समाजकानून और नीति शादी पर केरल हाई कोर्ट की टिप्पणी रूढ़िवादी सोच का करती है प्रदर्शन

शादी पर केरल हाई कोर्ट की टिप्पणी रूढ़िवादी सोच का करती है प्रदर्शन

पीठ ने कहा है, ‘कानून और धर्म दोंनो ही शादी को एक संस्था के रूप में माना जाता है। शादी के बाद किसी भी रिश्ते को एकतरफा नहीं छोड़ा जा सकता है, जब तक वे कानूनी तौर पर प्रॉसेस पूरा न हो। पति और पत्नी दोंनो की सहमति के बाद ही रिश्ते को खत्म किया जा सकता है।

केरल हाई कोर्ट ने बीते हफ्ते तलाक की एक याचिक को खारिज करते हुए कहा है कि युवा पीढ़ी शादी के रिश्ते में ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ वाली उपभोक्तावादी सोच से ग्रस्त है। इन दिनों युवा पीढ़ी सोचती है कि शादी दायित्वों का बोझ लादती है। द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के अनुसार अदालत ने टिप्पणी की है कि युवा पीढ़ी शादी को एक ऐसी बुराई के रूप में देखती है, जिसे बिना ज़िम्मेदारी के आज़ादी वाले जीवन का आनंद लेने के लिए टाला जाना चाहिए।’     

जस्टिस मोहम्मद मुस्ताक और सोफी थॉमस की बेंच ने कहा, “युवा ‘वाइफ’ शब्द की पुरानी व्याख्या ‘वाइज़ इनवेस्टमेंट फॉर एवर’ से अलग ‘वरि इनवाइटेड फॉर  एवर’ के तौर पर परिभाषित करते हैं। युवा शादी के रिश्ते में उपभोक्तावादी संस्कृति ‘इस्तेमाल करो फेंक दो’ वाली ‘यूज एंड थ्रो’ को फॉलो कर रहे हैं। लिव इन रिलेशनशिप के मामले बढ़ रहे हैं, ताकि अलग होने पर आसानी से अलविदा कहा जा सके।”

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अदालत ने यह आदेश अलाप्पुझा के फैमिली कोर्ट के एक 34 वर्षीय व्यक्ति द्वारा पारिवारिक अदालत द्वारा तलाक की याचिका को खारिज करने की चुनौती देने वाली अपील को खारिज करते हुए कहा है। पति ने क्रूरता के आधार पर अपनी पत्नी के साथ शादी को खत्म करने की मांग की। उसके अनुसार, उसका शादी का रिश्ता टूट चुका है इसलिए वह तलाक चाहता है। पति ने कहा है कि उसकी पत्नी के व्यवहार में असमान्य बदलाव से चीजें बदल गई है। वह अन्य महिलाओं के साथ संबंध होने के आरोप लगाते हुए उनके साथ झगड़े की स्थित बन जाती है।

इस पर अदालत ने कहा है कि, ‘जब पत्नी के पास अपने पति की निष्ठा पर सवाल उठाने के ठोस आधार हो, अगर वह सवाल करती है या उसके सामने अपना दुख और दर्द जाहिर करती है तो इसे व्यवहार संबंधी असामन्यता नहीं कहा जा सकता है। यह एक पत्नी का सामान्य व्यवहार है।’ 

केरल हाई कोर्ट ने बीते हफ्ते तलाक की एक याचिक को खारिज करते हुए कहा है कि युवा पीढ़ी शादी के रिश्ते में ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ वाली उपभोक्तावादी सोच से ग्रस्त है।

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लाइव लॉ के अनुसार अदालत ने कहा है, “केरल भगवान के देश के रूप में जाना जाता है, एक बार सही तरीके से जुड़े पारिवारिक बंधन के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन वर्तमान प्रवृत्ति कमजोर या स्वार्थी वजहों से शादी के बाद किसी अन्य से साथ संबंध के लिए यहां तक कि अपने बच्चों की परवाह किए बिना विवाह बंधन को तोड़ती दिखती है। तबाह परिवारों की चीखें पूरे समाज की अंतरात्मा को झकझोरने के लिए जिम्मेदार हैं। जब छोड़े हुए बच्चे और हताश तलाकशुदा हमारी आबादी के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लेते हैं तो निस्संदेह यह हमारी सामाजिक शांति पर बुरा असर डालेगी। इससे जीवन और हमारे समाज का विकास रुक जाएगा।”  

पीठ ने यह भी कहा कि कानून और धर्म दोंनो ही शादी को एक संस्था के रूप में मानता है। शादी के बाद किसी भी रिश्ते को एकतरफा नहीं छोड़ा जा सकता है। पति और पत्नी दोंनो की सहमति के बाद ही रिश्ते को खत्म किया जा सकता है। केवल झगड़े, वैवाहिक संबंधों में सामान्य टूट-फूट या कुछ भावनात्मक भावों के बाद आकस्मिक प्रकोप को तलाक के लिए क्रूरता के रूप में नहीं माना जा सकता है।

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कोर्ट ने एक तलाक की याचिक खारिज करते हुए कहा है कि अदालत ने देखा है कि वर्तमान मामले में स्पष्ट रूप से दिखाया है कि अपीलकर्ता ने अन्य महिला के साथ अपवित्र रिश्ता बनाया है जिस वजह से उसके पारिवारिक जीवन में उथल-पुथल हुई। इससे यह साबित हुआ है कि अपीलकर्ता के मन में उचित आशंका पैदा करने में सक्षम होने के कारण प्रतिवादी के साथ रहना उसके लिए हानिकारक होगा। ऐसी परिस्थितियों में कोर्ट ने फैमिली कोर्ट, अलाप्पुझा के इस निष्कर्ष में हस्तक्षेप करने का कारण नहीं पाया है कि अपीलकर्ता वैवाहिक क्रूरता के आधार पर तलाक का हकदार नहीं है। इस तरह याचिकाकर्ता की अपील खारिज कर दी जाती है।

यह है मामला

साल 2006 में दिल्ली में काम करने के दौरान दंपत्ति की मुलाकात हुई थी। उन्होंने साल 2009 में शादी की। 2017 तक दोंनो का रिश्ता ठीक रहा उसके बाद स्थिति खराब होनी शुरू हो गई। याचिकार्ता के मुताबिक उसकी पत्नी उस पर शक करने लगी जिसके कारण उसका मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित हुआ। इसके बाद पति ने अलाप्पुझा की फैमिली कोर्ट में तलाक के लिए अपील की थी। अलाप्पुझा कोर्ट में तलाक की याचिक खारिज होने की वजह से उन्होंने हाई कोर्ट का रूख़ किया। 

जिस तरह अदालत इस फैसले में शादी के महत्व पर अपने विचार रखे हैं वह कई मायनों में इसलिए अहम है क्योंकि इसमें अदालत कानून से इतर नैतिकता पर जोर देती ज्यादा दिखाई दे रही है। जिस तरह अदालत ने यह याचिका खारिज करते हुए पति-पत्नी के रिश्ते और शादी की संस्था की व्याख्या की है वह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के विचारों के द्वारा बनाई छवि है जिसमें पति का साथ ही पत्नी का जीवन है, भले ही वह किसी भी स्थिति में हो। 

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कोर्ट की टिप्पणी के क्या है अलग मायने

जिस तरह अदालत इस फैसले में शादी के महत्व पर अपने विचार रखे हैं वह कई मायनों में इसलिए अहम है क्योंकि इसमें अदालत कानून से इतर नैतिकता पर जोर देती ज्यादा दिखाई दे रही है। जिस तरह अदालत ने यह याचिका खारिज करते हुए पति-पत्नी के रिश्ते और शादी की संस्था की व्याख्या की है वह ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के विचारों के द्वारा बनाई छवि है जिसमें पति का साथ ही पत्नी का जीवन है, भले ही वह किसी भी स्थिति में हो। 

अदालत का यह कहना कि ‘उथल-पुथल होना कोई पारिवारिक क्रूरता नहीं हुई है’ बहुत ही गंभीर परिणाम की एक वजह भी बन सकता है। तलाक के लिए आपसी सहमति नहीं होने पर अदालतें नैतिकता का पाठ पढ़ाती ज्यादा नज़र आ रही हैं जो अपने आप में एक समस्या है। अदालतें संवैधानिक मूल्यों से अलग शादी और भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देती नज़र आ रही हैं जो न्याय की राह के लिए बहुत बड़ी बाधा है। 

लिव-इन रिलेशनशिप को कोट करते हुए इस केस में ही अदालत सहमति और चयन के अधिकार को बल न देने के बजाय रूढ़िवादी सोच की पैरवी करती नज़र आती है। इससे पूर्व भी भारतीय अदालत शादी के रिश्ते और लिव-इन रिश्तों पर कई ऐसी टिप्पणियां कर चुकी है जो अदालतों की रूढ़िवादी तस्वीर को सामने रखती है। इसे पहले पिछले साल पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने बिना तलाक के लिव इन रिलेशनशिप को वासना तक कह चुकी है।    

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तस्वीर साभारः Medical Dialogues

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