और इस तरह जुलाई का महीना बीत गया इतिहास में कई तरह से महत्वपूर्ण यह महीना इसलिए भी खास है क्योंकि दुनिया भर में जुलाई को ‘विकलांग प्राइड मंथ’ के तौर पर मनाया जाता है। विकलांग व्यक्ति के अधिकारों, पहचान और संघर्षों को ध्यान में रखते हुए हर साल इसका आयोजन किया जाता है। अगर भारत के लिहाज से बात करे तो एक विकलांग व्यक्ति की पहचान और उसकी यौनिकता को नज़रअदाज सबसे पहले कर दिया जाता है और उसे केवल एक असहाय और आश्रित के रूप में देखा जाता है। ऐसे में डिसेबिलिटी प्राइड मंथ, विकलांग लोगों की हर स्तर पर पहुंच और पहचान को सुनिश्चित करने के लिए ठोस प्रयासों पर जोर देता है। लेकिन यहां चौकने वाली बात यह है कि बीते कुछ समय से बाजारवादी व्यवस्था में ‘प्राइड’ के नाम पर काफी शोर होता आ रहा है, प्रगतिशीलता को दर्शाने के लिए प्राइड फ्लेग को अपनाकर कर प्रचार-प्रसार का खेल काफी खेला जा रहा है तब विकलांगता प्राइड मंथ में यह भी देखने को नहीं मिला है।
विकलांगता प्राइड मंथ की शुरुआत
साल 1990 के बाद से जुलाई के महीने को हर साल डिसेबिलिटी प्राइड मंथ के तौर पर मनाया जाता आ रहा है। यह अमेरिकी डिसेबिलिटी ऐक्ट की वर्षगांठ का प्रतीक है। यह अमेरिका का वह कानून है जिसमें समाज को समावेशी बनाने पर जोर दिया। 12 मार्च 1990 में हजार की संख्या में लोगों ने अमेरिका की राजधानी में व्हाइट हाउस की ओर मार्च निकाला और कांग्रेस से अमेरिकन विद डिसेबिलिटी ऐक्ट को पास कराने की मांग की गई। इसमें आठ साल के जेनिफर कीलन चैफिन्स सहित लगभग कई एक्टिविस्टों ने सार्वजनिक जगहों तक विकलांग लोगों की पहुंच को आसान बनाने की मांग की। प्रदर्शनकारियों ने अपनी व्हीलचेयर से हटकर कैपिटल की सीढ़ियों पर चढ़कर प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में 104 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया जिनमें से बहुत से व्हीलचेयर का इस्तेमाल करने वाले भी थे। 26 जुलाई 1990 को राष्ट्रप्रति जॉर्ज एच. डब्ल्यू बुश ने अमेरिकन डिसेबिलिटी ऐक्ट पर हस्ताक्षर कर कानून बना दिया और उसी के बाद से हर जुलाई को ‘विकलांगता प्राइड मंथ’ के रूप में मनाया जाता है।
विकलांग प्राइड मंथ की अवधारणा विकलांगता अधिकार आंदोलन से ही निकली है और यह इंटरसेक्शनल पहचान और सामाजिक न्याय की बात पर जोर देता है। मुख्य तौर पर इस प्राइड मंथ का उद्देश्य विकलांग लोगों के प्रति नकारात्मकता और पूर्वाग्रहों को खत्म कर उनकी हर स्तर की पहचान को आगे लाना है। विकलांग लोगों के संघर्षों और समाज में उनके सकारात्मक योगदान पर भी बात करता है। दुनिया के अलग-अलग देशों के शहरों में प्राइड मंथ का आयोजन होता है जिसमें विकलांग समुदाय के लोग व अन्य हिस्सा लेते हैं।
व्हीलचेयर बॉस्केटबाल खिलाड़ी साक्षी चौहान का विकलांग प्राइड मंथ के बारे में कहना है, “इस बारे में हमारे या कितनी जानकारी है या बात है इस मुद्दे से अलग मैं सिर्फ यही कहना चाहूंगी कि यह प्राइड मंथ केवल सिर्फ इसलिए नहीं है कि हम विकलांग है बल्कि यह विकलांगता की कई अन्य पहचानों को स्वीकार करने का समय है।
बात अगर भारत में विकलांग अधिकारों और पहुंच के बारे में करे तो डिसेबिलिटी प्राइड मंथ को लेकर जागरूकता की कमी की वजह से इसकी अभी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं बन पाई है। भारत की कुल आबादी का 2.21 फीसदी लोग विकलांग हैं लेकिन यहां विकलांगता के अधिकारों को लेकर चुप्पी ज्यादा है। विकलांगता को अभिशाप के नज़रिये से देखा जाता है। प्राइड मंथ जैसे आयोजन इन्हीं पूर्वाग्रहों को खत्म करने का एक विकल्प और विकलांगता के अधिकारों को मजबूत करने वाले आंदोलन का हिस्सा है।
लोग मिलेंगे, दिखेंगे और बातें करेंगे तभी बदलाव होगा
भारत में डिसेबिलिटी प्राइड मंथ के आयोजन और इसके बारे में बात करते हुए उत्तर प्रदेश नोएडा की रहने वाली व्हीलचेयर यूजर आलोकिता का कहना है, “भारत में अभी तक विकलांग प्राइड मंथ को लेकर समुदाय और अन्य लोगों में ज्यादा जानकारी नहीं है। खुद विकलांग लोगों की बड़ी संख्या को इसके बारे ज्यादा जानकारी नहीं है कि प्राइड मंथ क्या है और यह क्यों मनाया जाता है। हमारे समाज में विकलांगता को लेकर ही जानकारी की बहुत कमी है तो प्राइड मंथ तो एक अलग ही टर्म है जिसके बारे में यहां धरातल पर तो शायद ही कोई सोचता होगा। भारत में यह केवल चुनिंदा लोगों तक इंटरनेट की दुनिया में सीमित है जबकि होना ये चाहिए था कि विकलांग लोगों के अधिकारों और पहचान के लिए समाज के हर तबके के लोगों को मिलकर आवाज़ उठानी चाहिए।”
वे आगे कहती है, “हमारे माहौल में विकलांग लोगों को लेकर नकारात्मक राय बन हुई है और इसी में आगे विकलांग लोगों में भी खुद को लेकर ऐसी चीजें स्थापित कर दी गई है। ऐसे में विकलांग लोगों के अधिकारों उनकी पहचान पर बात होने की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। भले ही विकलांगता और प्राइड इन दो शब्दों को एक वाक्य में न पिरोया जा रहा हो लेकिन इस दिशा में काम होने की बहुत ज़रूरत है। विकलांगता पर एक सकारात्मक नज़रिया बनना चाहिए और इस तरह के आयोजन अगर होते है और लोग हिस्सा लेते हैं तो इससे क्या होगा कि हमारे अधिकारों हमारी मौजदूगी और ज़रूरतों पर चर्चा होगी। दरअसल ग्राउंड लेवल पर चीजें तभी बदलेगी जब लोग मिलेंगे, दिखेंगे और बातें करेंगे।”
विकलांग प्राइड मंथ बनाना क्यो है आवश्यक
विकलांगता प्राइड मंथ का जश्न मनाने के कई सामाजिक लाभ हैं। यह विकलांगता की कानूनी परिभाषाओं से बाहर रह गए लोगों के लिए अपनी शर्तों पर अपने पहचान को जाहिर करने के लिए जगह बनाता है। डिसेबिलिटी प्राइड मंथ अदृश्य विकलांगता वाले व्यक्तियों की ओर ध्यान आकर्षित करता है। विकलांगता के बारे में धारणाओं को तोड़कर यह याद दिलाता है कि डिसेबिलिटी के कई प्रकार है इसके अलग-अलग आकार है जिन्हें समझना और स्वीकार करना ज़रूरी है।
वर्तमान में कर्नाटक में रहने वाली 24 वर्षीय नैना एक विकलांग व्यक्ति हैं उनका कहना है कि विकलांगता और प्राइड मंथ को लेकर जानकारी हमारे समाज में अभी बहुत दूर की बात है। अगर मैं अपनी बात करूं तो इंटरनेट और मेरे विशेषाधिकार की वजह से मैं आपसे इस विषय पर बात कर पा रही हूं। अन्य विकलांग लोगों के मुकाबले एक बड़े शहर में रहना और पढ़ने की वजह से ही यह संभव हुआ है। हमारे यहां इस विषय पर चर्चा न होने की वजह मुझे लगती है कि विकलांग लोगों की खुद की सामाजिक पहचान और मौजूदगी नहीं होना है। हालांकि इस समस्या का समाधान ऐसे समारोह ही है जहां हम इकट्ठा होकर अपनी मौजूदगी और पहचान को दर्द करा सकते है। विकलांग लोगों को लेकर यह धारणा है कि वे पूरी तरह से दूसरे लोगों पर निर्भर हैं उनकी दुनिया केवल विकलांगता के चारों और है। जबकि ऐसा नहीं है बस हम विकलांगता के साथ आगे बढ़ रहे हैं। साथ ही विकलांगता में बहुत व्यापकता है जिसको समझना होगा और हर विकलांग व्यक्ति को एक ही स्तर से नहीं देख सकते है। विकलांग प्राइड मंथ जैसे आयोजन होना विकलांगता को लेकर जो शर्म महसूस कराई जाती है उसको दूर करने का काम कर सकते है।
नैना आगे कहती हैं कि लोग विकलांग लोगों के काम करने उनके हुनर को देखकर चौकते हैं। अब किसी के पैर में विकलागंता है तो इसका मतलब नहीं है कि वह बेहतर तरीके से अन्य काम नहीं कर सकता है लेकिन यहां विकलांग होने पर बाकी कामों को करते देखना अजूबा समझा जाता है। भारतीय समाज जहां विकलांगता को शर्म बना दिया जाता है या कर्मो की सजा बता दी जाती है वहां उसे दया तो मिल जाती है लेकिन अधिकार नहीं मिलते। विकलांग लोगों के अधिकारों, उनकी पहचान को सुनिश्चित करने के लिए प्राइड मंथ जैसे आयोजन को बड़े स्तर पर होने चाहिए। ऐसे कलेक्टिव ग्रुप होने चाहिए जो बहुत तरीके से ग्राउंड लेवल पर काम करे और न केवल बड़े शहरो बल्कि छोटे शहरों और गांवों में विकलांग लोगों की स्थिति और उनके प्रति सोच बदले।
व्हीलचेयर बॉस्केटबाल खिलाड़ी साक्षी चौहान का विकलांग प्राइड मंथ के बारे में कहना है, “इस बारे में हमारे या कितनी जानकारी है या बात है इस मुद्दे से अलग मैं सिर्फ यही कहना चाहूंगी कि यह प्राइड मंथ केवल सिर्फ इसलिए नहीं है कि हम विकलांग है बल्कि यह विकलांगता की कई अन्य पहचानों को स्वीकार करने का समय है। विकलांग प्राइड मंथ, विकलांग लोगों के साथ जुड़ने, उनके बारे में जानने और विकलांगता पर चर्चा करने का समय है जो केवल विकलांग लोगों तक सीमित न रहे। अभी केवल कुछ संस्थाएं और लोग इस पर बात कर रहे हैं, सेमिनार हुए है, लेख लिखे गए हैं लेकिन इसके स्तर को बढ़ाना होगा। जाहिर है जागरूकता की कमी है। प्राइड मंथ को कैसे मना सकते है इस पर मैं सिर्फ यही कहूंगी कि हमारे जो अधिकार है उनको लागू किया जाएं। शिक्षा, नौकरी, खेलों में हमारी उपस्थिति को महत्व दिया जाए।”
इस लेख के दौरान हमने जिन भी लोगों से बात की है उनका कहना है कि विकलांग प्राइड मंथ भारत में अभी बहुत ही सीमित, शहरी और विशेषाधिकार लोगों में जानकारी है। विकलांगता को लेकर इतने टैबू स्थापित है जिन्हें दूर करने के लिए प्राइड मंथ जैसे आयोजन हमारे सामाजिक परिवेश के लिए बहुत आवश्यक है जहां पर खुलकर विकलांगता और विकलांग लोगों के अधिकारों की बात की जाएं। लेकिन जागरूकता को फैलाने वाले तंत्र में ही भारी कमी है। आज के पूंजीवादी दौर में जहां हर चीज मुनाफे से देखी जाती है वहां विकलांग प्राइड मंथ को रेनबो वाशिंग तक से नहीं जोड़ा जाता सकता है क्योंकि विकलांग लोगों को उपभोक्ता के नज़रिये तक से नहीं देखा जाता है।
विकलांग प्राइड मंथ सीधे तौर पर विकलांग लोगों के अधिकार, पहचान और ज़रूरतों की बातों को केंद्र में लाने का काम करता है ऐसे में हमारे सामाजिक माहौल में जहां विकलांगता को शर्म की तरह से देखा जाता है और विकलांगता को लेकर असंवेदशनीलता स्थापित है वहां पहचान को सुनिश्चित करने पर विकलांग प्राइड मंथ के इंड़े के नीचे आकार अपने अधिकारों, मौजूदगी, आवश्यकताओं के बारे में समाज के हर इंसान के लिए मुखर होना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि विकलांग लोगों की प्रगति और आगे बढ़ाने के लिए किए गए प्रयास सभी को लाभ पहुंचाने का काम करते हैं। हमें समझना चाहिए कि सहानुभूति, समझ से ही हम एक अधिक समावेशी दुनिया विकसित कर सकते है।
सोर्सः