इतिहास मीरा मुखर्जी: आधुनिक मूर्तिकार जिसने अपनी कला में आम लोगों की कहानियां बयां की| #IndianWomenInHistory

मीरा मुखर्जी: आधुनिक मूर्तिकार जिसने अपनी कला में आम लोगों की कहानियां बयां की| #IndianWomenInHistory

मूर्तिकला में अगर नारी का विषय आता है तो वह मात्र कला और शिल्प के रूप में आता है। नारी वहां मूर्तिकार नहीं, मूर्ति होती है। मूर्तिकला में कई तरह के औजारों के इस्तेमाल के कारण भी यह माना जाता है कि औरतें इस कला का हिस्सा सीधे रूप में नहीं हो सकतीं। 

हमारा समाज पुरुष प्रधान समाज है जिसमें अधिकतर चीज़ें पुरुषों द्वारा रचित हैं ऐसे में नारीवादी सोच और उनसे जुड़ी चीज़ों को कोई ख़ास जगह प्राप्त नहीं है। ऐसा ही मूर्तिकला के पेशे में हम आज तक देखते आए हैं। मूर्तिकला हमारे समाज में पुरुष प्रभुत्व वाला पेशा माना जाता है। मूर्तिकला में अगर नारी का विषय आता है तो वह मात्र कला और शिल्प के रूप में आता है। नारी वहां मूर्तिकार नहीं, मूर्ति होती है। मूर्तिकला में कई तरह के औजारों के इस्तेमाल के कारण भी यह माना जाता है कि औरतें इस कला का हिस्सा सीधे रूप में नहीं हो सकतीं। 

मूर्तिकला की रूढ़ियों को तोड़ती मूर्तिकार मीरा मुखर्जी सभी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं। बंगाली मूल की मीरा मुखर्जी का जन्म कोलकाता में 1923 में हुआ। उनकी माता का नाम बीनापानी देवी और पिता द्विजेंद्र मोहन थे। मुखर्जी की पहचान भारतीय मूर्तिकार, लेखिका एवं चित्रकार के रूप में होती हैं। उनका मुख्य कार्य मूर्तिकला में है। छोटी उम्र से ही कलात्मक गतिविधियों में उनकी रुचि रही। मुखर्जी ने प्राचीन बंगाली मूर्तिकला में आधुनिकता लाने का कार्य किया। जो उनकी पहचान का बड़ा कारण बना। वह कांस्य ढलाई तकनीक का इस्तेमाल करने वाले कलाकारों में शामिल हैं। यह तकनीक नवीन होने के साथ साथ कठिन भी मानी जाती है। 

मीरा मुखर्जी ने जो शिल्पकारी की तकनीक अपनाई वह विशेष रूप से ‘ढोकरा’ से जुड़ी थी। उन्होंने छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी कारीगरों के तहत इस तकनीक का प्रशिक्षण लिया। मूर्तिकला की ढोकरा विधि को “लॉस्ट वैक्स” विधि के रूप में जाना जाता है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

मीरा मुखर्जी 14 साल की उम्र में ही इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट स्कूल में शामिल हुईं। जो कि अविंद्रनाथ टैगोर द्वारा संचालित था। उन्होंने वर्ष 1947 में दिल्ली पॉलिटेक्निक से चित्रकला, ग्राफिक और मूर्तिकला में डिप्लोमा हासिल किया। साल 1952 में उन्होंने अपनी पहली सोलो प्रदर्शनी लगाई थीं। साल 1953 में वह जर्मनी के म्युनिक में स्थापित हौस्चुल फर बिल्डेन्ड कुएन्स्ते से चित्रकला की पढ़ाई के लिए चली गईं। हालांकि उन्होंने अपनी यह पढ़ाई शुरुआती कुछ महीनों बाद ही मूर्तिकला के लिए छोड़ दी। उन्हें म्यूनिक की फाइन आर्ट एकेडमी में इंडो-जर्मन फेलोशिप मिली थी। जहां उन्हें कला के कई दिग्गजों के साथ काम करने का मौका मिला। टोनी स्टैडलर और हेनरिच क्रिचनेर उन पहले व्यक्तियों में से एक थे जिन्होंने उन्हें चित्रकार से मूर्तिकार बनने के लिए प्रोत्साहित किया।

मीरा मुखर्जी, तस्वीर साभारः Jehangir Nicholson Art Foundation

आदिवासी कारीगरों से लिया तकनीकी प्रशिक्षण

मीरा मुखर्जी ने जो शिल्पकारी की तकनीक अपनाई वह विशेष रूप से ‘ढोकरा’ से जुड़ी थी। उन्होंने छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी कारीगरों के तहत इस तकनीक का प्रशिक्षण लिया। मूर्तिकला की ढोकरा विधि को “लॉस्ट वैक्स” विधि के रूप में जाना जाता है। मुखर्जी ने इससे अपनी खुद की एक विधि बनाई, जिसमें कांस्य ढलाई की जाती थी। इस विधि की शुरुआत में शिल्प पर मोम से काम किया जाता है ताकि कांस्य की स्पर्शनीय प्रकृति को बनाए रखा जाए जिससे उसे आगे बनाया जाए फिर स्ट्रिप और रोल की मदद से इसे जोड़ा जा सके। 

मीरा मुखर्जी के कार्यों पर नज़र डाली जाए तो मालूम होता है कि उनके मुख्य विषय दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में लगे आम नागरिक व उनसे जुड़ी गतिविधियां हैं। उनके विषयों में मछुआरे, बुनकर, सिलाई करतीं औरतें, मज़दूर आदि शामिल हैं। इन रचनाओं और उनके लेखन कार्यों पर अनेक विद्वार और शोधकर्ता भी अध्ययन करते हैं।

कला की खोज

साल 1957 में मुखर्जी वापस अपने देश लौटीं। जब वे लौटीं तब भारत के दौरे में उन्होंने कई पारंपरिक शिल्पकारों के साथ काम किया। उनका यह दौरा अपनी “भारतीयता” से फिर जुड़ने के लिए था। उनका वापस अपने देश आना और यहां के पारंपरिक शिल्पकारों से जुड़ना उनके म्यूनिक के गुरु टोनी स्टैडलर द्वारा सुझाव दिया गया था। जिन्होंने मुखर्जी को यूरोप के स्थान पर अपने देश की स्थानीय परंपराओं में अपनी कला की खोज में आगे बढ़ने को कहा था।

तस्वीर साभारः Akara Art

भारत वापस आकर उन्होंने 1957 से कुरसेआंग में डाउनहिल स्कूल में कला शिक्षक के रूप में नौकरी की। साल 1959 तक वह उन्होंने वहां काम किया। इसके बाद वह कलकत्ता चली गई वहां उन्होंने प्रैट मेमोरियल स्कूल, कोलकत्ता में 1960 तक पढ़ाया। भारत लौटने के बाद मुखर्जी ने एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) द्वारा मध्य भारत में धातु और शिल्पकारों के साथ मिलकर काम किया। साल 1961 से 1964 तक उन्होंने एएसाई के साथ सीनियर रिसर्च फेलो के तौर पर बनी रहीं। उन्हें मध्य भारत की धातु कारीगरों के कार्यों और विधियों को दस्तावेजीकरण के लिए एएसआई द्वारा नियुक्त किया गया था। उन्होंने भारत और नेपाल के धातु-शिल्पकारों पर सर्वे किया। भारत में उनकी यात्रा मध्य प्रदेश से लेकर, उत्तर और दक्षिणी आदिवासियों तक फैली। वह कारीगरों के दैनिक जीवन और कला के संगम की खोज को बारीकी से पकड़ रही थीं। अंततः यह सर्वेक्षण 1978 में एएसआई के तत्वावधान में प्रकाशित हुआ था।

उपलब्धियां और सम्मान

मीरा मुखर्जी को कला के क्षेत्र में योगदान लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं। साल 1968 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा उन्हें प्रेस अवॉर्ड फॉर द मास्टर क्राफ्टमैन से सम्मानित किया गया। 1976 में कोलकत्ता लेडीज़ स्टडी ग्रुप की ओर से एक्सीलेंट अवॉर्ड नवाजा गया। साल 1981 में पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से अबनिंद्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मीरा मुखर्जी को 1992 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री पुरस्कार भी नवाज़ा जा चुका हैं। शिल्पकार के साथ-साथ वे एक लेखिका भी थीं। उन्होंने लेखक तौर पर कुछ बाल कहानियां और किताबें भी लिखी हैं जिनमें कालो और कोयल, लिटिल फ्लॉवर शैफाली और कैचिंग फिश शामिल हैं। इसके अलावा उन्होंने 1978 में मेटल क्राफ्ट इन इंडिया नाम से एक मोनोग्राफ भी लिखा है। उनकी लिखी किताबों में मेटल क्राफ्टमैन इन इंडिया (1979) और इन सर्च ऑफ विश्वकर्मा (1994) शामिल है।

मीरा मुखर्जी की मृत्यु 1998 में 75 वर्ष की आयु में हुई। मीरा मुखर्जी का काम न केवल भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व पर प्रभाव छोड़ने वाला हैं लेकिन उनके काम पर बहुत कम चर्चा व शोध हुआ है। मीरा को सिर्फ एक शिल्पकार के रूप में ही नहीं बल्कि कलाकार मानवविज्ञानी के रूप में भी देखना आवश्यक हैं। उन्होंने उप-महाद्वीप में यात्रा कर कला, कलाकारों और उनकी विधियों का दस्तावेजीकरण किया। मुखर्जी ने अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ लेखन को भी अपना सशक्त माध्यम बनाया।


स्रोतः 

  1. Wikipedia
  2. JNAF

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