आज के समय में अफ़वाह जैसी फ़िल्म बनाना साहस का काम है। शोषण, दमन ,साम्प्रदायिकता और श्रम की घनघोर लूट के इस समय में सत्ता की चारण-वंदन ऐसे हो रही है जैसे एक प्रतिस्पर्धा चल रही है। हर कोई सत्ता को बताना चाहता है कि हम आपके सबसे बड़े सगे हैं। कोई अगर अल्पसंख्यक समुदाय की पीड़ा की बात कहीं लिखता है तो भद्दे तरीके से उसका मज़ाक बनाया जाता है, गालियां दी जाती है जिनके लिए करोड़ों ट्रोल्स सोशल मीडिया पर बिठाए गए हैं। नफरत और हिंसा फैलाना हमेशा से बहुत आसान काम रहा है। आज सोशल मीडिया के समय में जैसे इस कुकृत्य को पंख लग गया है। लेकिन सौहार्द ,चेतना और गैरबराबरी की बात करना उसे लोगों तक पहुंचाने का माध्यम निर्माण करना हर तरह से मुश्किल काम है।
जिस देश मे लीचिंग की खबरें सामान्य खबरों की तरह देखी जाती हैं। जहां गाँव-गाँव में लव-जिहाद का झूठ ऐसे फैल गया है जैसे वह कोई सर्वकालिक सच हो। गाँव-जवार में जो लोग सदियों से एक साथ बसर करते आए हैं आज इस समय में वे एकदूसरे को संदेह से देखते हैं। सुधीर मिश्रा की फ़िल्म ‘अफवाह’ नेटफ्लिक्स पर आई है। फ़िल्म का विषय वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक समय है। आज देश का जो वातावरण है वह फ़िल्म के दृश्यों में परछाई की तरह नहीं प्रतिबिंब की तरह उतर आया है। हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता का जो जहर सत्ता ने देश में भर दिया है, धर्म-जाति की राजनीति करनेवालों के लिए यह फ़िल्म एक आईना है।
इस फ़िल्म में लिंचिंग की घटना को दिखाया गया है जिसमें ट्रक का चालक एक मुसलमान व्यक्ति है उसकी लिंचिंग करने के लिए भीड़ तैयार हो ही रही थी कि रास्ते में उसकी हत्या किसी दूसरे कारण से हो जाती है। उसे रास्ते में एक जगह ज़मीन खोदकर दफ़ना दिया जाता है। फ़िल्म में इस दृश्य को देखकर एक घटना ज़हन में उतर आई। पिछले हप्ते बीबीसी पर एक लिंचिंग की खबर आई थी। बिहार के सारण ज़िले में लिंचिंग की घटना हुई। फिल्म के दृश्य और यह घटना समान नज़र आई। लगा जैसे दोनों एक ही ज़मीन के व्यक्ति थे।
बिहार में जिस ट्रक चालक की हत्या की गई, वह विकलांग थ। घर में बहुत आर्थिक दिक्कतें थीं बुजुर्ग माँ और बेटियां थीं। सबकी जिम्मेदारी उन्हीं पर थी। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक उनकी बेटी सैद्दुनिशा कहती हैं, “मेरे पापा बहुत लाचार थे। हम लोगों ने कई बार काम छोड़ने को भी कहा क्योंकि वह पैर से लाचार थे। लेकिन अपनी औलादों के लिए नाइट ड्यूटी करने लगे कि थोड़ा पैसा कमा लेंगे तो घर बढ़िया से चलेगा। मेरे पापा कोई अवैध काम तो कर नहीं रहे थे उनकी हत्या क्यों की गई?” इस लड़की के सवाल का जबाब इस सत्ता और समाज के पास नहीं है।
फ़िल्म ने दूसरे जो सबसे संवेदनशील मुद्दे को उठाया है वह है लव जिहाद। यह एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिस पर किसी सार्वजनिक जगह बात करते हुए अगल-बगल आपको देखना होता है क्योंकि आज समाज में इसका इतना ज़हर भर गया है कि आप कही इसका खंडन करने लगो तो लोग हिंसक होने लगते हैं। फ़िल्म ने बहुत सहजता और संजीदगी से इस पूरे मुद्दे पर बात की है। फ़िल्म की नायिका निवि (भूमि पेडनेकर) घर से इसलिए भागती है क्योंकि उसकी शादी गलत व्यक्ति से तय कर दी गई है। भागते हुए रास्ते में उसे रहाब (नवाज़ुद्दिन सिद्दकी) मिलता है। वह उससे मदद लेती है और इधर सोशल मीडिया पर यह फैला दिया जाता है कि एक हिन्दू लड़की को एक शादीशुदा मुसलमान व्यक्ति बहकाकर भगा ले गया। इस घटना को लव जिहाद का मामला बताकर नफरती समूह इसे भुनाने में लग जाता है। भीड़ रहाब की जान लेने के लिए उसके पीछे पड़ जाती है।
फ़िल्म की नायिका निवि और रहाब के बीच जो एक सहज मनुष्य होने का संबंध दिखता है इस फ़िल्म का सबसे मज़बूत और मानवीय पक्ष है। फ़िल्म में उनके बीच कोई प्रेम या प्रणय भाव जैसा कुछ नहीं दिखाया गया। स्त्री-पुरुष के संबंध को यहां सदियों पीछे खड़े होकर नहीं देखा गया है। स्त्री पुरुष सहज मनुष्य हैं उनके बीच भी महज मनुष्य बोध हो सकता है। जरूरी नहीं कि वहां हमेशा प्रेम या कोई अन्य संबंध ही स्थापित हो। फ़िल्म में यह इस नैसर्गिक बोध को देखकर मुझे बहुत पहले देखी गई फ़िल्म ‘आदमी और औरत’ की याद आई उसमें एक स्त्री और एक पुरुष आपदा में साथ चलते हैं लेकिन उनके बीच मनुष्यता का ही एक संबंध रहता है। इसी तरह इस फ़िल्म में भी नायक और नायिका के बीच मनुष्यता को छोड़कर कोई संबंध नहीं घटता। यहां कोई अन्य संबंध न घटना एक बहुत बड़ी परिघटना है। यह बहुत ज़रूरी भी है क्योंकि आज जिस तरह समाज में स्त्रीद्वेष का ग्राफ बढ़ा है तो ऐसे स्त्री-पुरुष में मानवीय संबंधों को प्रमुखता देना एक सामाजिक ज़िम्मेदारी भी है। फ़िल्म जिस तरह से दोनों सहजता से बात करते हुए चल रहे हैं स्त्री-पुरुष की मित्रता का पर्याय है उनके महज मनुष्य होने का पर्याय है। समाज में इस दृटिकोण का विस्तार और प्रसार होना बहुत ज़रूरी है।
आज समकालीन राजनीति का जो रंग-ढंग है वहां हिंसा पहले से कहीं आगे निकल चुकी है। जब धर्म और जाति की राजनीति होती है तो उसमें उनके हथियार हिंसा का अहम रोल हो होता है। चंदन इसमें एक ऐसा चरित्र है जिसका इस्तेमाल दंगे कराने हत्या कराने के लिए किया जाता है और फिर एक दिन उसे मार दिया जाता है। चंदन को देखते हुए इस तरह के कितने लोगों की हत्याएं याद आई। जैसे सत्ता के लिए यह मनुष्य एक खिलौना होते हैं। राजनीति में लोगों का इस्तेमाल करना फिर उनसे जरा भी नुकसान हो तो उनकी हत्या कर देना।
इस फ़िल्म ने जितनी पारदर्शिता से लिटफेस्ट फेस्टिवल कल्चर का क्रूर चेहरा उघाड़ा है। इससे पहले शायद कभी इस तरह से लिटफेस्ट कल्चर पर इतनी साहसिक बात हुई हो। कला और सौंदर्य के नाम पर हो रहे इन कार्यक्रमों में सबसे ज्यादा कला और सौंदर्य को नुकसान पहुंचाया जाता है। फ़िल्म के आखिरी के दृश्यों में हॉस्पिटल से भागकर निवि और रहाब जहां पहुंचते हैं वहां एक किले के अंदर लिटफेस्ट कार्यक्रम चल रहा है। वह कला ,साहित्य, संगीत का एलीट आयोजन है जिसमें रहाब की पत्नी नंदिता भी शामिल है।
रहाब किले का दरवाजा पीट रहा है नंदिता खोलने के लिए लोगों से विनती कर रही है लेकिन लिटफेस्ट चलता रहता है। रहाब को चाकू मार दिया जाता है लेकिन कला की दुनिया का दरवाजा नहीं खुला। वह कभी खुलता भी नहीं। वह तो खाए-पिए, अघाए तटस्थ लोग हैं। उनकी मनशायन की दुनिया है लिटफेस्ट कल्चर जहां वह मनुष्यों से मनोरंजन करते हैं। यह वही बिरादरी है जो सब बेचना जानते हैं। जिस तरह सांप्रदायिकता की राजनीति करनेवाले जानते हैं कि इस देश में सबसे ज्यादा यही चलेगा क्यों कि अधिकतर लोगों के भीतर जज्ब हैं ये चीजें। उसी तरह कला के ये ठेकेदार भी जानते हैं कि क्या खूब बिकता है। अब तो यह बहुत अधिक लिटफेस्ट कार्यक्रम डर पैदा करते हैं क्यों कि थोड़े से बचे लोग भी बचे रहे जाएंगे यह इस उम्मीद पर प्रहार है।
उन कार्यक्रमों की सारी रूपरेखा और बहसें मौजूदा दौर की चुनौतियों से बच निकलने की बहानेबाजी और कला के नाम पर न कहने की चालाकी से बनी होती हैं। वहां का पूरा वातावरण रंगा-रंग उत्सव जैसा होता है। अभिजात्यता के चलन में मनोरंजन चलता है मनुष्य के मुद्दे वहां छोटे होते हैं। दरअसल उनका उद्देश्य यही होता है कि सत्ता तक यह संदेश जाए कि हमें किसी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। यह एक ‘गैर-राजनीतिक’ पक्ष है। वे लोग जो सत्ता का विरोध करते हैं वे उनके साथ नहीं हैं। वे तो प्रेम कला संगीत साहित्य के लोग हैं। देश की राजनीति में जो चल रहा है उस राजनीति से उनका कोई वास्ता नहीं। फ़िल्म के उस दृश्य में चल रहा उनका राग-रंग जैसे कला की रुलाई है। वे कला और साहित्य और सौंदर्य की ऊंची-ऊंची बात करते हुए डरे हुए लोग हैं। ये मनुष्य की आर्त पुकार को अनसुना करके सब सुंदर है सब मोहक है गाते रहते हैं। रहाब की चीखें शोषितों की चीखें हैं। किले का दरवाज़ा न खुलना इनकी आत्मा के न खुलने का प्रतीक है। गोकशी और लव जिहाद की लिंचिंग में फंसे घायल रहाब और निवि इस देश के अल्पसंख्यकों का सच हैं।
लैंगिक भेदभाव का कितना गहरा असर है समाज में इसका उदाहरण फ़िल्म में बहुत प्रभावशाली ढंग से आता है। निवि चंदन के मालिक की बेटी है लेकिन फिल्म के किरदार चंदन (शरीब हाशमी) को लगता है कि मंगेतर को गोली मारने का अधिकार है। निवि को गोली लगने की बात पर वह कहता है “गलत किया लड़के ने ये हक तो बन्ना (सुमित व्यास) का है। इस फ़िल्म ने जेंडर के मुद्दे पर भी बात की है। पुलिस ऑफिसर का अपनी जूनियर ऑफिसर लड़की का यौन शोषण करना और समाज में उसकी स्वीकार्यता कितनी अश्लील है कि उस लड़की की माँ उसे अपनी बेटी के जीवन की उपलब्धि मानती है। ये जेंडर का भेदभाव नीचे से लेकर ऊपर तक व्याप्त है। निवि के पिता अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी निवि को न बनाकर अपने दामाद को बनाना चाहते हैं।
फ़िल्म में एकाध बार मसाला फ़िल्म का रंग दिखा लेकिन इससे फ़िल्म की सार्थकता पर कोई असर नहीं है और सामान्य जनों तक फ़िल्म के प्रसार के लिए वह जरूरी लगता है। फ़िल्म देखनेवालों की बड़ी संख्या है जो महज मनोरंजन के लिए फ़िल्म देखते हैं तो ऐसे लोगों तक भी फ़िल्म पहुंचे। वे समय की पीड़ा को समझें सत्ता की धूर्तता को जाने तो फ़िल्म का बनना सच्चे अर्थ में सफल होगा।
फ़िल्म का अंत सुखद है वह आनेवाले समय में आस का होना दर्शाता है। प्रगतिशील स्त्री का राजनीति में आना एक हाशिये के मनुष्य का सत्ता में भागीदारी के साथ बहुत सारी रूढ़ियों का टूटना भी होता है। हालांकि इसमें बहुत सतहें हैं। जाति, वर्ग, धर्म और पूंजी का क्रूर दखल होगा लेकिन स्त्री अपनी राह की कुछ सीढ़ी तो चढ़ी है। अपनी इच्छा व अस्मिता के कुछ सवाल तो उसने हल ही किये हैं। आज खूब सारी अफवाह जैसी फ़िल्म बनना चाहिए। जो लोगों को जोड़ने का संदेश देती हैं। जो धर्म सम्प्रदाय जाति व असमानता के खतरे से हमें आगाह करती हैं। भीड़ में बदलते देश के लिए जानना आवश्यक है कि अफवाह पर यक़ीन करना कितना भयावह होता है।