समाजख़बर ‘ग्लोबल बॉयलिंग’ का सामना कैसे करेंगी आनेवाली पीढ़ियां

‘ग्लोबल बॉयलिंग’ का सामना कैसे करेंगी आनेवाली पीढ़ियां

27 जुलाई 2023 को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने जुलाई माह की तापमान को लेकर यह ऐलान किया है कि पृथ्वी पर ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का दौर ख़त्म हो चुका है और ‘ग्लोबल बॉयलिंग’ का दौर शुरू हो चुका है। यह हम सभी के लिए एक बड़ा खतरा है, मौजूदा पीढ़ी कहीं हद तक इसे झेल भी सकती है लेकिन हमारी आनेवाली पीढ़ी इस जलवायु परिवर्तन का गंभीर परिणाम का सामना करेगी और कर रही है। आने वाले वक्त का जलवायु उनके लिए बहुत बहुत बेहतर स्थिति में होगा ऐसा मानना हमारा भ्रम है। लगभग एक अरब बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अत्यधिक जोखिम है। आने वाली पीढ़ियां जिनका इस परिवर्तन को नकारात्मक रूप से बदलने में कोई भूमिका नहीं है वे पीढ़ियां जब कष्टतम रूप से जूझेंगी तब पूरी मानव प्रजाति के अस्तित्व पर खतरा भी विकराल रूप से हमारे सामने होगा।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट अनुसार, दुनिया भर में, 820 मिलियन (दुनिया के एक तिहाई से अधिक बच्चे) हीटवेव के अत्यधिक जोखिम में हैं, 400 मिलियन (लगभग हर 6 में से 1) चक्रवात के कारण, 330 मिलियन (7 में से 1) नदी की बाढ़ के कारण, 240 मिलियन (10 में 1) तटीय बाढ़ से, और 920 मिलियन (एक तिहाई से अधिक) पानी की कमी के कारण जोखिम में हैं। जलवायु परिवर्तन से बच्चों का स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, विकास और उनके भविष्य खतरे में हैं, बच्चे जेंडर आधारित हिंसा एवं अन्य मानवाधिकारों के हनन का सामना करते हैं। बच्चे और स्वस्थ्य बच्चे जी पाएंगे तभी आगे के विकास का रास्ता निकल सकता है लेकिन क्या हो जब बच्चे जलवायु परिवर्तन की वजह से जी ही ना पाएं? हम सभी हवा में व्याप्त गंदगी को लेकर आदि बेशक हो चुके हो लेकिन नवजात बच्चों के फेंफड़े, कोमल विकासशील शारीरिक अंग इसे झेलने के लिए नहीं बने हैं। वायु प्रदूषण की वजह से बीस प्रतिशत नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है।

ईपीए 2023 की रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग का दो डिग्री से लेकर चार डिग्री तक बढ़ना भी बच्चों में अस्थमा को जन्म दे चुका है जो चार प्रतिशत से लेकर ग्यारह प्रतिशत तक बढ़ चुका है। अंतराष्ट्रीय संस्थाओं की स्टडीज़ यह साफ़ कर चुकी हैं कि बच्चे अपने पुरानी पीढ़ियों के मुकाबले तीन गुना ज़्यादा प्राकृतिक जलवायु आपदाएं झेलेंगे जिसमें जंगलों में आग लगना, बाढ़ आना, सूखा पड़ना आदि शामिल हैं। बीमारियां भी बच्चों को बड़े पैमाने पर और जल्दी घेरने लगती हैं, चाहे एलर्जी हो, मोटापा इस वक्त बच्चों की सबसे गंभीर बीमारी तो बना ही हुआ है, कीट मच्छरों से होने वाली दिक्कतें भी उन्हें घेर लेती हैं। विकसित और विकासशील देशों में 88 प्रतिशत बीमारियों का बोझ पांच उम्र तक के बच्चों पर है और अतिरिक्त पांच प्रतिशत बीमारियों का बोझ पांच से लेकर चौदह वर्ष के बच्चों पर है।

जलवायु परिवर्तन से कुपोषण का शिकार हो रहे हैं बच्चे

डॉ मेरेडिथ नाइल्स, वर्मोंट विश्वविद्यालय में पोषण और खाद्य विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर, जलवायु परिवर्तन से कुपोषण का शिकार हो रहे बच्चों के संदर्भ में कहती हैं, “विकास पर इसके प्रभाव के कारण बच्चे विशिष्ट रूप से कमजोर होते हैं और कुपोषण का खतरा होता है। एक बच्चे के जीवन के पहले 1,000 दिन दीर्घकालिक स्वास्थ्य और कल्याण प्रक्षेप पथ के लिए बिल्कुल महत्वपूर्ण हैं।” जलवायु परिवर्तन से रहन-सहन पर खतरा आता ही है जिसके परिणाम में लोग एक जगह से दूसरी जगह पलायन करते हैं, पलायन के दौरान बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिलता है और जिन देशों में जलवायु परिवर्तन से खाद्य सुरक्षा में पतन हुआ है वहां स्थिति और भी खराब है।

वर्तमान में हर तीन में से एक बच्चा कुपोषण से पीड़ित है। अधिकांश निम्न और मध्यम आय वाले देशों में और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे हैं। साल 2050 तक भूख और कुपोषण का जोखिम बीस प्रतिशत और बढ़ जाएगा। इस पूरे जाल में सिर्फ़ एक व्यक्ति विशेष ही प्रभावित नहीं हो रहा है, बल्कि जिन देशों में ये स्थितियां पैदा हो चुकी हैं वहां प्रति व्यक्ति आय दर भी कम है और इससे बाकी सामाजिक आर्थिक और जनसांख्यिकीय भागीदारी में भी कमी आई है। इससे बच्चों की शिक्षा प्रभावित हो रही है, वे गरीबी में तेज़ी से धंस रहे हैं। इसके साथ ही बच्चों की शिक्षा भी इससे प्रभावित हो रही है। जब भी कोई आपदा जैसे बाढ़, चक्रवात, आग लगना आदि से हमारा टकराव होता है, आधारभूत संरचना पहले बर्बाद हो जाता है, नतीजतन बच्चों के पढ़ने की इमारतें ढह जाती हैं, जिसे दोबारा खड़े करने में, बच्चों को फिर से ट्रैक पर लाने में लंबा वक्त लगता है।

हम सभी हवा में व्याप्त गंदगी को लेकर आदि बेशक हो चुके हो लेकिन नवजात बच्चों के फेंफड़े, कोमल विकासशील शारीरिक अंग इसे झेलने के लिए नहीं बने हैं। वायु प्रदूषण की वजह से बीस प्रतिशत नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है।

साथ ही जलवायु परिवर्तन से वे परिवार अधिक प्रभावित हो रहे हैं जिनका खान-पान, आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाए रखने के लिए प्रकृति से सीधा वास्ता है। किसान, खेत मज़दूर परिवारों की फसलें आपदाओं से, जलवायु में परिवर्तन से नष्ट होती हैं जिससे उनके घर की स्थिति और भी खराब होती है और परिणामस्वरूप घर के बच्चे लंबी अवधि तक पढ़ ही नहीं पाते, काम करने में लग जाते हैं जिससे गरीबी का ये चक्र भी टूट नहीं पाता है। मुमकिन होकर बच्चा स्कूल जाने भी लगे तो बच्चों में जो कुपोषण की संख्या बढ़ रही है वह उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर कर देती है जिस वजह से वे चाहते हुए भी शिक्षा में अपना भरसक प्रयास कर ही नहीं पाते हैं।

जलवायु परिवर्तन की वजह से बच्चों के साथ बढ़ रही है जेंडर आधारित हिंसा जलवायु परिवर्तन से परिवार, समाज जितना अधिक प्रभावित होता है, बच्चों के अधिकार हनन होते हैं, उनके प्रति हिंसा बढ़ने लगती है। जलवायु परिवर्तन ने हालांकि नई तरीके की हिंसा को जन्म नहीं दिया है लेकिन पहले से बच्चों के प्रति व्याप्त हिंसा को बढ़ा दिया है। इसके अलावा लैंगिक भेदभाव को भी बढ़ाया है जैसे आपदाओं में पलायन हुईं बच्चियां यौन हिंसा से लेकर बाल विवाह का सामना करती हैं जिससे उनकी शिक्षा, सुरक्षा किसी का कोई महत्व नहीं रह जाता है। रिपोर्ट्स में ये पाया गया है कि किसी भी आपदा के बाद बाल मजदूरी अधिक रूप से बढ़ जाती है।

जलवायु परिवर्तन से रहन-सहन पर खतरा आता ही है जिसके परिणाम में लोग एक जगह से दूसरी जगह पलायन करते हैं, पलायन के दौरान बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिलता है और जिन देशों में जलवायु परिवर्तन से खाद्य सुरक्षा में पतन हुआ है वहां स्थिति और भी खराब है।

जैसे-जैसे समुदाय जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे थे, स्थानीय सामुदायिक कार्यकर्ताओं ने बाल श्रम में वृद्धि देखी, खासकर ईंट भट्टों और कृषि में। ऐसा क्यों होता है? आपदाओं से प्रभावित परिवार आर्थिक पूंजी खो देते हैं, रहने की व्यवस्था नहीं होती, परिवार के सदस्यों को भी खोते हैं इससे वे मानसिक रूप से ग्रस्त होने के साथ, भौतिकवादी सामग्री से भी फले फूले नहीं होते, सरकारें भी खाना और ठहरने की व्यवस्थाएं तो कर देती हैं, आर्थिक स्थिति मजबूत करने की व्यवस्थाएं नहीं करती जिसके चलते बच्चों को भी कमाने की प्रक्रिया में डाल दिया जाता है और क्योंकि वे पढ़े लिखे भी नहीं होते इसीलिए असंगठित क्षेत्र में काम करने को मजबूत हो जाते हैं जहां उनका काम करने के स्थान पर भी शोषण होता है जैसे कम आय देना, ज्यादा घंटे काम कराना, ख़राब व्यवहार करना, यौन शौषण आदि। बच्चों को लेकर यह वाक्य हम सुनते ही हैं कि “हमें पृथ्वी अपने पूर्वजों से विरासत में नहीं मिली है बल्कि अपने बच्चों से उधार मिली है”।

लेकिन क्या हमने इस पृथ्वी को अपने बच्चों के रहने लायक बनाए रखा है? सभी तथ्य और परिस्थितियां तो इसी ओर इशारा करती हैं कि हमने बद्तर स्थिति में यह पृथ्वी अपने बच्चों के लिए छोड़ दी है। हर साल अंतराष्ट्रीय स्तर पर कोई न कोई कन्वेंशन, समिट की जाती है कि पृथ्वी के जलवायु परिवर्तन को कैसे कम करें, कैसे इससे निपटें लेकिन ऐसा बहुत ही कम देशों में हैं जहां जलवायु परिवर्तन से निपटने, आपदाओं से निपटने में सक्षम हैं उदाहरण के तौर पर जापान। जो देश विकासशील हैं या अविकसित हैं वहां के लोग और भी ज़्यादा इस परिवर्तन के प्रभावों को भुगत रहे हैं, बच्चे शिक्षा, पोषण जैसे मानवाधिकारों के हनन का सामना कर रहे हैं। विश्व स्तर पर हम एक ग्लोबल विलेज बन चुके हैं, टेक्नोलॉजी में आगे बढ़ रहे हैं, तमाम वर्गों में हित टकराव भी देख रहे हैं, लेकिन इस सबके बीच क्या हम यह सोच रहे हैं कि जिस ग्रह पर हम रहे हैं अगर वही नहीं बचेगा तो हमारे अस्तित्व का क्या ही होगा? आपदाएं आज के समय का सच हैं लेकिन उनसे निपटा कैसे जाए, बच्चों के भविष्य को सुरक्षा कैसे दी जाए यह हमारा सर्वोच्च विषय होना चाहिए, ऐसा अगर नहीं होता है तो फिर आने वाले वक्त में और भी ख़राब परिस्थितियों से जूझने के लिए हमें खुद को तैयार कर लेना चाहिए।


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