सेक्स, ये गन्दा शब्द है इसे नहीं बोलते। हम सब कहीं न कहीं यही सुनकर बड़े हुए हैं। पीरियड्स के बारे में फुसफुसाकर बात करना। स्कूल में जब बायोलॉजी की क्लास में प्रजनन (रिप्रोडक्शन) चैप्टर की बारी आती तो उसके पन्ने तेजी से पलटते हुए ज्यादा जरूरी नहीं है, ये कहकर इम्पोर्टेन्ट (महत्वपूर्ण) टॉपिक्स टिक करवा कर खुद से पढ़ने को कहा जाता है। ये सब बातें हम सभी ने अपने स्कूल में ज़रूर सुनी होगी। हमारे देश में सेक्स जैसे विषयों पर बात करना सही नहीं माना जाता है। इस पर खुलकर बात करने को बेशर्मी तक से जोड़ा जाता है। अभिनेत्री रकुलप्रीत सिंह अभिनीत फिल्म ‘छतरीवाली’ सेफ सेक्स, सेक्स एजुकेशन जैसे मुद्दों पर बात करती है। यह फ़िल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म जी5 पर उपलब्ध है। फ़िल्म की कहानी बेशक आज की है मगर मुद्दा पुराना और बहुत ही महत्वपूर्ण है।
फ़िल्म की कहानी करनाल शहर की है जिसके किरदार आपको जाने-पहचाने लगेंगे। फ़िल्म में रकुलप्रीत के किरदार का नाम सान्या है। उसकी केमिस्ट्री विषय पर पकड़ बहुत अच्छी है और वह हर चीज़ में केमिस्ट्री के केमिकल्स का लॉजिक ढूंढ लेती है। बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती है मगर इतनी आमदनी नहीं होती कि घर का खर्च चल सके। उसे नौकरी की तलाश है और नौकरी मिल नहीं रही है। फिर उसे एक कंडोम बनाने वाली कम्पनी में कंडोम की गुणवत्ता परीक्षण का कार्य मिलता है। सैलरी तो मुँह मांगी मिल रही है लेकिन इस काम को करने में उसे शर्म आती है। सान्या सबको ये बताती है कि वह छाते बनाने वाली कम्पनी में है। अब जिस काम को करने में उसे खुद शर्म महसूस होती है, जब घरवालों को पता चलेगा तब क्या होगा? क्या सान्या अपने काम को गर्व के साथ कर पाएगी? इसी कहानी को फिल्म में दर्शाया गया है।
यह एक आम धारणा है कि कंडोम अविवाहित लोगों के लिए होता है। फ़िल्म में सुमित व्यास का किरदार भी यह कहता है, “कंडोम लवर्स के लिए होता है, वो शादी से पहले छुपाना होता है न उनको।” कंडोम के प्रयोग से संबंधित जागरूकता पैदा करने के लिए फ़िल्म एक स्लोगन भी देती है, “अगर हमसे करना है प्यार तो कंडोम को करो स्वीकार”।
बॉलीवुड में इससे पहले भी कंडोम और सेक्स एजुकेशन की महत्ता को लेकर फिल्में बन चुकी हैं। हाल ही में इस तरह के विषय पर अपारशक्ति खुराना की ‘हेलमेट’ और नुसरत बरूचा की ‘जनहित में जारी’ जैसे नाम शामिल है। इस फिल्म की कहानी भी शुरुआत में फिल्म ‘जनहित में जारी’ के प्लॉट से मिलती जुलती नज़र आती है। उसमें मुख्य किरदार कंडोम बनाने वाली कम्पनी में सेल्स वीमेन का काम करती है। शुरुआत में वह भी यह नौकरी मजबूरी में की थी। मगर धीरे-धीरे उन्हें इसकी अहमियत समझ में आ जाती है। कहानी के प्लॉट में नयापन कुछ नज़र नहीं आता है।
फ़िल्म के बाकी किरदारों की बात करें तो अभिनेता सुमित व्यास, रकुल के पति की भूमिका में नज़र आए हैं। वह अपने किरदार को बेहतरीन ढंग से निभाते हैं। अभिनेता राजेश तलंग ने उसके जेठ की भूमिका में अच्छा काम किया है। सतीश कौशिक और प्राची व्यास ने भी अपने-अपने किरदारों में अच्छा अभिनय किया है। मुख्य भूमिका में रकुलप्रीत दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं। यह उनके करियर का एक ऐसा किरदार है जिसमें पूरी फ़िल्म का भार उनके कंधों पर है। उनके अभिनय में एक सहजता नज़र आती है। वह एक मजबूत महिला का अपना किरदार दृढ़ता के साथ निभाती हैं। कुल मिलाकर उन्होंने अपने किरदार के साथ ईमानदारी दिखाई है।
छतरीवाली का निर्देशन इसकी मजबूत कड़ी है। तेजस प्रभा, विजय देओस्कर इसके निर्देशक हैं। संचित और प्रियदर्शी के लिखे संवाद फ़िल्म के उद्देश्य को दर्शकों तक पहुँचाने में सफल हुए हैं। गीत-संगीत भी ठीक है। स्पेशल एडिशन ‘कुड़ी’ गाना समाज के बने-बनाए ढर्रे पर प्रहार करता है, जहाँ बारात लेकर हमेशा लड़का-लड़की के घर आता है जबकि यहां इस प्रथा को तोड़ते हुए रकुल अपनी बारात लेकर खुद आती है ये फिल्माया गया है।
महिला स्वास्थ्य की अनदेखी पर सवाल
फ़िल्म सेक्स एजुकेशन और सेफ सेक्स के मुद्दे पर बात करती है। हमारे देश में बहुत सी औरतों की मौत बार-बार अबॉर्शन कराने की वजह से होती है। आंकड़ों की माने तो भारत में महज 9.5% प्रतिशत पुरुष कंडोम का इस्तेमाल करते हैं। मतलब 10 में से सिर्फ1 पुरुष सेक्स करते वक्त कंडोम पहनता है। प्राची शाह के पति के रूप में राजेश तलंग कंडोम का प्रयोग नहीं करते हैं। उनकी नज़र में कंडोम एक गंदी चीज़ है। उनकी पत्नी निशा के कई अबॉर्शन हो चुके हैं। यूनाइटेड नेशन्स पॉपुलेशन फंड की 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में होने वाले 67% अबॉर्शन असुरक्षित होते हैं। रोज़ करीबन 8 महिलाएं अनसेफ अबॉर्शन की वजह से अपनी जान गंवा देती हैं।
यह एक आम धारणा है कि कंडोम अविवाहित लोगों के लिए होता है। फ़िल्म में सुमित व्यास का किरदार भी यह कहता है, “कंडोम लवर्स के लिए होता है, वो शादी से पहले छुपाना होता है न उनको।” कंडोम के प्रयोग से संबंधित जागरूकता पैदा करने के लिए फ़िल्म एक स्लोगन भी देती है, “अगर हमसे करना है प्यार तो कंडोम को करो स्वीकार”। फ़िल्म एक खास बात की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है। वह है औरतों के स्वास्थ्य की अनदेखी करना। हमें फ़िल्म के दृश्यों में प्राची शाह सर पर कपड़ा बाँधे नज़र आती हैं और इसके प्रति घर वालों का यह रवैया है कि ये तो रोज़ ही बीमार रहती हैं। ऐसे दृश्य सीधे हमारे घरों की औरतों की तस्वीर पेश करते हैं जिनमें एक गोली खा कर औरतें घर के कामों में लगी रहती हैं।
हमारे समाज में सेक्स विषय के टैबू होने की वजह सेक्स एजुकेशन के प्रति हमारा उदासीन दृष्टिकोण भी है। फ़िल्म इसकी महत्ता पर प्रकाश डालती है बच्चे जब किशोरावस्था में कदम रखते हैं तो उनके शरीर में बहुत से बदलाव आते है। ये शारीरिक बदलाव उनके जहन में बहुत से सवाल पैदा करते हैं, जिनके उत्तर जानने के लिए वे उत्सुक रहते हैं। लेकिन स्कूलों में बायोलॉजी पढ़ाने वाले टीचर रिप्रोडक्शन चैप्टर पर उतना महत्त्व नहीं देते है। फ़िल्म में जीवविज्ञान के अध्यापक के रूप में राजेश तलंग का यह कहना,“ये बातें छोटे बच्चों को बताने के लायक नहीं हैं”, इसी बात पर प्रकाश डालता है। साथ ही क्यों इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए उसको दर्शाता है।
फ़िल्म में क्या कमी नज़र आती है
हमारे देश में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें फीमेल कंडोम यानी कि महिलाओं के द्वारा प्रयोग किये जाने वाले कंडोम के बारे में जानकारी तक नहीं है। अभी भी बहुत सी ऐसी बहुत सी महिलाएं मिल जाएंगी जिन्हें यह नहीं पता कि ऐसा भी कोई उत्पाद बाज़ार में मौजूद है। फ़िल्म में फीमेल कंडोम के बारे में अच्छे से बात की जा सकती थी लेकिन फिल्म यहां चूक जाती है। इस विषय को उतना ज़रूरी न मानकर दूर से ही छू कर निकल जाती है।
फ़िल्म एक खास बात की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है। वह है औरतों के स्वास्थ्य की अनदेखी करना। हमें फ़िल्म के दृश्यों में प्राची शाह सर पर कपड़ा बाँधे नज़र आती हैं और इसके प्रति घर वालों का यह रवैया है कि ये तो रोज़ ही बीमार रहती हैं।
फ़िल्म का अंत उतना प्रभावित नहीं करता, जितनी फ़िल्म उम्मीद बाँधती है। फ़िल्म का अंत ज्यादा नाटकीय नज़र आता है। इसको और बेहतर किया जा सकता था। अपने घर में बुलाकर बच्चों को सेक्स एजुकेशन देना बचकाना नज़र आता है। बेहत महत्वपूर्ण मुद्दे पर फिल्म होने के बावजूद अंत में कोई ठोस संदेश छोड़ने में नाकामयाब रह जाती है। फ़िल्म का अंत उतना प्रभावित नहीं करता, जितना फ़िल्म उम्मीद बाँधती है। फ़िल्म का अंत थोड़ा ज्यादा नाटकीय नज़र आता है। इसको और बेहतर किया जा सकता था। अपने घर में बुलाकर बच्चों को सेक्स एजुकेशन देना बचकाना नज़र आता है। वास्तविकता ये पूरी तरह दूर नज़र आता है जो विषय की गंभीरता के लिए सही नहीं है।
हमारे समाज में सेक्स एजुकेशन (यौन शिक्षा) वर्जित विषयों की श्रेणी में आता है। उसी तरह ऐसे विषय पर बनी फिल्म भी खुद को कहीं न कहीं वर्जित फ़िल्म की श्रेणी में पाती है। यह बात क़ाबिले गौर है कि छतरीवाली को पिछले साल जून में सेंसर की तरफ से सर्टिफिकेट मिला था और फ़िल्म उसके कई महीनों बाद ओटीटी पर रिलीज हो पाई थी। दूसरा सिनेमा जब ऐसे मुद्दों को उठाता है तो उससे जमीनी हकीकत के ज्यादा करीब होकर कहनी चाहिए जिससे फिल्म बनाने का मकसद और लोगों को संदेश बेहतर तरीके से पहुंच सकें।