छग्गी बाई भील का जन्म साल 1958 में राजस्थान के अजमेर ज़िले के जमोला गाँव में भील जनजाति के एक मज़दूर परिवार में हुआ था। नवीं कक्षा तक पढ़ी छग्गी बाई एक दृढ़निश्चयी और जुझारू महिला थीं। शादी के बाद लंबे वक्त तक उन्होंने घरेलू हिंसा का सामना किया। लेकिन एक वक्त आया जब उन्होंने इस हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और पति से अलग हो गईं। किसी तरह मज़दूरी कर उन्होंने अपने तीन बच्चों का पालन-पोषण किया। छग्गी बाई राजस्थान में महिलाओं के आंदोलन से बेहद प्रभावित थीं। इसलिए उन्होंने साल 1992 से महिला अधिकारों के लिए काम करना शुरू कर दिया। वह तब अजमेर के नज़दीकी गाँव बन्दिया में रह रही थीं, जो रसुलपुरा ग्राम पंचायत में आता है।
पंचायती राज संस्था और छग्गी बाई का सरपंच बनना
पंचायती राज व्यवस्था के तहत महिलाओं के लिए आरक्षण आया। रसुलपुरा गाँव में जनरल महिला सीट आई तो लोग छग्गी बाई के पास आए और कहा कि वह चाहते हैं कि वे चुनाव में खड़ी हो। छग्गी बाई ने लोगों से कहा था कि उन्हें सरपंच बनने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन जब लोग नहीं माने तब उन्होंने इसके लिए अपनी सहमति दे दी। हालांकि, उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह बाहरी दबाव में काम नहीं करेंगी और जो गाँव पंचायत के हित में होगा वही काम करेंगी। चूंकि छ्ग्गी बाई वर्ग और जाति के आधार पर एक हाशिये के समुदाय से आती थीं वह सत्ता और इस पर होनेवाले खर्च से भलीभांति परिचित थीं। वह इस खर्च को उठाने में समर्थ नहीं थीं। इस कारण उन्होंने कहा कि जो पैसा लोग चुनाव में लगाएंगे उसे वह लौटा नहीं पाएंगी।
भील समुदाय से आने के बावजूद, उन्होंने चुनाव एक जनरल महिला सीट पर जीता। उनके भील समुदाय से आने की वजह से उनके चुनाव जीतते ही माहौल बिगड़ गया। पुलिस ने उन्हें स्कूल से निकाला जहां चुनाव से जुड़ी प्रक्रिया चल रही थी। पुलिस की गाड़ी और बीच में उनकी गाड़ी के साथ एक बड़ी रैली आस-पास के गाँवों से गुजरती हुई निकाली गई। फिर एक आम सभा हुई और उन्हें आदो शब्द बोलने के लिए कहा गया तब उन्होंने कहा था, “आप लोगों ने मुझे खड़ा तो कर दिया, अब अकेली छोड़ दो जो मुझे ठीक लगेगा मैं वही करूंगी। किसी गलत काम के लिए आप मुझे दबाकर नहीं रखेंगे न ही यह कहेंगे कि हमने तुम्हें सरपंच बनाया है तो यह काम करना ही पड़ेगा।”
ग्रामीण परिवेश में जहां औरतों के लिए दायरे और नियम तय कर दिए जाते हैं। जहां पितृसत्ता का दबाव उन्हें कुछ भी कहने और सुनने की अनुमति नहीं देता। वहां, पंचायती राज अधिनियम औरतों के लिए एक नया बदलाव लेकर आया। इस व्यवस्था के तहत उन्हें आरक्षण दिया गया ताकि पंचायत में औरतों की भूमिका और भागीदारी बढ़े। लेकिन पितृसत्ता और राजनीति में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कई क्षेत्रों में औरतों को इसलिए ही सरपंच के चुनाव में खड़ा करते हैं ताकि उनके सरपंच बनने पर भी उनका पति सरपंच पति बनकर पद का भार संभाले, पंचायत का काम करे और औरत घर में रह कर घर संभाले। सिर्फ कहने मात्र को तो सरपंच औरत होती पर पुरुष ही उसके सारे फैसले लेते हैं और अपने हिसाब से पंचायत चलाते।
सत्ताधारियों के दबाव के खि़लाफ़ छगगी बाई का संघर्ष
सरपंच बनकर काम करना छग्गी बाई के लिए हर दिन चुनौतीपूर्ण था। लेकिन उन्होंने हर चुनौती का हिम्मत से सामना किया। भ्रष्ट राजनीति का हिस्सा न बनते हुए ईमानदारी से काम करने के कारण पूर्व सरपंच ने उन्हें मारने की धमकियां दी और उन्हें काफी अपशब्द कहे। पंचायत मुख्यालय के लोग पूर्व सरपंच के ही साथ थे और छ्ग्गी बाई का मज़ाक उड़ाते। उन्हें सरपंच पद से उन्हें हटाने के लिए उनके समुदाय के लोगों के साथ मार-पीट भी की गई। पंचायत की पहली ग्राम सभा में उन्हें बोलने तक नहीं दिया गया। शुरुआत में तो कई तथाकथित उच्च जाति की औरतों ने छग्गी बाई से मदद लेने से एकदम इनकार कर दिया।
पंचायत मुख्यालय के अधिकारी भी छग्गी बाई के काम में रुकावट डालते। लेकिन उन्होंने अपनी मदद के लिए दलित समुदाय के लोगों को इकट्ठा किया। उन्हें स्थानीय विकास योजनाओं पर जानकारी देनी शुरू की। साथ ही योजनाओं को लागू करने के लिए कई प्रस्ताव पारित किए। बाधाओं के बावजूद छग्गी बाई ने अपने गांव के लिए काम करना जारी रखा। एक अवैध शराब की दुकान के खिलाफ स्थानीय महिलाओं के साथ प्रदर्शन कर उसे बंद करवाया। उनकी हिम्मत को तोड़ने का कई तरह से प्रयास किया गया। जब कुछ भी कारगर नहीं हुआ तो साल 1998 में छग्गी बाई के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर इस आरोप के साथ पद से हटा दिया गया था कि उन्होंने विकास संबंधी योजनाओं की अनदेखी की। इसके बावजूद छग्गी बाई ने हिम्मत नहीं हारी, वह लोगों के साथ मिलकर अपने काम में डटी रहीं।
साल 1999 में जब एकल नारी शक्ति संगठन का गठन किया जा रहा था, तब छग्गी बाई ने इस संगठन को खड़ा करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस संगठन के ज़रिये उन्होंने एकल औरतों को संपत्ति में अधिकार दिलाने में मदद की। एकल औरतों के साथ होनेवाली शारीरिक, यौन और मानसिक यातना का विरोध किया। विधवाओं के अधिकारों के लिए सरकार के पास जाकर पैरवी की। 20 सालों में, छग्गी बाई ने हज़ारों की संख्या में एकल औरतों को लामबंद और संगठित किया। पेंशन राशि बढ़ाने और विधवाओं के पेंशन के संबंध में नियमों में बदलाव के लिए सरकार से पैरवी की। छग्गी बाई अपने जीवनकाल में राजस्थान के कई महत्वपूर्ण आंदोलनों का हिस्सा रहीं। 21 मई 2019 को 61 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई। लेकिन उन्होंने जो आंदोलन खड़ा किया वह सबके लिए आज एक मार्गदर्शक और प्रेरणा स्त्रोत है।
स्रोत:
- महिला जन अधिकार समिति
- प्रकाशन – पंचायत लुगायां री, महिला जन अधिकार समिति