इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत अवध के पंचायती चुनावों और राजनीति में स्त्री की भूमिका का ज़मीनी सच

अवध के पंचायती चुनावों और राजनीति में स्त्री की भूमिका का ज़मीनी सच

पंचायती चुनाव में उनकी स्थिति को देखेंगे तो मन संताप से भर जाता है क्यों कि अब यह समय था कि वे थोड़ी सी पितृसत्ता से निकल सकती थीं अपनी आनेवाली पीढ़ी को सजग कर सकती थीं पर चेतना नहीं होने के कारण वह मात्र एक उपकरण बनकर रह गई हैं जिसे घर-परिवार समाज अपनी इच्छा से संचालित करता है।

निराला की एक प्रसिद्ध कविता है, “वह तोड़ती पत्थर” कविता के मध्य में एक पंक्ति आती है: “देखकर कोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से , जो मार खा रोई नहीं।” यह जो पंक्ति है, “मार खा रोयी नहीं” मैं अवध की स्त्रियों की समूची अस्मिता को निराला की इसी पंक्ति के सार में देखती हूं। जिन बातों पर राज्य और समाज को शर्मिंदा होना चाहिए उसके लिए भी क्या स्त्रियां ही शर्मिंदा हो। पूंजी और व्यवस्था अपनी सुविधानुसार उनको कहीं भी रख देना चाहती है वस्तु की तरह और जब वे उसमें लड़खड़ाती हैं तो यही लोग उस पर सवाल भी करने लगते हैं। हालांकि, यह लड़खड़ाहट सत्ता की ही बनाई हुई परंपरा और रूढ़ियों के कारण होता है 

जब अवध में पंचायती चुनाव हो रहे थे तो महिला उम्मीदवारों को लेकर कई खबरें सोशल मीडिया पर मीम की तरह घूमती रहीं। इनमें ग्रामीण महिला उम्मीदवारों की योग्यता को लेकर बहुत से सवाल उठ रहे थे। लेकिन जब हम थोड़ा सा गंभीर होकर सोचते हैं तो सवाल स्त्री पर नहीं राज्य की सत्ता पर सदियों से उनकी अस्मिता पर काबिज मर्दवादी समाज पर उठते हैं। देखा गया कि ग्रामीण महिला उम्मीदवारों के नामांकन के दिन ब्लॉक पर जब वे अपने अपने नामांकन की औपचारिक शर्तों को पूरी करने के लिए आई तो मीडिया के कुछ पत्रकारों ने उनसे इस चुनाव से जुड़े सामान्य से सवाल किए। जैसे प्रदेश के राज्यपाल का क्या नाम है, चुनाव आयोग का अध्यक्ष कौन है, आपके जिले के जिलाधिकारी का क्या नाम है। इसी तरह प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का नाम भी पूछा गया जिसका वे जवाब नहीं दे पाई।

सवाल सामान्य ही थे लेकिन उन महिला उम्मीदवारों ने एक भी जवाब इस तरह नहीं दिया जिससे ये साबित होता कि वह एक जिम्मेदार नागरिक हैं। हो सकता है बहुत सारे लोगों को ये बात बहुत अचरज़ की लगे लेकिन इस जमीन को करीब से जानने वालों अचरज नहीं होगा क्योंकि यही सच है अवध की स्त्रियों का। कई सारे वीडियो दिखे जो एक नज़र देखने पर हास्यास्पद लग रहे थे लेकिन जैसे संवेदना न्याय की तरफ घूमती सब कुछ कारुणिक और विडम्बना से भरा लगता है।

इसमें एक बात जो जटिलता में आती है कि किसी विडम्बना से भरे दृश्य को किस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। एक तो ये स्त्रियां वास्तव में बहुत कम जागरूक होती हैं, दूसरा इस तरह पुरुषों की भीड़ में घबराहट में कुछ बोल पा रही हैं, कुछ नहीं बोल पा रही हैं क्योंकि उन्होंने अभी तक अपने जीवन में ऐसे लोगों का सामना नहीं किया होता तो असहज हो जाना स्वाभाविक है। एकाध सवाल के जवाब उन्होंने ठीक-ठीक दिया भी तो किसी-किसी को एकदम से किसी सवाल का जवाब पता ही नहीं था। अब समझना यह है कि ऐसा नहीं था उसमें से सब बहुत कम पढ़ी-लिखी थीं या एकदम से चेतनाशून्य थीं। यह सिर्फ और सिर्फ इस सामाजिक ढांचे की देन है जहां स्त्रियों को ऐसा ही रखा जाता है। इतना संकोच करना, डरना-झुकना, सिर न उठाना, परिवार समाज में सिखाया जाता है कि वो कभी चाहकर भी बोल नहीं पाती और जब एकाएक उनका इस परिस्थिति से सामना होता है तो एकदम से ठीक ठीक नहीं उसमें फिट नहीं बैठतीं। मनुष्य रोबोट नहीं है कि यंत्रवत व्यवहार कर ले।   

इस चुनावी ज़मीन को देखे तो समझ में आ जाता है यहां महिलाओं की चुनाव में भागीदारी नहीं चुनाव का भ्रम बनाया जाता है। खुद से फैसला लेना तो उनके लिए खुद ही टेढ़ी खीर है, उन्हें उससे जुड़ी औपचारिकताओं से भी दूर रखा जाता है। चुनाव प्रचार में गाँव में घूमते हुए खुद कहती रहती हैं, “मुझे तो कोई नहीं जानता , मैं तो घर में रहती हूं, पंचायत का कामकाज पुरुष ही देखगें।”

वह रिपोर्टर उन स्त्रियों से जवाब  न पाकर उन्हें अयोग्य बताकर, उन पर पर सवाल कर रहे थे। सवाल हो भी सकता है लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार कौन है। एक बात जो सबसे अहम है कि जो पुरुष उम्मीदवार होते हैं क्या सबके सब योग्य होते हैं। कितनी शिक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ होती है उन सबमें। हम सब बखूबी जानते हैं लेकिन एक अभ्यास होता है समाज और बाहर की दुनिया में निकलने का, वहां रहने और उस व्यवहारिकता में शामिल होने का। वहीं, गंवई स्त्रियों का जीवन बहुत बंधा होता है कुछ वर्ग में तो खेत-खलिहान में श्रम करने के लिए जाती हैं और वर्गों में तो सारा का सारा जीवन घर की परिधि में बीत जाता है।

इसी क्रम में एक चैनल पर देखा कि घूंघट निकाले एक स्त्री उम्मीदवार से पत्रकार कुछ एक सवाल करने लगे एकाध सवालों के जवाब देने के बाद जब वह बाकी सवालों के जवाब नहीं दे पाई तो साथ में आई महिला उम्मीदवार के घर की एक प्रौढ़ महिला बहुत गर्व और समझदारी से समझाने लगी पत्रकार को कि अब बहुत ज्यादा ये सब पुरुषों वाली बातें ये नहीं जानतीं। गौरतलब इसमें ये है कि घर की वह प्रौढ़ स्त्री इस शर्म के विषय को भी गर्व से बता रही थी। हम सब जानते इसमें उसकी कोई गलती नहीं है। उनकी जैसी तमाम स्त्रियों की निर्मिति ही इसी तरह हुई है कि जितना वह न जाने उतनी ही मर्यादित मानी जाएंगी।

वह स्त्री न राजनीतिक परिदृश्य जानती है और न जानना चाहती है। किसी भी बुनियादी मुद्दे पर उनसे आप बात नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा नहीं है कि वे कम अक्ल या उदासीन होतीं हैं। लेकिन इनके पास सदियों से चली आ रही सामाजिक नीतियों में रहने चलने का परिणाम है। यहां का स्त्री चिन्तन धर्म, संस्कृति को बचाने में लगा रहता है। उसे सबसे ज्यादा उसी की चिंता होती है। जो कुछ पढ़ी-लिखी या आत्मनिर्भर स्त्रियां हैं वे और भी ज्यादा धर्म-संस्कृति का हवाला दे रही हैं। एक तरह से यह दिखता है कि ये सत्ता के संरक्षण में रूढ़ियों को और मजबूत करती हैं। आप यहां की जमीन का अध्ययन करके देखेगें तो स्त्रियां पहले से कहीं अधिक धर्म संस्कृति और घर-परिवार के लिए आरक्षित हो गई हैं।

यह सिर्फ और सिर्फ इस सामाजिक ढांचे की देन है जहां स्त्रियों को ऐसा ही रखा जाता है। इतना संकोच करना, डरना-झुकना, सिर न उठाना, परिवार समाज में सिखाया जाता है कि वो कभी चाहकर भी बोल नहीं पाती और जब एकाएक उनका इस परिस्थिति से सामना होता है तो एकदम से ठीक ठीक नहीं उसमें फिट नहीं बैठतीं। मनुष्य रोबोट नहीं है कि यंत्रवत व्यवहार कर ले।  

जब यहां के पंचायती चुनाव में उनकी स्थिति को देखेंगे तो मन संताप से भर जाता है क्यों कि अब यह समय था कि वे थोड़ी सी पितृसत्ता से निकल सकती थीं अपनी आनेवाली पीढ़ी को सजग कर सकती थीं पर चेतना नहीं होने के कारण वह मात्र एक उपकरण बनकर रह गई हैं जिसे घर-परिवार समाज अपनी इच्छा से संचालित करता है। अपने ही गाँव के पंचायती चुनाव में मैंने देखा कि पोस्टर में महिला उम्मीदवार की फोटो लगाने को लेकर बड़ा बवाल हो गया किसी ने महिला उम्मीदवार के पति को बताया कि विपक्ष की तरफ कोई व्यक्ति पोस्टर पर लगी महिला उम्मीदवार की तस्वीर को चूम रहा था। बस यह खबर पाते ही महिला उम्मीदवार का पति काफी नाराज हुआ। कुछ गहमा-गहमी के बाद पोस्टर से तस्वीर हटवाकर नये पोस्टर बने पुराने सब पोस्टर हर जगह से फाड़ दिए गए। 

इसी तरह की अजीबोगरीब घटनाएं यहां पंचायत चुनाव में आम हैं जिसमें ज्यादा से ज्यादा ये असंवैधानिक बात का महिमामंडन किया जाता है कि स्त्री उम्मीदवार कितनी कम उम्मीदवार है। चुनाव जीतने के बाद जो शपथग्रहण की औपचारिकता होती है उसमें भी ज़्यादातर महिला उम्मीदवार के पति शपथ लेने जाते हैं। एक ही नज़र में जब कोई गंभीर दृष्टि से इस चुनावी ज़मीन को देखे तो समझ में आ जाता है यहां महिलाओं की चुनाव में भागीदारी नहीं चुनाव का भ्रम बनाया जाता है। खुद से फैसला लेना तो उनके लिए खुद ही टेढ़ी खीर है, उन्हें उससे जुड़ी औपचारिकताओं से भी दूर रखा जाता है। चुनाव प्रचार में गाँव में घूमते हुए खुद कहती रहती हैं, “मुझे तो कोई नहीं जानता , मैं तो घर में रहती हूं, पंचायत का कामकाज पुरुष ही देखगें” और ये सारी बातें वे किसी शर्मिंदगी में नहीं गर्व कहती हैं। यही उनका झूठा गर्व, चेतनाहीन होने की पराकाष्ठा है और बेहद दुखद है। जब किसी समाज में शोषक  की विचारधारा शोषित के भी विचार बन जाएं तब उस समाज का संकट ज्यादा गहरा हो जा जाता है।

मैं जहां रहती हूं उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील की बात है। अपनी ही पंचायत की एक पढ़ी-लिखी स्त्री जिसने इतिहास विषय से परास्नातक किया है पंचायती चुनाव में उम्मीदवार है। इसके पहले उनके पति ग्रामपंचायत के प्रधान थे। इस बार यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित वर्ग में है तो मजबूरी में उन्होंने अपनी पत्नी के नाम से नामांकन किया है। यह महिला उम्मीदवार अपने पति से कहीं ज्यादा शिक्षित है और एक मानवीय मूल्यों को लेकर उनकी अपनी संवेदनात्मक समझ भी , इन सबके मैं  बावजूद मैं देख रही थी वो जहां  भी जाती गाँव की महिलाओं से वोट मांगने तो उन्हें भरोसा दिलाती कि प्रधान उनके पति ही रहेंगे, वही पंचायत का सब काम देखेंगे मैं तो बस इसलिए हूं कि सीट महिला उम्मीदवार की थी और महिलाएं इस बात से खुश हो जातीं। अब इसमें ये देखना है कि क्यों वह महिला उम्मीदवार एक जो सच है जमीन का और संवैधानिक रूप से गलत उस बात का इस तरह महिमामंडन कर रही हैं। जवाब वही है क्योंकि समाज में पुरुष क्या स्त्रियां तक स्त्रीद्वेषी हैं, वे नहीं चाहती कि पारम्परिक सत्ता या कोई भी सत्ता हो स्त्री उसपर काबिज़ हो या उनके ही बीच की कोई स्त्री पुरुषों के लिए बने किसी पद पर आसीन हो।

तमाम बहसों और वैचारिक उद्विग्नताओं के बावजूद यदि स्त्री समाज में अपनी यथास्थिति से नहीं उबर पा रही है तो यह हमारी सामाजिक संरचना के उथलेपन की निशानी है। इसी उथलेपन को लेकर अपनी कविताओं में विक्षुब्ध होती हैं, तंज कसती हैं और औरत की असली आजादी के लिए संघर्षशील रहती हैं। पूरे ग्रामीण समाज में पंचायती चुनाव में स्त्रियों की तथाकथित भागीदारी को छिपाया नहीं शान से बताया जाता है। पूरा चुनाव सिर्फ महिलाओं के हस्ताक्षर और पोस्टर में लगी तस्वीर भर की भागीदारी में होता है। जबकि मैं जब मैं स्त्रियों से बात करती हूं शहरी, गंवई, कस्बाई, पढ़ी-लिखी या कम पढ़ी-लिखी या एकदम अनपढ़ तो मुझे ये देखकर अचरज हुआ कि चेतना के स्तर पर वे पुरुषों की तरह कट्टर नहीं हैं या हम सब जानते हैं जैसी गर्वीला बोध नहीं है। कुछ बहसें और अपनी बात वो करेंगी लेकिन अधिकार और न्याय की बात पर वो पुरुषों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील। भले वो एकदम से मुक्ति का न हो लेकिन वो उस दुनिया की बातें जानना चाहती हैं जो गैरबराबरी और न्याय की बात करता है जो पर्यावरण या धरती बचाने की बात करता है। 


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