के एक विज्ञापन में यह दिखाया जाता है कि माँ के पास स्त्रीधन के नाम पर एक ही गहना बचा होता है। आधुनिक सुख-सुविधा से लैस बेटा अपनी पत्नी को लेकर पहली बार रिटायर्ड माता-पिता से मिलने आ रहा है तो माँ अपने एकमात्र कंगन को बेचकर बेटे की पत्नी के लिए नये फैशन के नेकलेस बनवाती है, पिता माँ को इसके लिए टोकता है तो माँ कहती है अब इस उम्र में उसे रखकर क्या करूंगी, अब यहां बाज़ार संस्कृति के कलेवर में ढल कर अपना काम कर रहा है। वो माँ की भूमिका परंपरा से उसी सदियों पुराने ढाँचे में तय कर रहा है जबकि एक वैचारिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ये कहता है कि उम्र के इस पायदान पर स्त्री के पास अपना धन बचा रहना चाहिए क्योंकि आज समाज की भोगवादी चेतना में पूँजी ही सबसे ऊपर है।
एक पारंपरिक जड़ समाज में सबसे ज्यादा जिसे मनुष्य होने के अधिकारों से उसे वंचित किया है वो माँ है। पूँजी के आधार पर निर्मित समाज ने माँ को सिर्फ और सिर्फ सम्पत्ति का संरक्षक बनाया है। आज टीवी सीरियल्स के युग में तो माँ की भूमिका ही बेहद गड्डमड्ड हो गई है। वहाँ या तो माँ क्रूर है, झगड़ालू है, कामचोर है या बहुत ही अधिक महान है जबकि ये दोनों दृष्टियां समाज में माँ की अस्मिता के लिए घातक हैं। माँ भी एक मनुष्य है जिसकी अपनी मनुष्यगत कमजोरियां, इच्छाओं, जरूरतों के साथ उसके चरित्र को ब्लैक एंड व्हाइट ही क्यों देखना या दिखाना चाहते हैं।
गंवई माँओं का एंकाकी होता जीवन
ग्रामीण जीवन जीती माँओं का तो जैसे पहले से निर्धारित होता है कि सामाजिक व आर्थिक जरूरतों में घर-परिवार में उसे कैसे रहना है। आज पलायन भारत के हर गाँव का सच है। गाँव के लोग हमेशा से रोजगार के लिए शहर जाते रहे हैं लेकिन पहले जो लोग शहर जाते थे तो अधिकांश लोग वहां बस नहीं जाते थे। वे गाँव लौट आते थे उनका घर-परिवार गाँव-ज्वार सब उनकी अस्मिता का हिस्सा होते थे। तब गंवई माँओं का जीवन इतना एकांकी नहीं होता था। बेटा, बहू, बच्चों आदि परिवार के लोगों से चहल-पहल रहती थी, रिश्तेदारों और ससुराल से बेटियों का भी आना-जाना रहता था। बाद में बाजार ने जीवन में बहुत तेजी से प्रवेश किया। हर युवा शहरी होना चाहता है, टेक्नोलॉजी को ज्यादा से ज्यादा हड़प लेना चाहता है, सुविधाओं का जीवन ही उन्हें जीवन की सच्ची सफलता लगती है और वो इनके पीछे ही भाग रहा है।
जब बाजार हमारे जीवन के हर हिस्से में प्रवेश कर चुका है तो समाज में माँओं का जीवन काफी हद तक प्रभावित हुआ है। आज गाँवों में देखा जाये तो लगभग हर माँ अकेली है उनके बच्चे बाहर चले गए हैं और वे गाँव में रह गयी हैं। वैसे भी भारतीय समाज का जो ढांचा है उसमें बेटियों को ब्याह करके दूर भेज दिया जाता है। गाँव में तो इस बात को बहुत गौरव के साथ देखा जाता है कि बेटी, ससुराल से मायके जल्दी नहीं आती या आती है तो मात्र पल भर के लिए, इस तरह की धारणा भी माँओं के जीवन के लिए अकेलेपन की राह ही है। मैं गाँवों में देखती हूँ, पीढ़ी दर पीढ़ी माँ का जीवन एक जैसा है।
पूँजी के प्रभाव में जो थोड़े बहुत बदलाव भी हुए हैं उसका फायदा युवा स्त्रियों को भले हो लेकिन छलांग लगाते नये युग को पकड़ना पुरानी स्त्रियों के बस की बात नहीं है और न ये समाज इतना उदार है कि माँ को मनुष्य समझकर उन्हें एक मनुष्य की ही गरिमा में देख सके। अगर पीढ़ियों के अंतराल का भी अध्ययन हो तब भी मनुष्य के दुःखों को समझने के लिए संवेदनशील मन बहुत आवश्यक है। इस स्त्रीदुख को दर्ज करती शैलजा पाठक की एक कविता से समझा जा सकता है।
“हमसे बड़ी उम्र की औरतें गुजरे जमाने वालियां थीं
हम उनके दुख के रास्ते कभी टकराना भी नहीं चाहते थे
हमें क्या करना था सात की उमर में चूल्हे से उनका हाथ जल गया था
स्कूल की पट्टी खीच कर अलग करने वाला उनका भाई कभी अपने किए पर अफसोस नहीं किया
एक बार तीन दिन के बुखार में वो अपनी जगह बेसुध पड़ी रहीं थी
पुराने दुखों को सुना क्या करना था हमें यार बीते को क्या रोना
बीत गया अब चिल करो।”
स्त्री के पढ़ने-लिखने का बनाया जाता मजाक
मुझे याद है अपने ही गाँव में कुछ साल पहले की बात है अपनी युवावस्था में हमारी एक आजी कुछ दिन शहर में पति के साथ रही थी तो वहीं से जाने कैसे उन्हें उपन्यास पढ़ने की आदत लगी। वे खूब उपन्यास पढ़ती थीं और गाँव में खासकर सवर्णों के यहाँ ये चलन था कि कोई भी प्रौढ़ स्त्री बाजार की कोई भी चीज नहीं खाती पीती थी। आजी को गोलगप्पे खाना बेहद पसंद था। वह कभी-कभी बाज़ार से मंगवाकर गोलगप्पे खाती थीं जिसके लिए पूरे गाँव में उनकी खूब निंदा होती थी। बेहद शांत स्वभाव वाली आजी को उपन्यास पढ़ना और बाजार की एक चीज खाने के कारण वे गाँव भर में उपेक्षित थीं। गाँव में नयी उम्र युवा इस सुशिक्षित स्त्री का मज़ाक बनाकर कहते कि आजी के मरने पर रामचरित मानस की चौपाई की जगह उपन्यास पढा जाएगा और गंगाजल की जगह मुँह में गोलगप्पे का पानी डाला जाएगा। ये कैसा समाज जहाँ स्त्री के पढ़ने-लिखने का अनादर होता है और उसकी एक सामान्य सी इच्छा का भद्दा मजाक बनाया जाता।
माँ बनी स्त्री प्रेम नहीं कर सकती
समाज में सबसे ज्यादा विद्रुप रहा माँ का प्रेम अगर माँ बनी किसी स्त्री को प्रेम हो जाता है जो कि एक मनुष्य की मौलिक सी इच्छा है तो समाज के लिए उससे घृणित कोई जीव ही नहीं होता। युवाओं में खासकर बेटों में तो माँ के प्रेम के लिए अपार घृणा और हिंसा भरी है। अगर माँ अपने जीवन मे किसी से प्रेम कर रही है तो बेटों के लिए बहुत संगीन अपराध कर रही है। समकालीन कवि नेहा नरूका ने अपनी कविता में इस बात को बखूबी दर्ज किया है-
“पर एक रोज़ जब मैंने अपनी माँ को प्रेम करते हुए देखा तो मेरा मन घृणा से भर गया
उस दिन के बाद
माँ डरने लगी मुझसे
मैंने उसे सख़्त हिदायत दी
आइंदा से प्रेम न करे
ठीक उसी तरह जैसे पिता ने दी थी मुझे
जैसे उनको दी थी पुरखों ने
जैसे एक जाति ने दी थी दूसरी जाति को
जैसे एक शहर ने दी थी कुछ गाँवों को
जैसे एक राज्य ने दी थी
दूसरे राज्य को
जैसे सीमाओं ने थी दो देशों को
और सबने प्रेम करना बंद कर दिया
फिर धीरे-धीरे सब विष में बदलने लगे।”
आज जब माना जाता है और काफी हद तक सच भी है कि बाजार के प्रभाव से स्त्रियों के जीवन में काफी बदलाव आया है लेकिन स्त्रियों की बात करते हुए हमें ठहरकर वहां माँ की स्थिति को देखना समझना होगा क्योंकि बाजार माँओं को उनके पारंपरिक और सांस्कृतिक ढाँचे से नहीं निकालता बल्कि उनसे और ज्यादा पाने की उम्मीद करता है और अपनी इसी चाहत का महिमाण्डन करता है चूंकि समाज बाजार पर आश्रित है तो उसकी दृष्टि तो पहले से ही वही रही और बाजार ने उसे खूब सजा-बिजाकर परोसता है तो उसकी सदियों तक जड़ मानसिकता को बल मिलता है ।
दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र में अध्ययनरत अंशुमान से इस विषय पर बातचीत करते हुए मैंने पूछा कि माँओं के जीवन के अकेलेपन को लेकर क्या सोचते हो कि कैसे उनके बच्चे बाहर चले जाते हैं और वो उनके पीछे उदास सी अकेली रह जाती हैं। उन्होंने मुझसे प्रतिप्रश्न किया कि क्या माँए ही अकेली रह जाती हैं उनसे छूटे बच्चे भी तो अकेले हो जाते हैं लेकिन इस छूटने की दोनों क्रिया में भारी अंतर है। एक छूटकर दुनिया की भीड़ में शामिल हो जाता है उसके लिए नयी दुनिया खुलती है जहां नये सपने, नये लोग, नयी बहसें और दोस्तियों का संसार होता है और दूसरा एक घर-परिवार में अपनी भूमिका में उदास और अकेला होता है। समाज में माँ प्रचलित हमेशा एक वाक्य उसके साथ चलता है कि माँ आखिर माँ होती है और वो उस भूमिका में उलझी, खोयी रह जाती उसे उससे अलग स्पेस में देखने की समाज की आँखों में कूवत नहीं है और वो भी माँ की गरिमा में आजीवन खुद को लपेटती रहती है। जबकि होना ये चाहिए था कि माँ के माथे पर मढ़े इस वाक्य को “माँ आखिर माँ होती है”, को मिटाकर “माँ भी आखिर मनुष्य ही होती है, कब का लिख दिया जाना चाहिए था।