समाजमीडिया वॉच कैसे पितृसत्ता के ‘लठैत’ बनते जा रहे न्यूज़ चैनल

कैसे पितृसत्ता के ‘लठैत’ बनते जा रहे न्यूज़ चैनल

 लेकिन आज पत्रकारिता जितनी सतही और अन्यायपूर्ण होती जा रही है तब शायद ही किसी की कल्पना में हो। लेकिन आज न्यूज चैनल जिस तरह से पितृसत्तात्मक पक्ष और प्रतिगामी विचारों पर पत्रकारिता कर रहे हैं वह बेहद द्वेषपूर्ण और पक्षपाती है।

एक समाज तभी समावेशी बन सकता है जब वहां स्त्रियों को, हाशिये के सभी लोगों  समलैंगिक समुदाय के लिए समान अधिकार और सम्मान मिले। लेकिन हमारा समाज किस हद तक स्त्रीद्वेषी है इसका पैरामीटर देखना हो तो यहां के न्यूज चैनलों के रिपोर्टर या एंकर को ध्यान से देखने की ज़रूरत है। एक आधुनिक और मानवीय मूल्यों ,संवेदनाओं से बना व्यक्ति परेशान हो जाएगा ये सब देख-पढ़कर। वहां एक से बढ़कर एक स्त्रीद्वेषी एंकर और रिपोर्टर मिलेंगे। वे सतयुग के पुरुष पत्रकार कलियुग की स्त्री के पाप को देखकर त्राहि-त्राहि कर रहे होते हैं। गजब का मेलोड्रामा प्रस्तुत करते हैं वे पत्रकार, लगता ही नहीं कि ये रिपोर्टिंग कर रहे हैं। वे समाज में नये जमाने की स्त्री के पतन को देखकर दुखी हैं। पुरुषों के भविष्य को लेकर वे बेहद चिंतित नज़र आते हैं क्योंकि उनके लिहाज़ से स्त्री को बहुत ज्यादा आजादी मिल गई है। 

एक समय कभी समाज में पत्रकार होने का अर्थ समता समानता, शिक्षा और अधिकार जैसे मूल्यों से सजग मनुष्य माना जाता था। मुझे याद है गाँव-घर जवार का तो ये हाल था कि पत्रकार या शिक्षक का कहीं खड़ा होना ही न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों की ज़मीन माना जाता था। तब शायद ही कभी कोई सोच सकता था कि पत्रकारिता का कभी इतना स्तर गिर जायेगा। लेकिन आज पत्रकारिता जितनी सतही और अन्यायपूर्ण होती जा रही है तब शायद ही किसी की कल्पना में हो। लेकिन आज न्यूज चैनल जिस तरह से पितृसत्तात्मक पक्ष और प्रतिगामी विचारों पर पत्रकारिता कर रहे हैं वह बेहद द्वेषपूर्ण और पक्षपाती है।

आज न्यूज चैनलों का ये हाल है कि वे पितृसत्ता की लाठी लेकर खड़े लठैत बन गए हैं। स्त्रियों की स्वतंत्रता स्त्रियों के चयन उनके प्रेम या उनके अधिकारों की बात पर ये चैनलों के रिपोर्टर इस तरह से बात करते हैं जैसे स्त्री मनुष्य ही नहीं है। ये न्यूज एंकर या रिपोर्टर खबरों की रिपोर्टिंग इतने अन्यायपूर्ण और भेदभाव से भरे स्वरूप में करते हैं कि किसी भी खबर को ये पूरी तरह स्त्री घृणा में बदल देते हैं। लैंगिक भेदभाव से भरे रिपोर्टर इतने असंवेदनशील होते हैं कि स्त्री के प्रेम करने के अधिकार को, चयन करने के अधिकार को अपनी भद्दी भाषा से भद्दा रंग देने की कोशिश करते हैं। किसी भी संवेदनशील मुद्दे को ये लोग झट से अपने मर्दवादी नजरिये में ढालकर स्त्री को दोषी बनाकर पेश कर सकते हैं। अभी एक डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट ज्योति मौर्य के मैरिटल अफेयर की खबर को सनसनी बनाकर चलते मीडिया को देखकर लगता ही नहीं कि वे कोई पढ़े-लिखे आधुनिक विचारों के लोग हैं। 

किसी देश-समाज के लिए ये कितना दुखद है कि आज जब पत्रकारिता को स्त्री अस्मिता के विभिन्न धरातलों पर जाकर पड़ताल करनी चाहिए, उनकी स्वतंत्रता और अधिकार पर सवाल करना चाहिए, सदियों से शोषित उस वर्ग की समानता और शिक्षा पर चिंता करनी चाहिए तब आज ये पत्रकार स्वयं पितृसत्ता के लठैत बनकर उनके मनुष्य होने की गरिमा का अश्लीलता से मज़ाक बना रहे हैं। 

चैनलों के एंकर उस स्त्री को लेकर इस तरह बात कर रहे हैं जैसे उसने कोई बहुत ही बर्बर अपराध कर दिया हो। जबकि इसी समाज में सदियों से पुरुष जब किसी पद-प्रतिष्ठा के जीवन में अपनी पत्नी से आगे बढ़ जाता है तो अक्सर छोड़ देता है इसके जाने कितने उदाहरण हर क्षेत्र में मिल जाएंगे। हर जगह गाँव- जवार, शहर में ऐसे मामले होते आए हैं। लेकिन अगर कभी कोई स्त्री इस तरह का कदम उठा देती है तो समाज के वही ठेकेदार जो कि पत्रकार और रिपोर्टर भी होते हैं तो इसे एक उदाहरण की तरह पेश करते हैं। ज्योति मौर्य का पति आलोक मौर्य के साथ सारा मीडिया खड़ा दिख रहा है और सबके सब ज्योति मौर्य को अपराधी घोषित कर चुके हैं। यही कृत्य अगर पुरुष करता है तो उसे आदत कहकर छोड़ देंगे और अगर वही कृत्य स्त्री करती है तो झट से वह अपराध बन जाता है। यह तो समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा था जहां रुढ़ियां और रिवाज प्रमुख होते हैं लेकिन चैनलों के ये पत्रकार स्वयं महिला को दोषी घोषित करके खबर पर बात करना शुरू करते हैं। किसी स्त्री का जीवन उसका गर्भ,  उसकी सुरक्षा अपने बच्चे के भविष्य और घर, परिवार की प्रतिष्ठा हो या कोई भी निर्णय लेना हो हमारी सामाजिक व्यवस्था में सब पितृसत्ता के अधीन है वहां स्त्री की इसमें भूमिका हमेशा गौण रहती है।

आज चाहे बात राष्ट्रीय मीडिया की हो या स्थानीय मीडिया चैनलों की, यहां दिखाए जा रहे कॉन्टेंट की स्तरहीनता का कोई जवाब नहीं है। सोशल मीडिया पर ही देखा एक कोई काबिल न्यूज़ चैनल है वहां एक खबर एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर को लेकर दिखाई जा रही थी। खबर के अनुसार एक पंद्रह साल की बच्ची का विवाह हो जाता है बाद में बाइस साल की उम्र में उसे फेसबुक पर किसी लड़के से प्रेम हो जाता है और वह प्रेमी के साथ चली जाती है और बाद में प्रेमी छोड़ देता है। पत्रकार जब उस लड़की से उसके प्रेम संबंध को लेकर बात कर रहा है तो जैसे पत्रकार न होकर वह कोई पुरातनपंथी लड़की का करीबी रिश्तेदार हो। वह सवाल पूछता जा रहा है और उसे ज़लील करता जा रहा है। लड़की जार-,जार रो रही है और पति और अपनी छोटी सी बच्ची के साथ रहने की बात कर रही है। ये तो एक लोकल न्यूज चैनल की बात है इस तरह से जाने कितने छोटे-बड़े चैनल चल रहे हैं जो किसी खबर में स्त्री की भूमिका को लेकर बेहद कुंठित और अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। 

आज न्यूज चैनलों का ये हाल है कि वे पितृसत्ता की लाठी लेकर खड़े लठैत बन गए हैं। स्त्रियों की स्वतंत्रता स्त्रियों के चयन उनके प्रेम या उनके अधिकारों की बात पर ये चैनलों के रिपोर्टर इस तरह से बात करते हैं जैसे स्त्री मनुष्य ही नहीं है। ये न्यूज एंकर या रिपोर्टर खबरों की रिपोर्टिंग इतने अन्यायपूर्ण और भेदभाव से भरे स्वरूप में करते हैं कि किसी भी खबर को ये पूरी तरह स्त्री घृणा में बदल देते हैं।

इन दिनों फोन को स्क्रॉल करते हुए एक चैनल दिखा जिसका नाम था KTV Bharat Kunal kumar कोई भारत कुमार हैं वहां पत्रकार बने हुए हैं। इनकी एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार लखीसराय में कोई तीन बच्चों की माँ प्रेमी के संग भाग गई है। इस खबर पर पत्रकार महोदय रिपोटिंग कर रहे हैं।आप देखेंगे कि वह पत्रकार तो कही से नहीं लग रहे हैं, पितृसत्तात्मक समाज के ठेकेदार लग रहे हैं। वे लोगों को सावधान कर रहे हैं कि मोबाइल पर बात करके औरतें भाग जाती हैं इसलिए समाज का हर पति अपनी पत्नी के ऊपर कड़ी निगाह रखे। यह पत्रकार जैसे एक बेहद ज़िम्मेदार पुरुष नागरिक का अपना कर्तव्य निर्वाह कर रहे हैं। अजीब बिरादराना सहयोग निबाहते हैं ये लोग। अगर कोई स्त्री ऐसे किसी संबंधों में आ जाए तो समाज के सारे पुरुष स्त्री को ज़लील करते हैं और डर जाते हैं कि उनकी सत्ता पर आंच आ रही है। आखिर किस योग्यता पर ये पत्रकारिता कर रहे हैं लगता जैसे प्रोपेगैंडा ही इनकी योग्यता है।

ये पत्रकारिता के नाम पर घृणा परोसते पत्रकार कब समझेगें कि स्त्रियां भी मनुष्य हैं उनको भी पुरुषों की तरह ही गलतियां करने का हक है। उनकी ग़लतियों को भी पुरुषों की गलतियों की तरह देखा जाना चाहिए , उनके मनुष्य होने की सामान्य इच्छाओं को हमेशा घृणित अपराध की तरह ही क्यों देखा जाता है। हमारा समाज स्त्रियों के लिए कितना समावेशी और सुविधाजनक है इस स्त्री-पुरुष अनुपात पर कथाकार और पत्रकार अनिल कुमार यादव अपनी किताब कीड़ाजड़ी में लिखते हैं कि “इससे एक दिलचस्प सवाल पैदा होता है जिसे गणित के छात्रों को हल करने के लिए दिया जा सकता है अगर पिंडर घाटी की एक औरत किसी पुरुष के विषय में कोई बात कहती है तो उसका वजन कितना होगा सही जवाब के लिए बच्चों को ब्लैकबोर्ड नहीं सड़क किनारे बने टॉयलेट की ओर देखने के लिए कहना होगा जहां एक लड़की अंदर जाती है तो दूसरी या कई लड़कियां बिना छिटकनी के दरवाजे को पकड़कर खड़ी रहती हैं जबकि लड़के थोड़ी दूरी पर एक खंडहर घर की दीवारों को भिगोकर चले आते हैं।

किसी देश-समाज के लिए ये कितना दुखद है कि आज जब पत्रकारिता को स्त्री अस्मिता के विभिन्न धरातलों पर जाकर पड़ताल करनी चाहिए, उनकी स्वतंत्रता और अधिकार पर सवाल करना चाहिए, सदियों से शोषित उस वर्ग की समानता और शिक्षा पर चिंता करनी चाहिए तब आज ये पत्रकार स्वयं पितृसत्ता के लठैत बनकर उनके मनुष्य होने की गरिमा का अश्लीलता से मज़ाक बना रहे हैं। 


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