संस्कृतिसिनेमा स्कूप: सनसनीखेज़ मीडिया का भीतरी सच और पितृसत्ता की भेंट चढ़ा एक महिला पत्रकार का पूरा जीवन

स्कूप: सनसनीखेज़ मीडिया का भीतरी सच और पितृसत्ता की भेंट चढ़ा एक महिला पत्रकार का पूरा जीवन

जागृति पाठक मीडिया के ग्लैमर वर्ल्ड से आई। उसके साथ लड़ने के कुछ लोग रहे लेकिन न जाने कितने और भी बहुत सारे बेगुनाह लोग हैं जो इस व्यवस्था का शिकार हैं और जेल में बंद हैं जिनको आज तक न्याय नहीं मिला। इन लोगों की कहीं कोई बात नहीं होती। सीरीज़ बहुत कुछ कहते हुए भी बहुत कुछ छोड़ देती है जैसे आखिरी में पुलिस और नेताओँ और अपराधियों के गठजोड़ पर एक स्पष्ट दृश्य बनाना ज़रूरी लगा था।

समाज और बाज़ार दोनों के लिए स्त्री वस्तु होती है। वह उसके साथ अपने हिसाब से व्यवहार करना चाहता है। जब स्त्री बाज़ार और सत्ता का हिस्सा बनने लगती है तो उस तंत्र में जहां मानवीय मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रह जाता तब स्त्री को भ्रम हो जाता है कि वह कोई मोहरा नहीं उस खेल की खिलाड़ी है। तब वह यह भूल जाती है कि खेल में अब भी सबसे ऊपर पुरुष ही बैठे हैं जो महिलाओं को शामिल तो करते हैं अपने खेल में पर खिलाड़ी तरह नहीं मोहरे की तरह।

नेटफ्लिक्स पर हाल ही में रीलीज़ हुई वेबसीरीज़ ‘स्कूप’ में केवल मीडिया की दुनिया का सच ही नहीं बल्कि सत्ता में सबसे ऊपर बैठे लोग, पुलिस तंत्र और अपराध जगत के आपसी संबंधों की एक पड़ताल भी दिखाती है। इन सबके बीच के संबंध थ्रिलर की तरह कहानी में चलते हैं। हंसल मेहता के निर्देशन में बनी यह वेबसीरीज़ एक सच्ची घटना पर आधारित है। जब साल 2011 में मुंबई के क्राइम पत्रकार ज्योतिर्मय डे की गोली मारकर हत्या की गई थी, इसी सिलसिले में गिरफ्तार पत्रकार जिग्ना वोरा की आत्मकथा ‘Behind Bars in Byculla: My Days in Prison’ पर यह सीरीज़ आधारित है।

वेबसीरीज़ में पत्रकार जागृती पाठक को बेदर्दी से अदालत में खीचतें हुए ले जाने का दृश्य रिया चक्रवर्ती की याद दिला रहा था। कैसे अदालत के बाहर मीडिया और भीड़ रिया चक्रवर्ती से दुर्व्यवहार कर रही थी। जागृति पाठक की तरह रिया चक्रवर्ती का भी दोष यही था वह एक महत्वाकांक्षी स्त्री थी और यही उसके लिए अपराधी होने का कारण मान लिया गया था। वहां भी एक चहेते पुरुष की मौत हुई थी जिसका दोषी उसे मान लिया गया था। यहां भी एक वरिष्ठ पुरुष पत्रकार की मौत हुई थी।

मीडिया को कभी देश का चौथा स्तंभ माना जाता था लेकिन कुछ दशकों में मीडिया की गरिमा गिरती चली जा रही है। आज उन्हें देखने -पढ़ने से लगता है मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ता के एजेंट बन चुके हैं। स्कूप वेबसीरीज को देखकर लगा कि मीडिया के लिए संवेदना का कोई अर्थ नहीं। ये सजे-धजे वरिष्ठ पत्रकारों का ग्लैमर, पुलिस और सत्ता के साथ कनेक्शन, उनके सोर्सेज़ के साथ कनेक्शन सब कुछ इतना बाज़ारी है कि देखकर लगता है कि इनके लिए समूची दुनिया एक खबर है बस एक ‘स्कूप’ है। कोई मरे, जिये, दुर्घटना, हत्या, बलात्कार सब इनके लिए बस सनसनीखेज़ खबर है। ये खुद मशीन ही नहीं बन जाते अपने साथ दुनिया को भी उसी असवंदेनशील सतह पर ले जा रहे हैं।

तस्वीर साभार: Netflix

वेब सीरीज की नायिका लीडिंग महिला क्राइम रिपोर्टर जागृति पाठक भी इसी मीडिया तंत्र का एक हिस्सा है। उसके लिए भी पूरी दुनिया एक खबर है और उसके सोर्स ही उसके लिए सबकुछ हैं। अपने सोर्सेज़ से वह हर हाल में बड़ी सनसनीखेज खबर सबसे पहले निकलवा लेती है। जागृति पाठक के क्राइम ब्रांच में बड़े अधिकारियों से संपर्क हैं। वह उन अधिकारियों से भी खबर निकलवा लेती है। हालांकि, एक स्त्री होने के नाते वह बहुत कुछ सहती भी है। जैसे अधिकारियों का उसके बेहद करीब आने की कोशिश करना या अन्य पेशेवरों का उसके लिए अनर्गल बातें करना। लेकिन जागृति पाठक एक बेहद प्रोफेशनल मन से सोचती है और इन चीजों को नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ती रहती है। पुलिस और पत्रकारिता का संबंध वहां बहुत गहराई से दिखता है जहां नैतिकता का कोई मानदंड नहीं है। दोनों एक-दूसरे का अपने काम के लिए इस्तेमाल करते हैं।

जागृति पाठक का जीवन और उसके जैसी अन्य औरतों का जीवन हम देखें तो लगता है कि सत्ता और समाज को आधुनिक सोच और सपने देखनेवाली औरत हमेशा खटकती रहती है। औरत का महत्वकांक्षी होना जैसे कोई अपराध हो उसका और अगर वे आधुनिक जीवनशैली जीती हैं और सफलता की तरफ बढ़ रही हैं तो भारतीय मर्दवादी समाज के लिए निश्चित ही उस औरत का पतन हो चुका है। औरत पर जब आरोप लगते हैं तो सबसे पहले उसके चरित्र पर लांछन लगाए जाते हैं। सीरीज़ में उन दृश्यों को देखते हुए बस यही लगा कि अभी भी औरत के लिए ‘महत्वाकांक्षा’ सबसे ख़तरनाक शब्द है। इसकी सज़ा में उसका पूरा जीवन नष्ट हो सकता है। उसे घर, परिवार के इतर कुछ और पाने का सपना देखने का अधिक अधिकार नहीं है।

सीरीज़ की कहानी वहां से उभरती है जहां एक लीडिंग क्राइम रिपोर्टर सेन दादा की हत्या हो जाती है। पुलिस के लिए यह हत्या सिरदर्द बन जाती है। ऊपर से बहुत दबाव बढ़ जाता है और यहां बलि का बकरा बनती है क्राईम रिपोर्टर जागृति पाठक।  पुलिस जागृति पाठक को गिरफ़्तार करके उस पर मकोका लगा देती है। पुलिस के वही बड़े अधिकारी जिनके साथ जागृति के खबर लेन-देन के संबंध थे आज वही लोग अंडरवर्ल्ड के साथ उसके कनेक्शन को साबित करने के लिए उसके ख़िलाफ़ घटिया साजिश रचने लगते हैं।

जागृति को पुलिस रिमांड पर लेकर पूछताछ करती है लेकिन कुछ नहीं निकलता लेकिन पुलिस किसी भी तरह उसकी ज़मानत नहीं होने देना चाहती। पुलिस जल्दी चार्जशीट ही नहीं तैयार करती है क्योंकि उनके पास कोई सबूत नहीं है कि जागृति पाठक दोषी है। घरवाले और वकील बहुत कोशिश करते हैं लेकिन जागृति की ज़मानत नहीं हो पाती और उसे जेल भेज दिया जाता है। सीरीज में जेल की यातना के दृश्य को बहुत जीवंत रूप से दिखाया गया है।

जेल के भीतर का यह सच बेहद क्रूर है। जेल में पहला कदम रखने के साथ शुरू होती तलाशी की क्रूर प्रक्रिया है जिसमें तलाशी का बेहद अमानवीय दृश्य दिखता है।सामाजिक कार्यकर्ता अमिता शीरीं लिखती हैं, “जेल में जो काम सबसे पहले होता है वह है आपके अस्तित्व को पूरी तरह नकार दिया जाता है, भले ही आप अंडरट्रायल हो।” वेबसीरीज में जागृति के साथ भी ऐसा ही हुआ। जेल की अमानवीयता आपको इस तरह खंड-खंड कर देती है। आपको अपने आत्मबल को बहुत मजबूत रखना पड़ता है हर वक्त, नहीं तो जेल आपकी संवेदना को सबसे पहले निगलेगा।

लेकिन जहां जागृति पाठक की पत्रकारिता की बात है वह कुछ नया नहीं कर रही थी। वह वही कर रही थी जो पुरुष क्राइम रिपोर्टर भी करते थे लेकिन उसका औरत होना लोगों खटकता था।

अपने जेल अनुभव को लेकर एक्टिविस्ट अमिता शीरीं लिखती हैं कि जेल में जो आंदोलनकारी जाते हैं और जो जागृति जैसे ग्लैमर की दुनिया के लोग जाते हैं उनके आत्मिक बल में फ़र्क होता है। आंदोलनकारियों के लिए जेल एक अप्रत्याशित जगह नहीं होती। लेकिन जेल के अंदर किसी के भी मनोबल को तोड़ने के लिए पर्याप्त व्यवस्था होती है। इस सीरीज में जेल, मीडिया और पुलिस सबका एकदम यथार्थ रूप दिखता है जहां जागृति कोई महान मनुष्य नहीं है। जेल में वह अपनी एक साथी से कहती है कि बेशक उसने सेन का मर्डर नहीं किया लेकिन उसने ‘पत्रकारिता’ की हत्या की है। यह बात ठीक भी है। आज के समय में पत्रकार जिस तरह से पत्रकारिता की हत्या कर रहे हैं उससे आने वाले समय उनकी अस्मिता पर ही खतरे दिखते हैं।

लेकिन जहां जागृति पाठक की पत्रकारिता की बात है वह कुछ नया नहीं कर रही थी। वह वही कर रही थी जो पुरुष क्राइम रिपोर्टर भी करते थे लेकिन उसका औरत होना लोगों खटकता था। उसका जूनियर कलीग पुष्कर जागृति की मेहनत देखता लेकिन उसकी सफलता उसे खटकती थी। यह एक आम विडंबना भारतीय परिवारों में दिखती है जो पुष्कर में भी अच्छे से थी। वह जागृति के लिए खुद गलत धारणा बनाता था और अपनी पत्नी के लिए दूसरे पुरुषों को वैसा कहना उसे बकवास बात लगती थी। स्त्रियों की सफलता मर्दवादी समाज में हमेशा संदिग्ध नजरों से देखी जाती है। उनके इस पूर्वाग्रह में कोई बहुत बड़ा बदलाव अब भी नहीं दिखता। स्त्रियों को अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है और अपनी अस्मिता के लिए उसे यह पथरीला रास्ता निश्चित पार करना होगा।

तस्वीर साभार: Netflix

नौ महीने से भी अधिक समय बिताने के बाद जागृति पाठक को ज़मानत मिलती है। वह फिर से अपने परिवार और दोस्तों के सहारे खड़ी होती है। सीरीज़ में जागृति पाठक के रूप में करिश्मा तन्ना का अभिनय बेहतरीन लगा। उसके बॉस इमरान का किरदार जीशान अयूब ने निभाया है। वह हमेशा की तरह बेहद दमदार अभिनय में सीरीज़ का आकर्षण बने रहें। सीरीज में हाईप्रोफाइल जीवन का यथार्थ चित्रण है। उस जगमग दुनिया के सच को उघाड़ने के लिए इस तरह की घटनाओं पर ऐसी फिल्में और सीरीज़ का बनना मौजूदा समय की ज़रूरत है।

जागृति पाठक मीडिया के ग्लैमर वर्ल्ड से आई। उसके साथ लड़ने के कुछ लोग रहे लेकिन न जाने कितने और भी बहुत सारे बेगुनाह लोग हैं जो इस व्यवस्था का शिकार हैं और जेल में बंद हैं जिनको आज तक न्याय नहीं मिला। इन लोगों की कहीं कोई बात नहीं होती। सीरीज़ बहुत कुछ कहते हुए भी बहुत कुछ छोड़ देती है जैसे आखिरी में पुलिस और नेताओँ और अपराधियों के गठजोड़ पर एक स्पष्ट दृश्य बनाना ज़रूरी लगा था।

औरत पर जब आरोप लगते हैं तो सबसे पहले उसके चरित्र पर लांछन लगाए जाते हैं। सीरीज़ में उन दृश्यों को देखते हुए बस यही लगा कि अभी भी औरत के लिए ‘महत्वाकांक्षा’ सबसे ख़तरनाक शब्द है। इसकी सज़ा में उसका पूरा जीवन नष्ट हो सकता है। उसे घर, परिवार के इतर कुछ और पाने का सपना देखने का अधिक अधिकार नहीं है।

सीरीज़ का अंत सुखद दिखाया जाता है लेकिन जो इस कहानी का सच्चा अंत था वह बेहद दुखद था। पत्रकार जिग्ना वोरा की पूरी ज़िंदगी तहस नहस हो जाती है। पूरे सात वर्षों के बाद किसी भी सुबूत के अभाव में उन्हें बाइज्ज़त बरी कर दिया गया पर इस बीच स्ट्रेस की वजह से उन्होंने अपने नाना-नानी-माँ सबको खो दिया। उनका करियर तबाह हो गया। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि केस जीत जाने के बाद इंटरव्यू के लिए तो बहुत से अखबार वाले आए पर किसी ने जॉब ऑफर नहीं की। सीरीज के आखिर के दृश्य में जिग्ना वोरा के कुछ संवाद के दृश्य हैं जो मन को दुख और अवसाद से भर देते हैं।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content