समाज में प्रचलित गालियों की उत्पत्ति का प्रश्न अगर मनोवैज्ञानिक चेतना से खोजा जाए तो पता चलता है कि यौन संबंधों को लेकर समाज में जो घृणा है ये स्त्रीजनित गालियां उसी घृणा की एक प्रस्तुति भर हैं। समाज में उसकी सारी घृणाओं के लिए गालियां हैं। हमारे समाज में स्त्रीजनित गालियों के लिए कानूनी प्रावधान जो हैं भी वे उतना सशक्त नहीं हैं।
स्त्रीजनित गालियों को लेकर हमारे समाज में जैसे लोगों में होड़ रहती है कि कौन कितनी अधिक अश्लील स्त्रीजनित गालियां दे सकता है। समाज में लोगों की बातचीत के दौरान आमतौर पर पुरुषों द्वारा दी जाने वाली मां-बहन की गालियों का खूब चलन है। अगर लोक समाज को देखें तो वहां बात-बात में जाति के नाम पर गालियां और औरतों को गालियां देने का खूब चलन है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के प्रति बनी इन गालियों के प्रति बहुत ही ढीला रवैया अपनाते हैं।
आजकल बन रही वेबसीरीज, फिल्मों और कुछ साहित्य में भी खूब गालियों का प्रयोग होता है। सारी की सारी गालियां स्त्रीजनित होती हैं। इनमें जिन गालियों का प्रयोग हो रहा है वह एक सभ्य समाज की अवधारणा की दृष्टि से अराजक चलन है। इन जगहों पर आकर ये स्त्रीजनित गलियां अजर-अमर हो रही हैं। एकतरह से यह कहा जा सकता है इन माध्यमों के प्रयोग से गालियां स्मृतियों में दर्ज हो रही हैं। एक समाज जो पहले ही न जाने कितने स्त्रीजनित अपराधों में लिप्त है इन गालियां के स्मृतियों में बचे रह जाने से ऐसे अपराधों की समाज में स्वीकार्यता बढ़ती है।
इसी क्रम में मुझे एक यात्रा के दौरान घटित प्रसंग याद आता है। मैं बस में बैठकर आजमगढ़ जा रही थी। मैं बस में थोड़ा सा पीछे बैठी थी। ड्राइवर की सीट के बगलवाली सीट पर एक वरिष्ठ उम्र की महिला बैठी थीं। कुछ एक लड़कियां और बच्चे भी बैठे थे। ड्राइवर किसी से बात करते हुए लगातार गालियां दिये जा रहा था। यूं ही बात-बेबात गालियां दे रहा था और सामने बैठी स्त्रियों को देखकर कंडक्टर आदि से मजाक करते हुए अनायास गाली देकर बात करता। उसकी सारी की सारी गालियां स्त्रीजनित गालियां थीं। बस में सामने बैठी स्त्रियां झेंप रही थीं लेकिन चुप थीं। मैं यह दृश्य देख रही थी मन ही मन खीझ रही थी तभी मेरी निगाह बस में अपने सामने ही लगे शिकायत बॉक्स पर गयी।
शिकायत बॉक्स को देखकर मेरे मन में ड्राइवर की शिकायत करने का खयाल आया। मैंने कंडक्टर को बुलाकर पूछा ड्राइवर का क्या नाम है? उसने नाम बताया लेकिन बार-बार पूछने लगा कि नाम क्यों पूछ रही हैं ड्राइवर का। मेरा मन रोष से भरा था। मैंने कहा कि आपका ड्राइवर गालीबाज है। कंडक्टर ने माफी मांगते हुए कहा कि कृपया शिकायत न कीजिए। बस ड्राइवर की नौकरी के बस छह महीने बचे हैं, शिकायत करने से उनका बहुत नुकसान हो जाएगा। मैं दृढ़ थी अपनी बात को लेकर कि इस तरह सार्वजनिक जगह पर स्त्रीजनित गालियां अपराध है। अब कंडक्टर के साथ बस के ज्यादातर पुरुष यात्री ड्राइवर का बचाव करने लगे कि गाली तो हर जगह के लोग देते हैं।
कुछ पढ़े-लिखे आधुनिक नौजवानों को देखकर मुझे अचरज हुआ वे मुझे दलील देने लगे कि दिल्ली जैसे महानगरों में सब पढ़े-लिखे युवा स्त्रीजनित गाली देकर आपस में बात करते हैं। मैंने कहा इसलिए करते होंगे क्योंकि आसपास के लोग विरोध नहीं करते होंगे गालियों का। अगर कोई समाज गाली को सही मान रहा है तो ये उनका दोष है। ख़ैर इसतरह की तमाम दलील बस में बैठे पुरुष यात्री मुझे देते रहे गाली को लेकर। उनका कहना था कि गालियां देकर ड्राइवर ने कोई अपराध नहीं किया। अंत में कंडक्टर ने मुझसे कहा, “6 महीने की नौकरी बची है ड्राइवर की कृपया आप शिकायत न कीजिए मैं उन्हें समझा लूंगा कि वह अब से बस में गालियां नहीं दें।” इसके बाद पता नहीं ड्राइवर में सुधार हुआ कि नहीं उस समय सबके आश्वासन पर मैंने शिकायत नहीं की थी।
एक समाज जहां स्त्रियों के साथ रोज कितने बलात्कार और यौन अपराध होते रहते हैं वहां इस तरह की गलियां समाज में और गलत परिवेश बनाती हैं। सामाजिक परिवेश की लगतार बढ़ती दुर्दशा और संवेदनात्मक स्तर के लगातार गिरने में गाली जैसे अपराध की भी बड़ी भूमिका है। एक शर्मनाक व्यवहार को अगर कोई समाज इतनी सहजता से मान्यता देता है तो निश्चित ही उसकी संरचना पर संदेह जाता है।
मिड डे मील योजना में कार्यरत यशोदा देवी कहती हैं, “स्कूल के कार्यस्थल पर पुरुष कर्मचारी गाली देकर बात करते हैं। हम स्त्रियों को तो छोड़ो, वे बच्चियों का कोई लिहाज नहीं करते जबकि बच्चियां उनकी गालियां सुनकर झेंप जाती हैं।” ग्रामीण कॉलेजों में पढ़ने जाती बच्चियों से इस विषय पर बात करने पर देखा कि इस तरह के अपराध की भयावह घटनाएं दर्ज हैं उनके मन में, जिसके बारे में वे कभी घर-परिवार में नहीं कहतीं।
स्नातक प्रथम वर्ष में पढ़ती दिव्या कहती हैं, “राह चलते पुरुष लड़कियों को देखकर आपस में गालियां देकर हंसने लगते हैं। बाजार के चौराहे की किसी दुकान के आसपास खड़े लोग लड़कियों को देखते ही किसी बहाने से अश्लील गालियां देते हैं। आम तौर पर लोग इस पर न ध्यान देते हैं न इसे अपराध मानते हैं लेकिन बच्चियों के लिए ये झेलना बेहद कठिन और घृणित लगता है। यही कुंठित मानसिकता के गालीबाज लोग होते हैं जो राह चलती लड़कियों की छातियों पर हाथ मारते हैं।”
माना जाता है कि लोक में गालियों का चलन बहुत स्वाभाविक तौर पर है लेकिन जब वहां की पृष्ठभूमि का अध्ययन होता है तो बड़ा अंतर्विरोध भी दिखता है। जैसे ब्याह शादियों के अवसरों पर स्त्रियां जो गालियां देती हैं वे कॉमिक विधा में होती हैं। हालांकि, गालियां ज्यादातर स्त्रीजनित ही होती हैं लेकिन वहां पर कई सामाजिक विद्रूपताओं के लिए आईना भी होता है। उन गालियों में सामाजिक बुराइयों पर खूब प्रहार भी होता है लेकिन यह जरूर होता है कि उन गालियों का अभ्यस्त पुरुष समाज उसे भी एक आनंद के रूप में देखता है। यह भी हो सकता है कि गालियों का आदिम दावेदार वे खुद को मानते हैं।
यह सच भी है कि इन अश्लील स्त्रीजनित गालियों के आविष्कारक वे स्वयं हैं तो गाली देती स्त्रियों को वे महज अपनी अनुगामिनी मानकर उनकी दी हुई गलियों से आनंदित होते रहते हैं। इसके पीछे चाहे जो मनोविज्ञान हो लेकिन स्त्रियों की दी हुई उन गालियों से कभी कोई पुरुष आहत नहीं दिखाई देता है। गाँव-घर ,कस्बे या मुहल्ले में कहीं कोई विवाद-झगड़ा चल रहा है तो वहां के शोर में हिंसा पर जितना जोर होता है उससे कहीं अधिक स्त्रीजनित गालियों की मनोविकृती चरम पर दिखती है।
मिड डे मील योजना में कार्यरत यशोदा देवी कहती हैं, “स्कूल के कार्यस्थल पर पुरुष कर्मचारी गाली देकर बात करते हैं। हम स्त्रियों को तो छोड़ो, वे बच्चियों का कोई लिहाज नहीं करते जबकि बच्चियां उनकी गालियां सुनकर झेंप जाती हैं।”
आठवीं क्लास में पढ़ती एक बच्ची आशा (बदला हुआ नाम) का स्त्रीजनित गालियों को लेकर जो अनुभव है वह बेहद खराब है और उसका बालमन पर बहुत गहरा असर दिखता है। वह बताती हैं कि उनके माता-पिता में जब किसी बात पर बहस शुरू होती है तो पिता झट से माँ को अश्लील गालियां देने लगते हैं। यह आमतौर पर भारतीय परिवारों का चलन है जैसे यह हिंसा और गालियां घर की भीतरी दीवारों में छप जाती हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी ये अन्याय स्त्रियों के साथ चलता रहता है। आशा अभी छोटी हैं तो थोड़ा संकुचाते हुए कहती हैं, “जब तक पापा मम्मी को गाली देते हैं तब तक वह बहुत ज्यादा गुस्से में नहीं आती लेकिन जब पापा मम्मी की माँ को गालियां देने लगते हैं तब मम्मी बहुत गुस्से में आ जाती हैं और वहीं गालियां दोहराने लगती हैं तब पापा मम्मी को पीट देते हैं।”
घरों में घट रहीं इस तरह की घटनाओं की पड़ताल की जाए तो लगता है कि गाली को भी पुरुष स्त्री के लिए अपने एक हिंसक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है। कहीं-कहीं स्त्रियां इसका विरोध करते हुए दिखती हैं, कहीं-कहीं कोई प्रतिरोध नहीं दिखता। इसी प्रतिरोध न होने के कारण ही पुरुष समाज गालियों को लेकर इतना सहज और मनबढ़ भी हुआ है। यह एक बहुत बड़ा कारण है समाज में इन गालियों के प्रचलन का वह है यौनिक हिंसा को एक पुरुषार्थ की तरह देखना। यौन संबंधों को लेकर समाज में इतनी कुंठा और घृणा भरी है कि ये स्त्रीजनित गालियां उसी के प्रतिफलन में जन्मी हैं और समाज को फलती भी हैं।