समाजकानून और नीति भारतीय अदालतों के फै़सलों का ‘मनुवादी’ चेहरा!

भारतीय अदालतों के फै़सलों का ‘मनुवादी’ चेहरा!

गुजरात हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनावाई के दौरान मनुस्मृति का हवाला देते हुए कहा है कि अतीत में लड़कियों की शादी 14 से 16 साल की उम्र में कर दी जाती थी और 17 साल की उम्र में वह कम से कम एक बच्चे की माँ बन जाती थी।

मनुस्मृति पढ़े, लड़कियां 17 साल की उम्र में देती थी बच्चे को जन्म, हमारे शास्त्रों ख़ासकर मनुस्मृति में महिलाओं को बहुत सम्मान दिया गया है, बलात्कार सर्वाइवर मांगलिक है या नहीं इसकी जांच हो फिर आगे होगी कार्रवाई, बलात्कार पवित्र शरीर और देश की आत्मा के ख़िलाफ़ है, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं की रोक, पिता रक्षा करने वाला होता है, यह अदालत आरोपी को यौन हिंसा सर्वाइवर से शादी करने का आदेश देती है यह सब बातें समय-समय भारतीय अदालतों के परिसर में न्यायाधीशों द्वारा कही गई हैं।

समय-समय पर अपने निर्णयों में स्वर्ग, नरक, आत्मा और आध्यात्मिकता की अवधारणों को शामिल करना भारतीय न्यायिक प्रणाली की यह सोच ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मूल्यों को दर्शाती है जो भारतीय संविधान के स्वतंत्रता, समानता और स्वायत्ता के मूल्यों के विपरीत है। दक्षिणपंथी विचारधारा से पस्त न्यायिक फैसले न केवल संविधान की अवहेलना है बल्कि लोगों में न्याय की उम्मीद को कमजोर करने का काम करते हैं।

हाल ही में गुजरात हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनावाई के दौरान मनुस्मृति का हवाला देते हुए कहा है कि अतीत में लड़कियों की शादी 14 से 16 साल की उम्र में कर दी जाती थी और 17 साल की उम्र में वह कम से कम एक बच्चे की माँ बन जाती थी। स्क्रोल.इन में छपी ख़बर के अनुसार एक पिता ने नाबालिग बलात्कार सर्वाइवर के 7 महीने से अधिक के गर्भवस्था को खत्म करने से जुड़ी याचिका गुजरात हाई कोर्ट में दायर की थी। इस पर सिंगल बेंच जज जस्टिस समीर दवे का कहना है, “लड़कियां, लड़को के मुकाबले जल्दी समझदार हो जाती हैं, 4-5 महीने इधर-उधर हो जाने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। यह मनुस्मृति में है, मुझे पता है आप इसे नहीं पढ़ेंगे, फिर भी एक पढ़ लें।” बलात्कार सर्वाइवर के मामले पर अदालत की यह टिप्पणी असंवेदशील तो है ही साथ ही भारतीय न्यायिक प्रणाली के लिए चिंता का विषय भी है।

1950 से लेकर 2019 तक सुप्रीम कोर्ट और अन्य हाई कोर्ट के द्वारा 38 बार मनुस्मृति का इस्तेमाल किया गया है। जिनमें से 26 (लगभग 70 फीसद) 2009 से 2019 के बीच किया गया है। यह बढोत्तरी उस समय दर्ज की गई है जब हिंदुवादी राजनीति का ज्यादा जोर रहा है।

अदालत के फैसलों में धार्मिक ग्रंथों का उद्धरण

यौन हिंसा, पारिवारिक विवाद, विरासत और हिंदू अधिकारों से जुड़े मामलों की सुनवाई करते हुए अदालतों का मनुस्मृति को उद्धरण करना करना काफी चलन में आ गया है। इस तरह के मामलों में सुनवाई करते हुए अदालतें ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक उन मूल्यों को शामिल करती है जिससे तंग होकर ही लोग न्याय के लिए अदालत का रूख करते हैं। अदालतें लगातार हिंदुवादी ग्रंथों को अपने फैसले में शामिल करती दिख रही है। धार्मिक ग्रंथों के हवाले से न्यायपालिका का बात कहने का यह जो चलन बढ़ रहा है यह संविधान के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ जाता है।

एक के एक बाद अदालतों के फैसलों में ब्राह्मणवादी रूढ़िवादी सोच को जाहिर करते दिख रहे हैं। बीते महीने इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक आदेश में बलात्कार सर्वाइवर की कुंडली जांच को कहा है। लखनऊ बेंच के जस्टिस बृज राज सिंह ने लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग को सर्वाइवर की कुंडली जांच करने में यह बताने का आदेश दिया था कि वह मांगलिक है या नहीं। दरअसल यह बेंच बलात्कार के मामले में आरोपी द्वारा जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें लड़की ने शिकायत दर्ज की थी कि आरोपी ने शादी का वादा करके उसके साथ यौन संबंध बनाए और बाद में शादी से यह कह कर मना कर दिया कि वह मांगलिक है। इस पर अदालत ने विश्व विद्यालय को लड़की की कुंडली की जांज करने का आदेश दिया था। हालांकि तीन जून 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने रेप सर्वाइवर की कुंडली की जांच के आदेश पर रोक लगा दी। 

मनुस्मृति महिलाओं को सम्मान देता हैः जस्टिस प्रतिभा सिंह

बार एंड बेंच की ख़बर के अनुसार बीते वर्ष दिल्ली हाईकोर्ट की जज प्रतिभा एम सिंह ने एक सभा में कहा था, “अगर कोई महिलाओं का सम्मान नहीं करता है, तो उसकी प्रार्थना का कोई मतलब नहीं है। आगे उन्होंने कहा, “मुझे वास्तव में लगता है कि हमारे देश की औरतें धन्य हैं और इसका कारण यह है कि हमारे शास्त्रों ने हमेशा महिलाओं को बहुत सम्मान दिया है, जैसे कि मनुस्मृति में ही कहा गया है कि यदि आप महिलाओं की इज्जत नहीं करते हैं, तो आपका सारा पूजा-पाठ बेकार है। इसलिए मुझे लगता है कि हमारे पूर्वजों और वैदिक शास्त्रों को अच्छी तरह से पता था कि महिलाओं का सम्मान कैसे किया जाता है।”

उन्होंने आगे कहा, “मैं बता सकती हुई कि एशियाई देश घरों में, कार्यालयों, समाज और सामान्य तौर पर भी महिलाओं को इज्जत देने में कहीं आगे हैं और मेरे ख्याल से ऐसा हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि की वजह से है।” उन्होंने कामकाजी महिलाओं को संयुक्त परिवारों में रहने की सलाह दी थी ताकि उन्हें अपने करिअर के लिए ज्यादा सहयोग’ मिल सके।

तलाक के कई मामलों में दालतों में बेहद असंवेदनशील बयान दिये गए हैं जैसे एक पत्नी को उद्देश्य में मंत्री, कर्तव्य में दासी, दिखने में लक्ष्मी, धैर्य में पृथ्वी, प्यार में माँ और बिस्तर में वेश्या होना चाहिए। काउंटर करेंट.कॉम में छपे एक लेख के अनुसार 1950 से लेकर 2019 तक सुप्रीम कोर्ट और अन्य हाई कोर्ट के द्वारा 38 बार मनुस्मृति का इस्तेमाल किया गया है। जिनमें से 26 (लगभग 70 फीसद) 2009 से 2019 के बीच किया गया है। यह बढोत्तरी उस समय दर्ज की गई है जब हिंदुवादी राजनीति का ज्यादा जोर रहा है। साल 1989 से 2019 के बीच सुप्रीम कोर्ट ने 7 बार अपने फैसले लेने में मनुस्मृति का इस्तेमाल किया है। इससे अलग बॉम्बे, मद्रास, इलाहबाद हाई कोर्ट ने बहुत बार मनुस्मृति का ज़िक्र किया है।   

अदालत में मनुस्मृति श्लोक का इस्तेमाल

साल 2014-15 के बाद से अदालतों का मनुस्मृति के उपयोग करना एक पैटर्न सैट की तरह ठीक हो गया है। पत्नी को 800 रूपये प्रति माह रखरखाव पाने के अधिकार को बनाए रखने के लिए जज ने पितृसत्ता का महिमंडन करने के रूप में मनुस्मृति की व्याख्या किया। मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण का अधिकार है लेकिन कर्नाटक हाई कोर्ट का मनुस्मृति के श्लोक को उल्लेखित करना तो और भी खतरनाक रवायत का विस्तार करता है।

मेहरुन्निसा बनाम सैय्यद हबीब (2014) के मामले में, कर्नाटक हाई कोर्ट ने अपना फैसला इस प्रकार दिया था। “मुझे लगता है कि इस फैसले को शुरू करने से पहले मनुस्मृति को उद्धृत करना उचित है, जिसे अक्सर महिलाओं की सुरक्षा के संदर्भ में संदर्भित किया जाता है, जिसकी जाति, नस्ल, रंग और धर्म के विषय में बड़े सम्मान के साथ प्रंशसा की जाती हैः ‘पिता रक्षति कौमार्य, भरत रक्षति यौवने, पुत्रा रक्षति वृद्धपये, न स्त्री स्वातंत्र्मय अर्हथि’।” यह फैसला भारत के संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष न्यापालिका द्वारा हिंदू धर्म के ग्रंथ को अल्पसंख्यक धर्मों के लोगों से जुड़े मामले में इस्तेमाल करने वाली बाधा को भी पार करने का काम करता है।

बीते महीने इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक आदेश में बलात्कार सर्वाइवर की कुंडली जांच को कहा है। लखनऊ बेंच के जस्टिस बृज राज सिंह ने लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग को सर्वाइवर की कुंडली जांच करने में यह बताने का आदेश दिया था कि वह मांगलिक है या नहीं।

भारतीय न्यायपालिका में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों द्वारा मनुस्मृति को इस्तेामल करने का यह चलन न्याय पाने के लिए एक बाधा है जो भारतीय संविधान के तहत एक आम नागरिक को मिलती है। साथ ही मनुस्मृति ग्रंथ को संदर्भित करना संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का उल्लंघन है। क्योंकि मनुस्मृति के अनुसार महिलाओं को घर में रहना चाहिए। महिला और दलितों के साथ एक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। महिलाएं केवल बच्चों को जन्म देने और उसके पालन-पोषण का काम करना चाहिए। उन्हें पुरुषों के अधीन रहना चाहिए और घर की चाहरदीवारी के भीतर रहना महिलाओं का कर्तव्य हैं। 

न्यायपालिका न केवल नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है बल्कि यह संविधान का भी संरक्षक है। आज अदालतों में जिस ग्रंथ का उल्लेख किया जा रहा है इसमें पहले हमें यह याद करना भी ज़रूरी है कि कि संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने खुले तौर पर मनुस्मृति जलाई थी और इसे भेदभाव और गै़र बराबरी की किताब बताया था। लेकिन न्यायापालिका का यह दौर इस रूढ़िवादी ग्रंथ को अपने फैसलों में इस्तेमाल कर रहा है। 

जज प्रतिभा एम सिंह ने एक सभा में कहा था, “अगर कोई महिलाओं का सम्मान नहीं करता है, तो उसकी प्रार्थना का कोई मतलब नहीं है। आगे उन्होंने कहा, “मुझे वास्तव में लगता है कि हमारे देश की औरतें धन्य हैं और इसका कारण यह है कि हमारे शास्त्रों ने हमेशा महिलाओं को बहुत सम्मान दिया है, जैसे कि मनुस्मृति में ही कहा गया है कि यदि आप महिलाओं की इज्जत नहीं करते हैं, तो आपका सारा पूजा-पाठ बेकार है।

राजस्थान हाई कोर्ट में पिछले 29 सालों से एक याचिका लंबित है। यह याचिका हाई कोर्ट से ही जुड़ी है लेकिन फिर भी तीन दशके से इस पर कोई फैसला नहीं लिया गया है। राजस्थान हाई कोर्ट के जयपुर परिसर में मनु की मूर्ति को हटाने की इस याचिका पर सुनवाई करने वाला कोई जज नहीं आया है। मूर्ति की स्थापना के बाद लगभग एक बाद ही हाई कोर्ट से मूर्ति हटाने का  प्रशासनिक आदेश जारी कर दिया गया था लेकिन विश्व हिंदू परिषद की ओर से इस फैसले पर चुनौती देकर अस्थायी रोक लगा दी गई थी। लाइव लॉ की फरवरी 2023 की ख़बर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान उच्च न्यायालय से मनु की मूर्ति हटाने से जुड़ी याचिका को खारिज कर दिया था। इसी तरह हिंदूवादी संगठन न्यायलय परिसर में भगवा झंडा फहरा रहे है और न्यायपालिका को हिंदूकरण करनी की मांग करते नज़र आते हैं। 

हमें ध्यान रखना चाहिए कि मनु अन्याय का प्रतीक है। ऐसे में मनुस्मृति का उल्लेख और मनु की मूर्ति का बचाव एक विभाजित राष्ट्र का निर्माण करना है जिसमें सभी लिंग, जाति, वर्ग के लोगों के लिए समानता नहीं है। इसलिए न्याय प्रणाली से मनुवाद सोच को स्थापित करने वाले प्रयासों का तुरंत ही सतर्क होकर प्रतिरोध करना चाहिए क्योंकि ब्राह्मणवादी मूल्यों को हावी होना संविधान पर संकट आना है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content