समाजकैंपस इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस में बढ़ती लड़कियों पर पाबंदियां

इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस में बढ़ती लड़कियों पर पाबंदियां

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लड़कियों के लिए कई जगहों पर बैठने या रहने का समय निर्धारित कर दिया गया है। लड़कियां इतने से इतने समय तक ही इस जगह पर रह सकती हैं उसके बाद नहीं। इस भेदभाव भरे नियम का पता शायद ही लड़कियों को यूनिवर्सिटी द्वारा जारी किसी नोटिस से चलो हो।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शाम छह बजे के बाद लड़कियों को यूनिवर्सिटी के किसी भी मैदान में या विभाग की बिल्डिंग के अंदर बैठने की मनाही है सिवाय यूनिवर्सिटी के सेंट्रल लाइब्रेरी के। लड़कियां छह बजे के बाद यूनिवर्सिटी में सिर्फ लाइब्रेरी में ही रह सकती हैं। ये सभी नियम लड़कियों के लिए कैंपस ने उनकी ‘सुरक्षा’ के नाम पर बनाए गए हैं। परिसर का प्रशासन कहता है कि विश्वविद्यालय कैंपस का वातावरण लड़कियों के लिए ठीक नहीं है। आए दिन छात्र उपद्रव करते रहते हैं, लड़कियों के साथ उत्पीड़न के मामले आते हैं इसीलिए कैंपस में लड़कियों का रात में घूमना ठीक नहीं। इसी प्रकार की तमाम दलीलें दी जाती हैं और फिर ‘सुरक्षा’ के नाम पर लगाई जाती हैं ये पाबंदियां।

विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही गरिमा (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि वह यहां ग्रैजुएशन से ही पढ़ रही हैं। उन्हें कैंपस में रहते काफी साल हो गए हैं। उनके मुताबिक ये पाबंदियां जो आज कैंपस में हैं पहले नही थीं। वह कहती हैं, मैं शुरू से यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में ही रही हूं। मैंने काफी रात-रात तक यूनिवर्सिटी के चक्कर लगाए हैं और सच में मुझे जितना सुरक्षित अपना परिसर लगता उतना सुरक्षित तो मैं कहीं भी महसूस नहीं करती। लेकिन ये सारी लड़कियों पर पाबंदी वाले नियम बिना लड़कियों की सलाह पर बनाए गए हैं। नियम बनानेवालों को पता ही नहीं है कि यह जगह लड़कियों के लिए सुरक्षित है या नहीं। बस उन पर लगाम लगाने की मंशा से नियम बना दिए गए हैं। आश्चर्य तो तब और भी होता है कि ये सारे नियम एक महिला वाइस चांसलर के कार्यकाल में बनाए गए हैं। माना जाता है कि व्यवस्था में महिलाओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी समाज को समावेशी बनाएगी। लेकिन सत्ता का यह चरित्र होता है कि वह शोषित को भी शोषक की प्रवृति में ढाल देता है।

अधिकतर लोगों को भी यह समझ में नहीं आता कि सुरक्षा के नाम पर तालाबंदी हो रही है और अगर इस तरह देखा जाए तो सुरक्षा तो कहीं भी नहीं है। यह एक तरह की विक्टिम ब्लेमिंग ही है जहां सुरक्षा के नाम पर जिनके साथ शोषण हो रहा है पाबंदियां भी उन पर ही लगाई जा रही हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैंपस ने समाज में गहरी हो चुकी इस पितृसत्तात्मक सोच को सही करने का यह जो तरीका निकाला है वह इस समस्या को खत्म नहीं बल्कि और मज़बूत कर रहा है। प्रशासन दोषियों के खिलाफ़ कार्रवाई करने के बजाय लड़कियों को ही कैंपस में घूमने से रोक रहा है। लड़कियों को घर से बाहर निकलने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है यह हम सब जानते हैं। लेकिन जब लड़कियों को ऐसी जगह भेदभाव का सामना करना पड़े, जिसके बारे में यह कहा गया हो कि वही तो एक ऐसी जगह है जहां समानता ही शिक्षा का मुख्य ध्येय होता है, वहां इस तरह का भेदभाव होना बेहद दुखद है।

कैंपस में एक बार सेंट्रल लाइब्रेरी से शाम पांच बजे बाहर निकलकर, चाय लेकर आते हुए कैंपस की मेन गेट पर ही गार्ड ने रोककर पूछा कि मैं कहां जा रही हूं। जवाब में मैंने कहा ग्राउंड में बैठने। उन्होंने मुझे जाने से मना कर दिया। पूछने पर उन्होंने बताया कि मैं शाम को ग्राउंड में नहीं जा सकती है। यह कैंपस के इस भेदभाव भरे नियम से मेरी पहली मुलाकात थी।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लड़कियों के लिए कई जगहों पर बैठने या रहने का समय निर्धारित कर दिया गया है। लड़कियां इतने से इतने समय तक ही इस जगह पर रह सकती हैं उसके बाद नहीं। इस भेदभाव भरे नियम का पता शायद ही लड़कियों को यूनिवर्सिटी द्वारा जारी किसी नोटिस से चलो हो। उन्हें इस बात का पता तब चलता है जब यूनिवर्सिटी का कोई गार्ड आकर उन्हें वहां से निकल जाने के लिए कहता है।

कैंपस में एक बार सेंट्रल लाइब्रेरी से शाम पांच बजे बाहर निकलकर, चाय लेकर आते हुए कैंपस की मेन गेट पर ही गार्ड ने रोककर पूछा कि मैं कहां जा रही हूं। जवाब में मैंने कहा ग्राउंड में बैठने। उन्होंने मुझे जाने से मना कर दिया। पूछने पर उन्होंने बताया कि मैं शाम को ग्राउंड में नहीं जा सकती है। यह कैंपस के इस भेदभाव भरे नियम से मेरी पहली मुलाकात थी। इस अनुभव से शायद मैं थोड़ी देर के लिए सदमे चली गई क्योंकि एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कैंपस में यह सुनना मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं था। मेरी चेतना में आते ही मैंने इसका विरोध किया यह नियम किस लिए है, नोटिस कहां है, वह कहां चिपकाया गया है, कहीं लिखा क्यों नहीं? उन्होंने सिर्फ मेरे दो सवालों का जवाब दिया और कहा कि यह सिर्फ लड़कियों के लिए है और आपकी ही सुरक्षा के लिए है। मेरे आगे कहने से पहले मेरी एक दोस्त ने कहा कि हम लाइब्रेरी ही जा रहे हैं और हम कैंपस में आ गए। ऐसे नियमों से अब मेरा सामना लगभग रोज ही होता है कभी कुछ कहती हूं तो कभी चुप रह जाती हूं।

प्रदर्शन में शामिल विद्यार्थी, तस्वीर साभार: साक्षी

अंग्रेज़ी से पोस्ट ग्रैजुएशन कर रही वर्षा (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “मुझे अपना असाइनमेंट का काम बिना खत्म किए ही वहां से निकलना पड़ा जबकि लड़के अपना काम खत्म करके ही बाहर आए। मुझे इस कैंपस के नियम तो कभी-कभी समझ में ही नहीं आते कि ये सुरक्षा के लिए हैं या हम पर लगाम लगाने के लिए। किसी सूचना के बारे में जानकारी लेने कार्यालय जाओ तो कर्मचारी हम से इतने गुस्से में बात करता है कि लगता है कि पूछकर हमने ही कोई गलती कर दी हो।”

इस मुद्दे पर यूनिवर्सिटी के छात्र आदर्श कहते हैं कि ऐसे नियम कैंपस में पहले नहीं थे। पहले लड़कियां कैंपस में रात को भी घूमती थीं। लड़कियों के ऊपर ये पाबंदियां अभी ही लगनी शुरू हुई हैं। यूनिवर्सिटी के कुछ विद्यार्थियों का यह भी मानना है कि देश में यौन हिंसा के मामले इतने बढ़ ही रहे हैं और फिर हमारा समाज भी तो ऐसा नहीं है तो पाबंदियां तो होनी ही चाहिए। विश्वविद्यालय प्रशासन को ऐसे नियम बनाने ही चाहिए और कड़ाई से उसका पालन भी करना चाहिए।

अंग्रेज़ी से पोस्ट ग्रैजुएशन कर रही वर्षा (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन की मनमानी का आलम यह है कि एक दिन उन्हें उनके विभाग से तीन बजे ही बाहर यह कहकर निकाल दिया गया कि लड़कियां तीन बजे के बाद विभाग में नही रुकती हैं। वह बताती हैं, “मुझे अपना असाइनमेंट का काम बिना खत्म किए ही वहां से निकलना पड़ा जबकि लड़के अपना काम खत्म करके ही बाहर आए। मुझे इस कैंपस के नियम तो कभी-कभी समझ में ही नहीं आते कि ये सुरक्षा के लिए हैं या हम पर लगाम लगाने के लिए। किसी सूचना के बारे में जानकारी लेने कार्यालय जाओ तो कर्मचारी हम से इतने गुस्से में बात करता है कि लगता है कि पूछकर हमने ही कोई गलती कर दी हो।”

अभी हाल ही में हुए इलाहाबाद कैंपस में छात्र संगठन आइसा के एक प्रदर्शन से एक जानकारी यह भी मिली कि इलाहाबाद के कैंपस में लैंगिक संवेदनशील मुद्दों पर कार्यवाही करनेवाली कमेटी जिसे GSCASH कहते हैं  वह मौजूद नहीं है। GSCASH एक ऐसी कमेटी है जिसमे लैंगिक संवेदनशीलता से जुड़े मुद्दों पर बाते होती है। साथ ही यौन हिंसा के मामले पर कार्रवाई की जाती है। इसमें न केवल प्रोफेसर हो बल्कि नागरिक समाज और चुने हुए विद्यार्थियों का भी प्रतिनिधित्व होता है।

प्रदर्शन में शामिल विद्यार्थी, तस्वीर साभार: साक्षी

विद्यार्थियों द्वारा यह विरोध-प्रदर्शन पहलवानों के समर्थन में और 2016 में प्रकाश में आए अर्थशास्त्र विभाग में हुई यौन हिंसा की घटनाओं में शामिल प्रोफेसरों पर कार्यवाही करने के समर्थन में, विश्वविद्यालय परिसर में GSCASH की बहाली जैसे संवेदनशील मुद्दों पर आधारित था। एक तरफ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लड़कियों की सुरक्षा को लेकर लापरवाही है और दूसरी तरफ उनकी सुरक्षा के नाम पर हजारों पाबंदियां हैं जिन्हें कड़ाई से विश्वविद्यालय प्रशासन पूरा करता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ये तमाम घटनाएं विश्वविद्यालय की स्त्री-विरोधी मानसिकता को उजागर करती हैं।


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