समाजकानून और नीति बलात्कारी से शादी का आदेश देकर, कैसे रेप कल्चर को बढ़ावा दे रहे हैं कोर्ट

बलात्कारी से शादी का आदेश देकर, कैसे रेप कल्चर को बढ़ावा दे रहे हैं कोर्ट

आरोपी को सजा दिलाने की उम्मीद में जाने वाली सर्वाइवर को अदालतों में समझौता करने का आदेश दे दिया जाता है। सालों साल से लगातार अदालतों में सर्वाइवर से यह सवाल पूछा जाता है। तमाम सामाजिक भेदभाव और संघर्ष के बाद सर्वाइवर के पास विकल्प न होने पर उसकी चुप्पी को 'हां' समझने वाले समाज में बलात्कारी से शादी को न्याय घोषित कर दिया जाता है।  

इंटरनेट पर जैसे ही अगर आप रेप पीड़िता (सर्वाइवर) और शादी कीवर्ड का इस्तेमाल करेंगे तो अदालत के कई ऐसे फ़ैसले सामने आएंगे जहां न्याय के रूप में बलात्कारी को सर्वाइवर से शादी का आदेश दिया गया होगा। कहने का यह मतलब है कि भारतीय अदालतों के ऐसे बहुत से फैसले हैं जहां बलात्कार सर्वाइवर को न्याय में दोषी के साथ शादी करने के लिए कह दिया जाता है। दोषी को सज़ा से बरी सिर्फ इसलिए कर दिया जाता है क्योंकि वह सर्वाइवर से शादी करने के लिए राज़ी हो जाता है। ठीक इसी तरह उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने पिछले एक महीने में बलात्कार के तीन आरोपियों को इस शर्त पर ज़मानत दी गई कि वे सर्वाइवर से शादी कर लें। 

द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक हाल ही में जारी 10 अक्टूबर को जस्टिस दिनेश कुमार सिंह की एकल पीठ ने ऐसा ही एक फैसला सुनाया। इस मामले में दोषी मोनू अप्रैल 2021 से जेल में बंद था। दोषी को दो तथ्यों के आधार पर ज़मानत दी गई है। पहला यह कि सर्वाइवर और उसके पिता ने इस फ़ैसले का विरोध नहीं किया और दूसरा सर्वाइवर पहले ही दोषी के बच्चे को जन्म दे चुकी हैं।

बलात्कारी से शादी करने का फैसला सर्वाइवर के लिए एक सज़ा    

इस मामले में मोनू के ख़िलाफ़ अपहरण, बलात्कार और पोक्सो की धारा-3 और धारा-4 के तहत खीरी जिले की पुलिस ने मामला दर्ज किया था। घटना के समय सर्वाइवर की उम्र 17 साल थी। अदालत ने आदेश में कहा है कि, मोनू को इस शर्त पर रिहा किया जाए कि जेल से बाहर आने के तुरंत बाद वह रिहाई के 15 दिन के अंदर सर्वाइवर से शादी करेगा। वह शादी का रजिस्ट्रेशन करवाएगा। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि मोनू सर्वाइवर को पत्नी और यौन हिंसा की घटना के बाद जन्मे बच्चे को एक बेटी के रूप में सभी अधिकार देगा।

इसी तरह 30 सितंबर को दोषी शोभन की ज़मानत याचिका पर सुनवाई पर भी इसी तरह का आदेश सामने आया। अमेठी पुलिस द्वारा शोभन पर 19 वर्षीय लड़की के पिता की शिकायत पर बलात्कार, जहर देने, आपराधिक धमकी और गलत तरीके से कैद करने का मामला दर्ज किया था। नवंबर 2021 में इस मामले में एफआईआर दर्ज होने के समय सर्वाइवर सात महीने की गर्भवती थी। इस मामले में जज ने कहा है कि सर्वाइवर के वकील ने जमानत का विरोध किया है लेकिन तथ्यों का विरोध नहीं किया है। मेडिकल सबूत और तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कि अभियोक्ता (प्रोसिक्यूटिक्स) ने बच्चे को जन्म दिया है। दोषी को ज़मानत देना उचित होगा। जज ने इसमे आगे जोड़ा है कि ज़मानत पर बाहर आते ही दोषी, सर्वाइवर से शादी करेगा।

भारतीय अदालतों के ऐसे बहुत से फैसले हैं जहां बलात्कार सर्वाइवर को न्याय में दोषी के साथ शादी करने के लिए कह दिया जाता है। दोषी को सज़ा से बरी सिर्फ इसलिए कर दिया जाता है क्योंकि वह सर्वाइवर से शादी करने के लिए राज़ी हो जाता है। ठीक इसी तरह उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने पिछले एक महीने में बलात्कार के तीन आरोपियों को इस शर्त पर ज़मानत दी गई कि वे सर्वाइवर से शादी कर लें। 

ठीक इसी तरह समान अदालत में 28 सितंबर को सूरज पाल के केस की सुनवाई चल रही थी। सूरज पाल पर रायबरेली पुलिस द्वारा बलात्कार, पोक्सो और एससी/एसटी ऐक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया था। 2 जुलाई 2021 से सूरज जेल में था। इस मामले में आदेश में कहा, आरोपी के वकील ने बताया है कि सर्वाइवर, उसके मुवक्किल के साथ साढ़े तीन महीनों तक सूरत में रही थीं। लॉकडाउन की वजह से वे वापस लौटे थे। आरोपी के वकील ने कहा, जैसे ही उन्हें जेल से रिहा किया जाएगा, वह अभियोक्ता से शादी करेगा क्योंकि मेडिकल आधार पर सर्वाइवर अब बालिग हो चुकी हैं। ऐसे में इन तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर दोषी को ज़मानत देना सही रहेगा।  

ठीक इसी तरह 22 सितंबर को उन्नाव जिले के राम बाबू के मामले में भी अदालत में कहा कि दोषी, सर्वाइवर से औपचारिक तौर पर शादी करना चाहता है और उनकी बेटी की देखरेख करना चाहता है। इस मामले में अदालत ने कहा है कि अगर आरोपी शादी करने के लिए राजी है और वह उसे पत्नी की तरह सभी अधिकार देगा तो उन्हें आरोपी की ज़मानत से आपत्ति नहीं है। 

एक के बाद एक इस तरह से इन सभी मामलों में अदालत ने यौन हिंसा के आरोपी को शादी के नाम पर सज़ा से मुक्त कर दिया। क्या भारतीय अदालतें यह मानने लगी हैं कि अगर बलात्कार करनेवाला घटना के बाद सर्वाइवर से शादी कर लेता है तो फिर उसे माफी मिल जाना चाहिए। रेप सर्वाइवर की दोषी से ही शादी करवाने की मानसिकता यह दिखाती है कि शादी का संबध सिर्फ ‘स्त्री की देह’ तक ही सीमित है। अगर सर्वाइवर की शादी आरोपी से हो जाती है तो उसे यौन हिंसा की घटना से मुक्ति मिल जाती है।

अदालत के ऐसे फैसले यह संदेश समाज में पहुंचाने का काम करते हैं कि आज की गई जबरदस्ती, बलात्कार की घटना कल को अदालत ही शादी में बदलने का फरमान जारी करती है। दूसरा इसका यह संदेश भी जाता है कि अगर कोई पुरुष किसी महिला का बलात्कार करता है और बाद में वह उससे शादी करता है तो उसने कुछ गलत नहीं किया है। पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देनेवाले अदालत के इन फैसलों में औरत के अस्तित्व को केवल एक देह तक मान लिया जाता है।

दोषी से शादी का फ़ैसला कैसे सर्वाइवर्स के लिए एक सज़ा

‘बलात्कार, न्याय की उम्मीद में केस दर्ज और परिणाम दोषी से शादी।’ अगर इस तरह से अदालतें बलात्कार के मामलों में दोषियों को जमानत पर रिहा करती रहेगी तो यह चलन आदर्श के तौर पर इस्तेमाल होगा। बलात्कार सर्वाइवर की दोषी से शादी करवाने के अदालतों के फैसले उन्हें खाप पंचायत की लाइन में खड़ा कर देते हैं। अदालत को भारतीय संविधान के तहत व्यवहार करना है न कि पितृसत्तात्मक नियमों के तहत समझौते करते हुए न्याय देना। भारतीय दंड संहिता के तहत बलात्कार एक अपराध है जिसके लिए सज़ा का प्रावधान है।

ऐसे फ़ैसले पितृसत्तात्मक समाज के चेहरे की वास्तविकता है कि यहां यौन हिंसा की घटना महिलाओं के साथ होती हैं और उसके बाद उसका दोष भी उन्हीं को दिया जाता है। इसे ही विक्टिम ब्लेमिंग कहा जाता है। यानी हिंसा महिला के साथ हुई है यह उसकी गलती है तो इसकी सज़ा भी उसे ही मिलनी चाहिए। इस व्यवस्था का मानना है कि बलात्कार के बाद महिला की जिंदगी कुछ बचती नहीं है। शादी के लिए वह अयोग्य हो जाती है। सर्वाइवर के प्रति संवेदना दिखाने के लिए बलात्कार के दोषी से ही शादी का सुझाव, उसके हित की तरह देखा जाता है।

इन सबसे अलग कोई यह नहीं सोचता है कि यौन हिंसा के सर्वाइवर्स कुछ समय के बाद कैसे दोषी के साथ रिश्ते में रह सकते हैं। क्यों एक सर्वाइवर और उसके बच्चे को समाज में स्वीकृति के नाम पर बलात्कारी के साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता है। शादी को हर गलती की माफी के लाइसेंस की तरह इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है। यही वजह है कि भारत में मैरिटल रैप आज भी एक कानूनी अपराध नहीं है। भले ही सरकार का डेटा ही यह दिखाता हो कि महिलाओं के हिंसा की घटना उनके घर में सबसे ज्यादा होती हैं। 

भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाएं सबसे ज्यादा होती है। एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक भारत में हर रोज औसतन 87 बलात्कार की घटनाएं होती हैं। साल 2020 के मुकाबले देश में बलात्कार के मामलों में 19.34 प्रतिशत बढ़े हैं। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार देश में कुल बलात्कार के मामले में से 96.5 प्रतिशत मामलों में आरोपी सर्वाइवर के परिचित थे। इतने भयावह आंकड़ों वाले देश में भी समाज, इज्ज़त और संस्कार के नाम पर हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का चलन नहीं है। दूसरी ओर न्यायपालिका में रेप सर्वाइवर को न्याय पाने के लिए कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। भारत में रेप सर्वाइवर के लिए न्याय पाना एक लंबी लड़ाई बन जाती है।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 देशों में अभी भी बलात्कारियों को कानूनी मुकदमे से बचने के लिए सर्वाइवर से उनकी शादी करने की अनुमति देते है। रूस, थाईलैंड और वेनेजुएला उन देशों में शामिल हैं जिनमें बलात्कार के दोषी की सजा को बदलने की अनुमति देते है अगर वह सर्वाइवर महिला या लड़की से शादी कर लेता है। दुनिया में मौजूद इस तरह के कानून हिंसा का सारा भार भी सर्वाइवर्स के ऊपर डाल देते हैं। 

भारतीय न्याय व्यवस्था तो इसमें एक प्रमुख वजह है। आंकड़े के अनुसार भारतीय अदालतों में बड़ी संख्या में रेप के केस मामले लंबित पड़े हुए हैं। इंडिया टुडे में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़ साल 2019 दिसंबर तक रेप और पॉक्सो के तहत पूरे देश की अदालतों में 2.4 लाख केस पेडिंग में थे। अदालत की यह व्यवस्था और रेप के मामलों में शादी के समझौते पर दोषियों की रिहाई हर हाल में सर्वाइवर के लिए न्याय की एक कल्पना बन जाती है। इसी तरह ज्यादा पीछे जाने की आवश्कता नहीं है बिलकिस बानो के केस में आरोपियों को उनकी तथाकथित ऊंची जाति और संस्कार के नाम पर रिहा कर दिया गया।

ऐसे फैसलों का क्या है असर

अदालत का दरवाज़ा खटखटाने वाले सर्वाइवर्स के लिए इस तरह के फैसले न्याय पाने के रास्ते को कठिन कर देता है। यह सवाल बार-बार सामने आ जाता है कि कैसे व्यवस्था के नाम पर सर्वाइवर्स को बलात्कारी से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता है। आरोपी को सजा दिलाने की उम्मीद में जाने वाली सर्वाइवर को अदालतों में समझौता करने का आदेश दे दिया जाता है। सालों साल से लगातार अदालतों में सर्वाइवर से यह सवाल पूछा जाता है। तमाम सामाजिक भेदभाव और संघर्ष के बाद सर्वाइवर के पास विकल्प न होने पर उसकी चुप्पी को ‘हां’ समझने वाले समाज में बलात्कारी से शादी को न्याय घोषित कर दिया जाता है।  

इन सबसे अलग कोई यह नहीं सोचता है कि यौन हिंसा के सर्वाइवर्स कुछ समय के बाद कैसे दोषी के साथ रिश्ते में रह सकते हैं। क्यों एक सर्वाइवर और उसके बच्चे को समाज में स्वीकृति के नाम पर बलात्कारी के साथ रहने के लिए मजबूर किया जाता है। शादी को हर गलती की माफी के लाइसेंस की तरह इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है।

बलात्कारी से शादी करने नियम की वजह से आसानी से दोषी को माफ कर दिया जाता है। दुनिया के कुछ देशों में तो इससे कानूनी तौर पर अमल भी किया जाता है। कानून और प्रथा के तौर पर बलात्कारी से सर्वाइवर की शादी का चलन पूरी तरह से एक पुरूषवादी नियम है जिसमें महिलाओं का कोई अस्तित्व नहीं है। द गार्डियन में प्रकाशित लेख के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 देशों में अभी भी बलात्कारियों को कानूनी मुकदमे से बचने के लिए सर्वाइवर से उनकी शादी करने की अनुमति देते है। रूस, थाईलैंड और वेनेजुएला उन देशों में शामिल हैं जिनमें बलात्कार के दोषी की सजा को बदलने की अनुमति देते है अगर वह सर्वाइवर महिला या लड़की से शादी कर लेता है। दुनिया में मौजूद इस तरह के कानून हिंसा का सारा भार भी सर्वाइवर्स के ऊपर डाल देते हैं। 

बलात्कारी से शादी, संविधान का उल्लघंन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्रत्येक नागरिक का खुद की पसंद से शादी करने का अधिकार है। कानून कभी भी किसी के शादी के फैसले को प्रभावित नहीं कर सकता है। अदालत सर्वाइवर और बलात्कार कने के बीच शादी जैसे सुझावों को चलन में नहीं ला सकती है। अगर दोषी का वकील अदालत के सामने जमानत के लिए शादी का प्रस्ताव रखता है तो अदालत का ऐसे सुझाव में सर्वाइवर की सहमति और उसकी पसंद को सुरक्षित करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। आई प्लीडर में प्रकाशित लेख के मुताबिक भारत में बलात्कार नॉन-कंपाउंडेबल अपराध है यानि इसके लिए किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता है। शिंभू बनाम हरियाणा राज्य के मामले में कहा गया था कि बलात्कार एक गैर-शमनीय अपराध है। यह समाज के ख़िलाफ़ अपराध है इसमें किसी भी तरह का समझौता करने या समझौता करने के लिए छोड़ने का मामला नहीं है। बावजूद इसके अदालत की तरफ से ऐसे फैसले भी आते है जो दोषियों के पक्ष में नज़र आते हैं। 


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