भारतीय संस्कृति में विवाह को एक ‘पवित्र संस्कार’ माना जाता है। साथ ही वैवाहिक संबंध को बहुत अटूट और जन्म भर का संबंध कहा जाता है। हालांकि, समाज में पुरुषों के लिए यह संस्था कभी बहुत जटिल बंधन नहीं बन पाई लेकिन स्त्रियों के लिए विवाह मरने-जीने की तरह जीवन की एक परिघटना बनी। आज आप अपने चारों तरफ अखबार, न्यूज़ पोर्टल, स्थानीय और राष्ट्रीय चैनलों की खबरों के तमाम माध्यमों का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि विवाह बंधन रोज दरक रहे हैं।
अधिकतर लोग इसे सोशल मीडिया का जीवन में अत्यधिक दखल मान रहे हैं। उनका कहना है कि विवाह संबंधों में इसलिए दरार आ रही है कि लोग आभासी संबंधों में ज्यादा उलझ रहे हैं। लेकिन सवाल फिर भी वहीं का वहीं कि क्या विवाह व्यवस्था बहुत जीर्ण-शीर्ण थी जिसे एक तकनीक के दखल ने धराशायी कर दिया। क्या विवाह व्यवस्था में स्त्रियों के इस हद दर्जे की घुटन थी कि एक तकनीक के आने से जीवन में कुछ स्पेस मिला तो चटक-चटक कर टूट रही है।
ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया का असर सिर्फ़ शहरी और कामकाजी महिलाओं के जीवन पर पड़ा है। गाँव,कस्बों से लेकर छोटे शहरों, कस्बों के जीवन पर भी इसका खूब असर दिख रहा है। फोन पर किसी से बात करने को लेकर आज स्त्रियां मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न का सामना कर रही हैं, इस मुद्दे पर उनकी हत्या हो जाती है। लेकिन फिर भी वे ठहर नहीं रही हैं। हमेशा ये नहीं होता कि वहां स्त्री कोई ठोस कदम ही उठाती है।
कभी-कभी सिर्फ़ अपने मन की बात करने के लिए भी वह किसी से बात करती है और कभी-कभी ये दोस्ती प्रेम में बदलकर वह एक नये संबंध में भी जाती है। इन सब को गहराई से देखने पर लगता है कि स्त्री अपने लिए एक स्पेस तलाश रही है और ये अभी एकदम से स्पष्ट नहीं हो रहा है कि वे आखिरकार किधर जाएंगी। ये अभी जल्दी से तय भी नहीं होगा क्योंकि विवाह नाम की सामाजिक व्यवस्था बहुत मजबूत है। भीतर से वह कितनी भी जीर्ण-शीर्ण हो चुकी हो लेकिन उसका बाहरी ढांचा तोड़ने की हिम्मत स्त्रियां जल्दी नहीं बटोर पाती हैं। पुरुष भी उस बाहरी ढांचे को बनाए रखना चाहता है।
फिर भी स्त्रियां एक प्रतिसंसार तो बना रही हैं भले वह आभासी ही सही। यहां मैं पुरुषों की बात नहीं कर रही हूं क्योंकि उनके लिए विवाहेत्तर संबंध रखना समाज में हमेशा से एक स्वीकार्यता की तरह बरता जाता रहा है। तो उनके लिए ये चीजें एकदम नयी नहीं है। लेकिन आज स्त्रियों के लिए ये सोशल मीडिया का संसार एक एकदम नयी परिघटना है। मध्यवर्गीय घरेलू स्त्रियों से लेकर निम्नमध्यवर्गीय और हाशिये की स्त्रियां भी आज जिस तरह से सोशल मीडिया के प्रभाव में हैं वह हमारे भारतीय समाज के लिए एकदम नयी बात है।
उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले की बेनीपट्टी गाँव की खुशबू ( बदला हुआ नाम) बताती हैं कि वह अपने पति के साथ गुजरात के नवसारी शहर में रहती थीं वहीं एक दूर के रिश्तेदार से फोन पर बात करने लगीं। धीरे-धीरे ये बातचीत नियमित हो गई पति को पता चला तो उसने खुशबू को बहुत मारा-पीटा गालियां दीं। फिर बात गाँव में खुशबू के माता-पिता तक पहुंची। वह जाकर खुशबू को गाँव लेकर आए और इस बात को लेकर गाँव में पंचायत हुई। तय हुआ कि अब खुशबू कभी उस रिश्तेदार से बात नहीं करेगी। इसी शर्त पर पति उसे फिर से अपने साथ ले गया लेकिन अभी कुछ दिन पहले वह खुशबू को मार-पीटकर फिर मायके छोड़ गया है कि वह फोन पर किसी से बात करती है। ये एक घटना है जिसमें लड़की का अपराध है फोन पर किसी पुरुष से बात करना।
अभी पिछले दिनों की बात है सोशल मीडिया पर एक खबर वायरल हो रही थी जिसमें लड़की का विवाह पंद्रह साल की उम्र में हो गया था। पति कहीं बाहर नौकरी करता था और बाद में सोशल मीडिया पर उसे एक लड़के से प्रेम हो जाता है और अपनी बच्ची को छोड़कर उसके साथ चली जाती है। किसी मंदिर में विवाह भी किया था उन्होंने। लेकिन बाद में संबंध वहां चल नहीं पाया और वह वापस अपने पति के पास जाना चाहती थी जबकि पति और ससुराल वाले इस बात के लिए राजी नहीं हो रहे थे। वीडियो में लड़की रोते हुए पति के पैर पकड़-पकड़ कर माफी माँग रही थी और साथ ले जाने के लिए प्रार्थना कर रही थी। ये दोनों स्त्रियां एक ही वर्ग की थीं और परिस्थिति भी लगभग एक जैसी।
इस तरह के और भी प्रसंग आए दिन स्थानीय न्यूज़ चैनलों पर घूमते रहते हैं कि तीन बच्चों को छोड़कर माँ प्रेमी के साथ चली गयी, चार बच्चों को छोड़कर स्त्री भाग गई। एक लोकल न्यूज़ चैनल तो बकायदा लोगों सावधान कर रहा है कि अपनी पत्नियों को मोबाइल पर किसी से बात न करने दीजिए नहीं तो वह भाग जाएगी किसी के साथ। कभी-कभी इन रिपोर्टरों की बातें इतनी मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद होती हैं कि लगता है कि किसी बाजार में बैठकर वह बोली लगा रहे हैं खबर बेचने की।
किसी समाज के लिए ये बात एक चिंतन का विषय है कि आखिर स्त्रियों के लिए कितनी घुटन है इस व्यवस्था में। अगर विवाह व्यवस्था टूट रही है तो उसे बचाने के लिए इतनी ‘हाय-तौबा’ क्यों हो रही है। जो व्यवस्था इतनी कमज़ोर और एकपक्षीय है, उसका खत्म हो जाना गलत क्यों है। आखिर क्या वजह बन रही है इसके पतन की। इसकी संरचना में भी बहुत से दोष देखे जा सकते हैं। वैसे कारण बहुत से हो सकते हैं लेकिन सामाजिक और आर्थिक कारणों से कहीं अधिक ध्यान देने की बात थी कि सदियों की बनी बनाई व्यवस्था क्या सिर्फ इसलिए बची रह गई थी कि स्त्रियों के लिए वहां वह स्पेस नहीं था जो विवाह व्यवस्था में पुरुषों को था। आज जब स्त्रियों को एक जगह मिल रही है भले ही वह आभासी दुनिया है लेकिन वह वहां अपनी इच्छा और फैंटसी को जीना चाहती हैं और कुछ हद तक जी भी रहीं हैं। पुरुष के लिए तो ये सब नया नहीं है। यहां भी अभी उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है लेकिन यहां प्रधान चरित्र स्त्री ही दिखायी दे रही है। चीजें यहां उसकी इच्छा पर ज्यादा टिकी हैं।
गुणगाँव में रहती पिंकी एक मध्यवर्गीय परिवार की घरेलू स्त्री हैं। पिंकी बताती हैं कि उनका बचपन गाँव में बीता था। आठवीं में पढ़ती थी जब गाँव के एक लड़के ने उन्हें एक चिट्ठी लिख कर फेंकी थी। वह बताती हैं कि गाँव में खूब बदनामी हुई उनकी और इसी बात को लेकर पंद्रह साल में उनकी शादी तय कर दी गयी। ब्याहकर वह गुणगाँव आई और जल्दी ही एक बेटे की माँ बन गयीं। भारतीय पारंपरिक तौर-तरीकों दे पिंकी का जीवन ठीक-ठाक ही चल रहा था। आम घरों की तरह वहाँ भी घरेलू तनाव था परिवार में । पति ज्यादातर घरवालों के फेवर में ही रहता। इसी बीच विवाह के बारह साल बाद कोरोना के समय में पिंकी को सोशल मीडिया पर किसी से प्रेम होता है। घरवालों को भी इसकी थोड़ी बहुत खबर होती है । लेकिन पिंकी ने इससे साफ इनकार किया लेकिन आखिरकार फिर वही हुआ सोशल मीडिया का उसका प्रेमी उससे बात करना बंद कर देता है और पिंकी जिसने जीवन पहली बार किसी पुरुष से अपनी इच्छा से अभाषी ही सही प्रेम किया वह टूट गया। इन सब चीजों का असर यह हुआ कि पिंकी की तबियत इतनी खराब हो गई कि घरवालों को हॉस्पिटल में एडमिट करवाना पड़ा। हालांकि वे नहीं जान पाए कि तबीयत बिगड़ने के कारण उसका आभासी प्रेम का टूटना है।
लेकिन एक सवाल जो इन सब घटनाओं में आता है कि स्त्रियां स्पेस तो खोज रही है लेकिन बाहर भी उसी प्रवृत्ति का पुरुष है जो उसके घर में है, तो एक बार वह फिर से टूट जाती है हार जाती है। लेकिन फिर भी ये समाज की पहली परिघटना है जहां स्त्री की इच्छा प्रधान है। ये संबंध उसकी इच्छा से बनते हैं। हां, यहां भी उसकी मुश्किल पितृसत्ता है क्योंकि स्त्री की प्रधान भूमिका के बाद भी इसमें अभी पुरुष ही सबसे ऊपर बैठा है क्योंकि ये खूब दिख रहा है संबंध स्त्री की इच्छा से प्रारंभ जरूर होता है लेकिन ये ज्यादातर पुरुष की इच्छा से खत्म होता है। यही विडम्बना है कि इस तरह के संबंध की कि उसके सामने वहां भी पुरुष ही बैठा है और वह इसी दुनिया का ऊबा हुआ पुरुष है। संबंध टूट जाते हैं लेकिन इसी तोड़-फोड़ से स्त्री दुनिया को अपने दायरे से निकल कर जानती और मजबूत भी बनती है।
हमारे यहां विवाह नाम की इस पारंपरिक व्यवस्था के समान्तर कोई व्यवस्था नहीं है। अब आने वाले भविष्य में जो भी निकलकर आये इस परिघटना से लेकिन स्त्री एक बने-बनाये जड़ ढांचे में खिड़की झरोखा बना ही रही है। अभी हो सकता है ये उसी व्यवस्था का एक रूपांतरण हो लेकिन स्त्रियों के संसार में एक नयी चेतना का जन्म हुआ है। नयी संभावनाएं इसमें दिख रही हैं। स्त्री नये सिरे से खुद को और अपने संबंधों को देख रही है वह जैसे इस स्पेस में भटककर खुद को भी तलाश रही है।