वर्तमान समय में बिगड़ता पर्यावरण एक बड़ा सामाजिक संकट है। इस संकट से हम सब हर पल और हर दिन प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन यह कुछ समुदाय को ज्यादा प्रभावित करता है। ये वे वर्ग और समुदाय हैं जो असमान सामाजिक व्यवस्था का सामना करते हैं जैसे एलजीबीटीक्यू+ समुदाय। गरीब, एलजीबीटीक्यू+ और लैंगिक अल्पसंख्यक लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले दुष्परिणामों से अधिक भेदभाव का सामना कर रहे हैं। इतना ही नहीं ये समुदाय पहले ही बहुत कम सेवा हासिल कर पा रहे होते हैं जिस वजह से जलवायु संकट से उबरने के लिए कम से कम तैयार हैं।
जलवायु परिवर्तन और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय
आज के समय में जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण एक ज़रूरी विषय है जिसको लेकर बातचीत लगातार जारी है। लेकिन इसमें जलवायु परिवर्तन और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों के पक्ष और आवश्यकता पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार जो लोग पहले से ही सबसे कमजोर और हाशिये पर हैं वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सबसे ज्यादा अनुभव करेंगे। एलजीबीटीक्यू+ समुदाय एक ऐसा समूह है जो सामाजिक भेदभाव की वजह से जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में खुलकर बात भी नहीं कर पाता है।
साल 1991 में पहले नैशनल पीपल ऑफ कलर एनवॉयरमेंट लीडरशीप समिट के दौरान 17 पर्यावरण न्याय से जुड़े सिंद्धातों के बारे में बात की गई। उनमें कहा गया कि हम इस बात की हमेशा से स्वीकार्यता देखते हैं कि कैसे पर्यावरण न्याय में सभी लोगों के लिए सम्मान और बिना किसी भेदभाव के न्याय होना ज़रूरी है। फिर भी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करते हुए एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की प्रतिक्रिया, राहत और पुर्नस्थापन से नियमित रूप से बाहर रखा गया है। समुदाय पर पड़ने वाले असर के बारे में चर्चा नहीं होती है और न ही उन्हें संवेदनशीलता से लिया जाता है।
क्वीयर समुदाय के लोगों को उनकी लैंगिक पहचान की वजह से अनेक तरह के भेदभावों का सामना करना पड़ता हैं जो किसी भी संकट से निकलने में उनके लिए मुश्किल लाता है। जैसे समुदाय के लोग बड़ी संख्या में गरीबी में जीवन जी रहे हैं। अमेरिका में ही एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के 40 प्रतिशत युवा बेघर हैं। एक अनुमान के अनुसार पांच में एक एलजीबीटीक्यू+ अमेरिकन गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहा है। लैंगिक हिंसा जिसमें ट्रांस समुदाय के ख़िलाफ हिंसा भी शामिल है वह पूरी तरह से जलवायु संकट से भी जुड़ी हुई है। इस तरह से ये दोहरे कारक क्वीयर समुदाय के लोगों के लिए गर्म होती धरती को और गर्म बना देते हैं।
आपातकालीन स्थलों पर क्वीयर समुदाय को लेकर नीतियों की कमी
जब हम बात पर्यावरण और आपदाओं की करते हैं तो आपातकालीन सुविधाएं तक सबकी पहुंच होना बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन आपतकालीन सेंटर एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों के लिए पर्याप्त रूप से सुरक्षित और आरामदायक जगह नहीं बन पाती है और न ही नीतियों में इस पक्ष को ध्यान में रखा जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिका में कैटरीना तूफान के समय एक ट्रांसपर्सन को वॉलटियर के अनुमति के बाद महिला बाथरूम इस्तेमाल करने पर जेल मे डाल दिया गया था। इस मुद्दे पर अगर भारत के परिदृश्य से बात करे तो साल 2004 में हिंद महासागर सुनामी के दौरान क्वीयर समुदाय के लोगों को राहत प्रक्रिया, अस्थायी शेल्टर और आधिकारिक मृत्यु के आंकड़ों में नज़रअंदाज किया गया। समुदाय को राहत और पुनर्निमाण के एजेंडे से पूरी तरह दूर रखा गया था।
जलवायु परिवर्तन और आपातकालीन सुविधाओं को लेकर फेमिनिज़म इन इंडिया ने ‘अकम संस्था’ की फाउंडर और डॉयरेक्टर ऋतुपर्णा से बात की। ऋतुपर्णा एक क्वीयर इंटरसेक्शनल फ़ेमिनिस्ट, स्टोरी टेलर और कम्यूनिटी लाइब्रेरी एजुकेटर है। ऋतुपर्णा का कहना हैं, “जलवायु परिवर्तन आज एक बड़ी समस्या है। इससे जो कुछ भी बदलाव हो रहा है वह सबसे ज्यादा हाशिये के समुदाय को नुकसान पहुंचाता है। जैसे बच्चे, महिलाएं, गरीब, भौगोलिक रूप से हाशिये के लोग, क्वीयर समुदाय आदि क्योंकि इन लोगों के बारे में बात ही नहीं होती हैं। किसी भी तरह की नीति बनती है या रिसर्च होती है तो उसमें ट्रांस समुदाय के पक्ष को नज़रअंदाज कर दिया जाता है। जलवायु परिवर्तन एक बहुत बड़ी चुनौती है और ये हम सब के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इसलिए ऐसे में बहुत ज़रूरी हो जाता है कि क्वीयर समुदाय को भी ध्यान में रख कर नीतियां बनाई जाए। आपदा तो सबके लिए है, जान का खतरा सबको बराबर है तो फिर उसका समाधान भी सबके लिए होना बहुत ज़रूरी है।”
प्राकृतिक आपदा के समय आपातकालीन सुविधा की पहुंच के बारे में बात करते हुए ऋतुपर्णा आगे कहती हैं, “अगर हम शेल्टर की बात करते तो यहां जेंडर सेंसटिव होना बहुत अहम हो जाता है। क्योंकि शेल्टर होम में केवल दो जेंडर को लेकर डिवीजन हुआ होता है तो ऐसे में ट्रांस पर्सन के लिए बहुत ही असजह स्थिति बन जाती है। यहां से परेशानी ओर आगे बढ़ती है एक तो आप पहले से आपदा का सामना कर रहे दूसरा जेंडर बाइनरी के चलते आपको मेल टॉयलेट इस्तेमाल करने के लिए कहा जाता है। पॉलिसी समावेशी नहीं होने की वजह से इस तरह की चीजों का बहुत असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन और उससे ऊपजी हर स्थिति के प्रभाव से हम सब प्रभावित हैं इसलिए सरकारों को हर पहलू को सोचते हुए संवेदनशील तरीके से नीतियां बनानी चाहिए।”
समुदाय पर पड़ने वाले असर को लेकर शोध
पर्यावरण के मनुष्य पर पड़ने असर से जुड़े कई शोध में यह बात कही गई है कि जलवायु परिवर्तन से जेंडर माइनॉरिटी ज्यादा प्रभावित है। येल यूनिवर्सिटी ऑफ द एनवायरमेंट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एलजीबीटीक्यू+ समुदाय अपने ऊपर पर्यावरण का असमान भार का अनुभव करता है। एनवायरमेंट जस्टिस आंदोलन को बहुत समावेशी होने की आवश्यकता है।
इसी तरह यूनिरवर्सिटी ऑफ टेक्सस के तीन समाजशास्त्रियों द्वारा किया गया अध्ययन एलजीबीटीक्यू+ समुदाय पर पर्यावरण के जोखिम से होने वाले स्वास्थ्य असमानताओं पर वैज्ञानिकों के शोध की कमी पर जांच करता है। अर्थडे नामक वेबसाइट पर प्रकाशित लेख के अनुसार एलजीबीटीक्यू समुदाय को व्यवस्थित और जानबूझकर बहुत से नेताओं और विधायी बदलावों की वजह से स्टिग्माइज किया गया है। वे शक्तियां जलवायु परिवर्तन को भी अस्वीकार करती है और अमेरिका में पेरिस समझौते को भी नकारती है। यहीं शक्तियां स्वास्थ्य सुविधाओं से क्वीयर समुदाय को बाहर करने का काम करती है। ये पूरी तरह से समान अधिकारों की राह में बाधा लाती है।
“जलवायु परिवर्तन आज एक बड़ी समस्या है। इससे जो कुछ भी बदलाव हो रहा है वह सबसे ज्यादा हाशिये के समुदाय को नुकसान पहुंचाता है। जैसे बच्चे, महिलाएं, गरीब, भौगोलिक रूप से हाशिये के लोग, क्वीयर समुदाय आदि क्योंकि इन लोगों के बारे में बात ही नहीं होती हैं। किसी भी तरह की नीति बनती है या रिसर्च होती है तो उसमें ट्रांस समुदाय के पक्ष को नज़रअंदाज कर दिया जाता है।”
ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को नीतियों में शामिल न करने की वजह से ही उनका उत्थान नहीं हो पा रहा है। यही कारण है कि समुदाय के लोग अपना हक और अधिकारों से दूर है क्योंकि शासकों में उनके पक्ष को लेकर उदासीनता और असंवेदनशीलता है। न्यूजक्लिक वेबसाइट मे प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार कश्मीर में बाढ़ और भूकम्प के समय सोशल टैबू की वजह से ट्रांसजेंडर व्यक्ति को राहत साहयता तक आसानी से पहुंचने में बाधक बना। प्रशासन के बजाय समुदाय करीबी लोगों की मदद से ही बुरे समय से निकलने की कोशिश करता रहा। रिपोर्ट के अनुसार एलजीबीटीक्यूएआई एक्टिविस्ट डॉ. एजाज अहमद बंड के अनुसार आपदा के समय ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के शेल्टर, आजीविका, स्वास्थ्य, सामाजिक-धार्मिक स्थानों पर पहुंचना ज्यादा चुनौतीपूर्ण हैं। इसलिए आपदा प्रबंधन नीतियों और निर्माण में ट्रांस समुदाय के लोगों के लिए संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है।
पर्यावरण का मुद्दा हम सबके लिए समान मुद्दा है
असम के जोरहाट जिले के रहने वाले डेनिन द्वावारा एक छात्र हैं। वह पर्यवारण के लिए अपने स्तर पर काम करते हैं और प्रकृति को अपने जीवन का अहम हिस्सा मानते हैं। जलवायु परिवर्तन और एलजीबीटीक्यू+समुदाय पर पड़ने वाले असर पर उनका कहना हैं, “मैं एक ग्रामीण परिवेश से हूं। बदलते समय के साथ अपने आसपास के क्षेत्र में भी जलवायु परिवर्तन का असर देख रहा हूं। क्वीयर समुदाय से अलग सब लोग इसका समाना कर रहे हैं। अगर हम एलजीबीटीक्यू+समुदाय की बात करे तो वह पहले से ही कई तरह की असमानता का सामना कर रही है और आपदा के समय और भी भेदभाव का सामना करती है। दूसरा पर्यावरण के साथ एक अट्टू लगाव भी महसूस करती हैं क्योंकि समाज में अलगाव के बाद वह प्रकृति में ही अपना सहारा ढूढ़ती है। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि मुझे जब सब अलग-थलग करने वाला व्यवहार करते थे तो मैंने प्रकृति में ही सहारा ढूढ़ा। इसलिए प्रकृति का संरक्षण भी मेरे लिए बहुत मायने रखता है।”
एलजीबीटीक्यू+समुदाय के लोगों के लिए भी पर्यावरण का मुद्दा उतना ही महत्वपूर्ण है जितना इस पृथ्वी पर रहने वाले अन्य लोगों के लिए मायने रखता है। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि समुदाय के लोगों की ज़रूरत को आपदा या बिगड़ने पर्यावरण के ऊपजे संकट से जोड़कर देखा जाएं। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर ही इसकी कमी बनी हुई है। पहले से बेघर और गरीबी रेखा में रहने वाले लोग सड़कों पर अस्थायी ठिकानों पर जीवन गुजार रहे है लोगों के लिए संकट न बढ़े इसलिए उनके पक्ष को देखना बहुत ज़रूरी है। जलवायु और पर्यावरण न्याय की लड़ाई क्वीयर समुदाय से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इन जटिल समस्याओं से निकलने के लिए नीति-निर्माताओं को परस्पर रूप से जोड़कर देखना और समाधान को तैयार करना चाहिए।