इंटरसेक्शनलजेंडर एक रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज में तलाकशुदा महिलाओं का संघर्ष

एक रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक समाज में तलाकशुदा महिलाओं का संघर्ष

पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में बहुत कम तलाक होता है। पिछले दशक में भारत में तलाक की दर और भी कम थी जहां 1000 शादियों में से केवल 7.40 विवाह में ही तलाक हुआ था। भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्र के मुकाबले तलाक लेने का चलन बहुत कम है।

“एक खराब शादी को छोड़ना ठीक है क्योंकि आप खुश रहना डिजर्व करते हैं और कभी भी कम पर समझौता न करें, अपने जीवन पर नियंत्रण करें और अपने बच्चों और अपना भविष्य बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी बदलाव करें। तलाक एक विफलता नहीं है। यह आपके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एक अहम मोड़ है। एक शादी से निकलकर अकेले खड़े होने के लिए बहुत साहस की आवश्यकता होती है इसलिए मेरी सभी बहादुर महिलाओं को इसे मैं समर्पित करती हूं।” बीते कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर तलाक के बाद अपनी तस्वीरों को साझा करते हुए कलाकर शालिनी ने ये शब्द लिखे थे। 

दरअसल भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में तलाकशुदा व्यक्ति ख़ासतौर पर महिलाओं को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता है। तलाकशुदा महिला की बेचारी,  दुखी, कमजोर जैसी भूमिका से अलग इन तस्वीरों पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। कुछ लोग इसे सराह रहे हैं तो कुछ जोर-शोर से इसका विरोध कर रहे हैं। तलाक के फोटोशूट को एक गलत चलन बता रहे हैं क्योंकि तलाक तो एक कलंक है। भारत में वैवाहिक बंधन को पवित्रता की उपाधि देकर महिलाओं से हर स्थिति में इस बंधन को निभाने पर जोर दिया जाता है। 

भारत में तलाक की स्थिति

भारतीय पितृसत्तात्क समाज में तलाकशुदा होना एक स्त्री के लिए ज्यादा बुरा माना जाता है। इसी झूठी शान की वजह से महिलाएं जीवनभर एक हिंसक रिश्ते में रहने पर मजबूर होती हैं। आंकड़ों के अनुसार भारत में 100 शादियों में से केवल एक शादी तलाक की वजह से खत्म होती है। पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में बहुत कम तलाक होता है। पिछले दशक में भारत में तलाक की दर और भी कम थी जहां 1000 शादियों में से केवल 7.40 विवाह में ही तलाक हुआ था। भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्र के मुकाबले तलाक लेने का चलन बहुत कम है। संयुक्त राष्ट्र महिला की फैमिलीज़ इन ए चेंजिंग वर्ल्ड रिपोर्ट के अनुसार भारत में दुनिया की सबसे कम तलाक लेने की दर है। केवल 1.1 फीसदी महिलाओं ने तलाक लिया है।

संस्कृति और नैतिकता की दुहाई देने वाले हमारे समाज में तलाक को धब्बा और बुराई की तरह से देखा जाता है, भले ही शादी का रिश्ता कितना ही हिंसक हो। यहां तलाक के मामलों की दर भले ही कम हो लेकिन शादी के रिश्ते में हिंसा, आत्महत्या के मामलों में कोई कमी नहीं है। नैशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड्स इन इंडिया 2021 की रिपोर्ट के अनुसार शादी के रिश्ते में समस्याओं के चलते 2016 और 2020 के बीच लगभग 37,000 सुसाइड किया था। इसमें से सात फीसदी मामले तलाक के थे। द प्रिंट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार आंकड़े के अनुसार वैवाहिक रिश्तों में आत्महत्या से मौत के मामलों में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले ज्यादा हैं। 

मुज़फ़्फ़रनगर जिले के एक गाँव में रहने वाली साक्षी (बदला हुआ नाम) का शादी में अलगाव होने पर कहना है “बीते दो साल से मैं किस दौर हूं मुझे शब्दों में कहना भी नहीं आ रहा है। आज खुद को समझा कर मेहनत करके अपना काम कर रही हूं लेकिन तब लगता था कि किस अंधेरे में हूं। समझ नहीं आता था कि जाना कहां है। एक खराब जगह से निकल कर मुझे दोबारा यहां अपने गाँव कभी भी वापस नहीं आना था लेकिन दूसरा विकल्प नहीं था।

शादी के रिश्ते में असमानता, हिंसा के बावजूद बने रहने का सामाजिक दबाव रहता है जिस वजह से महिलाएं एक खराब रिश्ते से बाहर निकलने में हिचकती है। इसका एक कारण यह है कि लोग तलाकशुदा महिलाएं के साथ बुरा व्यवहार करते है। उसके निजी स्वायत्ता को नष्ट कर उसका चरित्र विश्लेषण तक किया जाता है। ख़ासतौर पर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में यह स्थिति और भी प्रताड़ित करने वाली बन जाती है। तलाक के बाद उनके आत्मनिर्भर बनने को भी बुरी नज़र से देखा जाता है उनपर सार्वजनिक तौर पर टीका-टिप्पणी की जाती है।

“तलाक हो गया, बेचारी के साथ बहुत बुरा हुआ”

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ की रहने वाली प्रिया (बदला हुआ नाम) एक टीचर हैं। उन्होंने लव मैरिज की थी और ग्यारह साल शादी के रिश्ते के बाद उनका तलाक हुआ था। शादी के लंबे समय बाद उनको एक दिन अचानक से घर से निकाल दिया गया था और हाथ में तलाक के कागज़ थमा दिए गए थे। बीते समय को याद करते हुए उनका कहना है, “मैं क्या थी और क्या हो गई थी मुझे नहीं पता। आर्थिक तौर पर सक्षम और पढ़ी-लिखी होने के बावजूद में भीख मांग रही थी कि मुझे घर से मत निकालो। इसका कारण सिर्फ एक था कि लोग क्या कहेंगे। मुझे बरसों लग गए ये बात समझने में की तलाक होना बुरा नहीं है। हमारे केस में महज बच्चा न होने की वजह से मुझे तलाक दे दिया गया था। इस पूरी घटना का मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा था। लंबे समय तक मेरे दिमाग में सिर्फ तलाक शब्द ही घूमता रहता था।”

उनका आगे कहना है, “सच कहूं तो ये जो स्ट्र्क्चर है ना हमारी सोसायटी का उसका मेरे ऊपर बहुत असर पड़ा है। एक अकेली तलाकशुदा महिला के तमाम आर्थिक रूप से संपन्न होने के बावजूद भावनात्क तौर पर उसे कमजोर कर दिया जाता है। लोगों की नज़रों में सवाल होते हैं, कही घर देखने जाएं तो वे परिवार के बारे में पूछते हैं, अगर साफ-साफ बता दे तो मना कर दिया जाता है तो कही दया की दृष्टि से देखा जाता है और कहा जाता है बेचारी के साथ बहुत बुरा हुआ। मेरे मामले में दरअसल तलाक मेरी च्वाइस नहीं था तो मैं हर हाल में रिश्ते को बचाने में लगी रही थी लेकिन आज बहुत समय बीतने के बाद अब सुकून होता है। अब मैं ज्यादा सोचती नहीं हूं, हां इतना कह सकती हूं सोसायटी ने स्पेस नहीं दिया इस वजह से मैंने भी अपना दायरा बहुत सीमित कर लिया है।” 

तलाक के बाद समाज का रवैया उससे भी ज्यादा खराब

मुज़फ़्फ़रनगर जिले के एक गाँव में रहने वाली साक्षी (बदला हुआ नाम) का शादी में अलगाव होने पर कहना है “बीते दो साल से मैं किस दौर हूं मुझे शब्दों में कहना भी नहीं आ रहा है। आज खुद को समझा कर मेहनत करके अपना काम कर रही हूं लेकिन तब लगता था कि किस अंधेरे में हूं। समझ नहीं आता था कि जाना कहां है। एक खराब जगह से निकल कर मुझे दोबारा यहां अपने गाँव कभी भी वापस नहीं आना था लेकिन दूसरा विकल्प नहीं था। यहां जो सवाल पूछे जाते हैं मुझे उनका सामना नहीं करना था। सच कहूं तो इन सब चीजों से तो मैं आज भी भाग रही हूं। यहीं वजह है कि खुद को इतना बिजी रखती हूं कि फुर्सत न मिले किसी से मिलने की। मैंने निजी तौर पर भले ही अपने खराब रिश्तों से बाहर निकलने का फैसला ले लिया हो लेकिन हमारा परिवार, रिश्तेदार और समाज ये नहीं देखता है कि हम सह क्या रहे थे। उनके लिए बस लड़की का घर ससुराल ही होता है। मैं हिम्मत के सहारे खुद को आगे धकेलते रहती हूं कि एक दिन बेहतर होगा। मुझे बदलना है लेकिन आसपास का माहौल सकारात्मक हो तो यह भी बहुत मायने रखता है, क्योंकि यहां तलाक होना या लड़की का अपने ससुराल न जाना बहुत गलत माना जाता है। कभी-कभी तो लगता है कि खराब रिश्ते में रहना जितना दर्दनाक था उससे बाहर निकलकर समाज का सामना करना तो उससे भी ज्यादा तकलीफदेह है।” 

तलाकशुदा लड़की और शादी…नहीं!

वर्तमान में मुंबई रहने वाली सरकारी कर्मचारी पिंकी (बदला हुआ नाम) का कहना है, “हमारी सोसायटी में तलाक को जितना खराब माना जाता है उससे भी ज्यादा तलाकशुदा लड़की की दोबारा शादी करने की इच्छा को बुरा माना जाता है। भले ही हमारे पास बतौर नागरिक कितने ही अधिकार हो लेकिन समाज और रिश्तों में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। यही वजह है कि मैंने अपने शादी के रिश्तें में हिंसा सहना सही माना था। मेरा परिवार ने मेरे सामने विकल्प रखा था नहीं तो मैं इस सोसायटी की वजह से एक खराब रिश्ते से जुड़ी रहती। समय गुजर गया है लेकिन टूटे रिश्ते के अतीत से मुझे मेरे आसपास के लोगों ने छूटने नहीं दिया है। आगे किसी दूसरे रिश्ते में जाने के लिए अगर में कोई सतर्कता बरतती हूं तो मुझे जज किया जाता है। तलाकशुदा, अकेले इंसान को हमारी सोसायटी और रिश्तों दोनों जगह बहुत ही असहज करने वाली नज़रों से देखा जाता है। लोग दबी जबान पर हमारे बारे में बात करते हैं बस बातें करते हुए ये भूल जाते हैं कि जिस शादी को खत्म किया है उसकी वजह हिंसा, मारपीट, शक था।” 

भारत में तलाक का कानून और हाल में अदालत का आदेश

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार 1950 के दशक में संसद में हिंदू कोड बिल पारित हुआ था जिसमें महिलाओं को संपत्ति का अधिकार, बहु विवाह पर रोक और तलाक मांगने का अधिकार दिया था। एक वेबसाइट में प्रकाशित जानकारी के अनुसार इंडियन डायवोर्स ऐक्ट भारतीय कानून प्रणाली में 1869 में ड्रॉफ्ट कर दिया था। हिंदू मैरिज ऐक्ट, 1955 के तहत तलाक का कानून लागू किया गया। 1976 में इस कानून में संशोधन किया गया और पति-पत्नी के बीच सहमति से तलाक की अनुमति दी गई। इसके अलावा अलग-अलग धर्मों के मैरिज ऐक्ट में तलाक का प्रावधान है। 

“मैं क्या थी और क्या हो गई थी मुझे नहीं पता। आर्थिक तौर पर सक्षम और पढ़ी-लिखी होने के बावजूद में भीख मांग रही थी कि मुझे घर से मत निकालो। इसका कारण सिर्फ एक था कि लोग क्या कहेंगे। मुझे बरसों लग गए ये बात समझने में की तलाक होना बुरा नहीं है।”

तमाम कानूनी अधिकारों के बावजूद भारत में तलाक को लेकर सकीर्णता है। तलाकशुदा व्यक्ति को इस वजह से अपमानित होना पड़ता है। उसे आरोप, आलोचना का सामना करना पड़ता है। साथ ही लंबी कानूनी प्रक्रिया की वजह से भी लोगों को तनाव का सामना करना पड़ता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से एक अहम फैसला आया है कि तलाक लेने के लिए छह महीने का इंतजार ज़रूरी नहीं है।

इंडियन एक्सप्रेस में छपी ख़बर के अनुसार शादी के रिश्ते में सुलह न होने की सूरत में कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए अनुच्छेद 32 के तहत तलाक की मंजूरी दे सकता है। अदालत ने यह फैसला उस फैसले में सुनाया है जहां पति-पत्नि केवल चार साल साथ रहे हैं और 25 सालों से अलग रह रहे थे। तलाक के मामले में अदालत का यह एक अहम फैसला है जो कानूनी प्रक्रिया की जटिलता से बचाने का काम करता है। लेकिन वहीं कई मामलों में अदालत के फैसले पितृसत्तात्मक सोच से रचे-बसे होते है जहां तलाक लेने को समाज के ढ़ांचे के ख़िलाफ़ बताया जाता है। 

भारतीय समाज में तलाक को लेकर जिस तरह का रवैया है वहां सोशल मीडिया पर तलाक के बाद स्त्री की चहकती और आत्मविश्वास से भरी तस्वीरें और शब्द दोनों रूढ़िवादी सोच रखने वाले लोगों के लिए असहज करने वाले है। तलाक को विशेषरूप से महिलाओं के लिए दर्द, शर्म, पीड़ा से जोड़ा जाता है। तलाकशुदा महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे निर्भर और असहाय वाला व्यवहार करे और खुद को घर में कैद कर लें। लेकिन आज की महिलाएं संघर्ष, खुशी और चयन के अधिकार का इस्तेमाल कर आगे बढ़ रही हैं।


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