क्या आपने पर्यावरण नस्लवाद के बारे में सुना है? इसका मतलब एक ऐसी धारणा से है, जिसके चलते पर्यावरण से संबंधित नीतियों के निर्माण और उन्हें लागू करने के संबंध में नस्ल के आधार पर भेदभाव और शोषण होता है। एक समूह विशेष के हितों, उन पर पड़ने वाले प्रभावों और भागीदारी को अनदेखा कर निर्णय लिए जाते हैं। भारत में इसे हाशिए पर बने हुए आदिवासी समुदाय के संबंध में समझा जा सकता है जोकि अपने आवास, आजीविका, जीवन और सांस्कृतिक लिहाज से प्रकृति पर निर्भर हैं।
इस समुदाय पर पर्यावरणीय नीतियों का सबसे ज्यादा प्रभाव होता है। औद्योगीकरण और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर सरकारें जल, जंगल, जमीन आदि संसाधनों को अपने नियत्रंण में लेती आई हैं। नीतियां, परियोजनाएं बनती हैं, जंगल कटते हैं लेकिन जो लोग इन जंगलों पर अपने जीवन के लिए निर्भर हैं उनकी भागीदारी नहीं तय की जाती है। इस प्रक्रिया में हमेशा से ही मुख्यधारा से कटे आदिवासी समाज की भागीदारी और हितों को नज़रअंदाज किया जाता है। यही पर्यावरण नस्लवाद सरकार के द्वारा लाए गए नए कानून वन संरक्षण एवं संवर्धन अधिनियम 2023 में कानून और वन नियम 2022 में झलकता है।
20 जुलाई से 11 अगस्त के बीच मानसून सत्र में सरकार के द्वारा कई महत्वपूर्ण बिल संसद के सामने रखे गए। द हिंदू में प्रकाशित ख़बर के अनुसार इस बीच सरकार के द्वारा एक महत्वपूर्ण बिल बिना किसी विशेष चर्चा के संसद में पारित करवाया गया। यह बिल था, वन सरंक्षण संशोधन अधिनियम 2023, जो वन सरंक्षण एवं संवर्धन अधिनियम 2023 के नाम से जाना जाएगा।
बजट सत्र के दौरान पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्री भूपेन्द्र यादव के द्वारा बिल को लोकसभा में पेश किया गया था। जिसे बाद मे बिल से संबंधी विवादों की जांच के लिए संसद की संयुक्त समिति को भेज दिया गया। समिति के द्वारा बिल में प्रस्तावित सभी संसोधन को ज्यों का त्यों मान लिया गया। इसके बाद बिल को संसद के दोनों सदनों में पारित कर लिया गया। बिल विवादों के घेरे में बना हुआ है। पर्यावरण, वन संरक्षण और आदिवासी अधिकारों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव के चलते 31 सदस्यों वाली संयुक्त समिति के 6 सदस्यों ने बल के प्रावधानों पर आपत्ति दर्ज की थी। द वॉयर में प्रकाशित ख़बर के अनुसार 400 से अधिक इकोलोजिस्ट के द्वारा पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव को वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन करने के विरुद्ध पत्र भी लिखा गया। तमाम आपत्तियों और चिंताओं के बावजूद बिल में कोई संशोधन नहीं किए गए।
यह अधिनियम वन संरक्षण जैव विविधता और आदिवासी समुदायों के अधिकारों के लिहाज से एक महत्वपूर्ण कानून है। सरकार का दावा है कि नए कानून के जरिए वन नियमों में स्पष्टता आएगी और निजी वृक्षारोपण को बढावा मिलेगा। राष्ट्रीय महत्व और सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण परियोजनाओं, जिनका रास्ता लंबे समय से वन नियमों में मौजूद रीजिडिटी और अस्पष्टता के चलते रुका हुआ था उन्हें भी गति मिलेगी। इसी के साथ अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं और 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन को बनाए रखने और बढ़ाने के लिए देश द्वारा निर्धारित राष्ट्रीय लक्ष्य को प्राप्त करने में भी सहायता मिलेगी है।
वन सरंक्षण एवं संवर्धन अधिनियम 2023 का मुख्यतः वन संरक्षण अधिनियम 1980 में परिवर्तन करता है। संशोधनों के जरिए वनों के एक बड़े हिस्से को आरक्षण के दायरे से बाहर किया गया है। पर्यावरणविदों और जानकारों का मानना है कि नए नियमों के तहत दी गई छूट के कारण मौजूदा वन्य क्षेत्र पर खासा नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, जो न सिर्फ जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरा है बल्कि जलवायु परिवर्तन संबंधी नई चुनौतियां भी इससे खड़ी होंगी।
नए नियमों को लेकर आदिवासी समुदाय में भी चिंताएं बनी हुई है जो अपनी आजीविका और आवास के लिए जंगलों पर निर्भर है। जहां नए कानून को आदिवासी समुदायों के हित में बताया जा रहा है वहीं यह चिंता भी दर्ज की जा रही है कि नए कानूनों के जरिए आदिवासी समुदायों के अधिकार छीन सकते हैं। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का मानना है कि नए कानून के प्रावधान वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन करते हैं। जिसका सीधा असर आदिवासी समुदायों के अधिकारों पर होगा।
वन संरक्षण के दायरे में कमी
वन संरक्षण अधिनियम 1980 के अनुसार वन भूमि के गैर वानिकी उपयोग के लिए राज्य सरकार को केंद्र सरकार की मंजूरी लेनी पड़ती है। वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 वनों की परिभाषा में परिवर्तन करता है। जिसके अंतर्गत सरकार के द्वारा 25 अक्टूबर 1980 तक या उसके बाद अधिसूचित वन भूमि को वन माना जाएगा और सरंक्षण प्रदान किया जाएगा। इसका अर्थ है कि दी गई तारीख से पहले जिस भूमि को वन भूमि को सरकार के द्वारा रिकॉर्ड किया गया है उस पर अधिसूचित नहीं किया गया है वह भूमि सरंक्षण के दायरे से बाहर होगी। इसी के साथ 12 दिसंबर 1996 या उससे पहले गैर वानिकी उपयोग में परिवर्तित की गई वन भूमि को इस दायरे से बाहर रखा गया है इसका अर्थ हुआ कि इस बीच गैर वानिकी उपयोग के लिए परिवर्तित की गई भूमि को वन भूमि नहीं माना जाएगा।
वन भूमि की परिभाषा में बदलाव 1996 में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए फैसले को उलट देता है जिसमें कहा गया कि वन से तात्पर्य उसके शब्दकोशीय अर्थ से लिया जाए और स्वामित्व, वर्गीकरण और प्रकृति के परे सभी वनों को सरंक्षण प्रदान करे, चाहे सरकार के द्वारा उन्हें अधिसूचित न किया गया हो। इस फैसले के कारण वनों का एक बड़ा हिस्सा सरंक्षण के दायरे में आया। पर वर्तमान कानून इस फैसले का उल्लंघन करते हुए सिर्फ 1980 में अधिसूचित वनों को वन मानते हुए सरंक्षण देने की बात कहता है।
वन भूमि की परिभाषा में किए गए बदलाव से यह साफ हो है कि सरकार का उद्देश्य वनों के संरक्षण के दायरे को कम करना है। ISFR 2021 अनुसार लगभग 28% वन क्षेत्र दर्ज वन क्षेत्र के बाहर है। अब जंगलों के इतने बड़े हिस्से को साफ करने के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी। केंद्र सरकार की मंजूरी की शर्त न लागू होने के कारण वनों की कटाई में तेजी आएगी जो पर्यावरण सुरक्षा के लिए घातक साबित होगा। जलवायु परिवर्तन के चलते लगातार हमारे सामने जोशीमठ, लद्दाख में तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर, हिमाचल, उतराखंड और देश के अलग-अलग हिस्सों में पैदा हुई बाढ़ की स्थिति आदि समस्याएं मौजूद है। इन समस्याओं का एक मुख्य कारण लगातार वनों का कटाव और वृक्षारोपण में कमी है। कहीं बाढ़ के कारण लोगों की जानें जा रही हैं तो कहीं पानी की कमी के कारण गांव विस्थापित हो रहे हैं। सरकार पर्यावरण सरंक्षण और जलवायु नियंत्रण को अपनी प्राथमिकताओं में गिनवाती है पर दूसरी तरफ जहां जंगलों के बचाव की जरूरत है, वहीं 28% जंगलों को सरंक्षण के दायरे से बाहर किया जा रहा है।
वन भूमि के गैर वानिकी उपयोग के लिए छूट
नए कानून के तहत अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट 100 किलोमीटर की वन भूमि को संरक्षण के दायरे से बाहर रखा गया है। इस दायरे के अंतर्गत आने वाली वन भूमि को गैर वन उपयोग में परिवर्तित करने के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी। जिसका मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय महत्व और सुरक्षा की दृष्टि से जरूरी परियोजनाओं को गति देना है जो वन संरक्षण और मंजूरी की अड़चनों के कारण अटकी हुई हैं। सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सीमा के निकट पर्याप्त संरचनात्मक ढ़ांचे का विकास जरूरी है। राष्ट्रीय महत्व पर सुरक्षा की दृष्टि से जरूरी परियोजनाओं के लिए दी गई इस छूट से सरकार की सुरक्षा की प्रति गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। पर इसके साथ यह भी साफ है कि जैव विविधता पारिस्थितिक तंत्र पर्यावरण और आदिवासी समुदायों के अधिकारों को सुरक्षा के नाम पर सिरे से खारिज किया जा रहा है। 100 किलोमीटर की इस छूट के दायरे में अधिकतर पूर्वोत्तर के राज्य आते हैं। जिनका कुल भौगोलिक क्षेत्र की लिहाज से वन आवरण का अनुपात अधिक है। पूर्वोत्तर राज्यों में कुल वन क्षेत्र का 23.75% हिस्सा है।
FSI के 2021 के आंकडों के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं, मानव जनित गतिविधियों जैसे कि कृषि को स्थानांतरित करना, विकासात्मक गतिविधियों के दबाव के कारण पूर्वोत्तर के राज्यों में वन आवरण में कमी आ रही है। इन राज्यों में कुल मिलाकर 1020 वर्ग किलोमीटर वन आवरण की गिरावट देखी गई है। दी गई छूट से इस क्षेत्र में वन आवरण में और अधिक कमी आएगी जिसका सीधा असर इन वनों में रहने वाली हजारों दुर्लभ गैर मानव प्रजातियां पर पड़ेगा। इस छूट से यहां रहने वाले अनुसूचित जनजाति और अन्य आदिवासी समुदाय के लिए भी खासी चिंताएं हैं। राष्ट्रीय महत्व और सुरक्षा परियोजनाओं के नाम पर इन वनों में निर्माण कार्य में तेजी आएगी। जिससे इन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के लिए विस्थापन जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
आलोचकों का कहना है कि पारित बिल व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग का रास्ता साफ करता है। वन संरक्षण में दी गई छूट का उद्देश्य इस ऑफ़ डूइंग बिजनेस को सरल करना है। नए कानून का उद्देश्य वनों की कीमत पर आर्थिक समृद्धि प्राप्त करना है। राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजना और आर्थिक विकास की दृष्टि से नए कानून महत्वपूर्ण प्रतीत हो सकते हैं पर साथ ही साथ आर्थिक विकास के नाम पर पर्यावरण और उस पर निर्भर आदिवासी समुदाय के हितों का उल्लंघन किया जा रहा है।
नए नियमों के अंदर चिड़ियाघर और सफारी ईकोटूरिज्म सुविधाएं सिल्विकल्चरल ऑपरेशन और केंद्र सरकार द्वारा निर्देशित कोई अन्य उद्देश्य आदि गतिविधियों को गैर वन उपयोग गतिविधि की सूची से बाहर करते हैं । इसका अर्थ है कि इन गतिविधियों के के लिए अब वन भूमि को गैर वन उपयोग में परिवर्तित करने के लिए केंद्र सरकार की मंजूरी की जरूरत नहीं होगी। अन्य उद्देश्य जैसे शब्द सरकार के नियमों में स्पष्टता के उद्देश्य पर सवाल खड़े करते हैं। आशकाएं हैं कि अन्य उद्देश्य जोकि बहुत अस्पष्ट है के नाम पर व्यावसायिक गतिविधियों के लिए ठेकेदारों को वन भूमि उपलब्ध करवाने का प्रचलन बढे़गा।
गैर वन उपयोग के लिए इस्तेमाल की गई वन भूमि से जंगलों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए प्रति पूरक वनीकरण (Compensatory Forest) का प्रावधान किया गया है। प्रतिपूरक वनीकरण को प्राकृतिक वनों के विकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता है। प्रतिपूरक वनीकरण की प्रक्रिया आसान नहीं होती हैं, सरकार भी इसके लिए जमीन उपलब्ध कराने से हिचकिचाती हैं। इसके अतिरिक्त प्रतिपूर्वक वनीकरण से पेड़ों की संख्या की तो भरपाई की जा सकती है पर प्राकृतिक वनों के सफाए से जैव विविधता व पारिस्थितिक तंत्र और वन्य जीवों के आवास को दोबारा स्थापित नहीं किया जा सकता है।
आदिवासी समुदायों के अधिकार
वन संरक्षण संशोधन अधिनियम जंगलों पर निर्भर रहने वाले लोगों के अधिकारों को अनदेखा करता है। आदिवासी और अन्य समुदायों के अधिकारों के लिहाज से वन अधिकार अधिनियम 2006 एक ऐतिहासिक कानून है। इस कानून के जरिए आदिवासी समुदायों के साथ सालों से हुए शोषण, अन्याय को दूर करने का प्रयास किया गया। यह कानून जंगलों पर निर्भर समुदायों के अधिकारों को प्रभावित करने वाली योजनाओं के निर्धारण में ग्राम सभा की भूमिका को सुनिश्चित करता है। यह आदेश देता है कि किसी भी वन क्षेत्र को हटाने या काटने का कोई भी प्रयास करने से पहले आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों को कानूनी रूप से मान्यता दी जाए। इसमें यह भी आवश्यक है कि उनके जंगलों को सार्वजनिक विकास के लिए देने से पहले ग्राम सभा से स्वतंत्र और सूचित सहमति ली जाए।
न्यूज़लाड्री में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार वन अधिकार अधिनियम 2006 में आदिवासी को दिए गए अधिकारों को पूरी तरह से लागू करने के लिए वन मंत्रालय ने 2009 में एक नोटिफिकेशन जारी किया। इस नोटिफिकेशन में कहा गया कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत किसी भी वन भूमि का गैर वन उपयोग के लिए विचार नहीं किया जाएगा जब तक कि वन अधिकार कानून 2006 के तहत दिए गए अधिकारों का निपटार न हो जाए।
आदिवासी समुदाय के अधिकारों के लिहाज से यह एक क्रांतिकारी कानून है। हालांकि वन संरक्षण अधिनियम 2023 में वन अधिकार अधिनियम 2006 के संदर्भ में कोई जिक्र नहीं किया गया है। 2022 में सरकार के द्वारा वन संरक्षण के लिए लाए गए नए नियम आदिवासी समुदायों को सालों के प्रयासों से मिले अधिकारों को छीनते हुए दिखाई देते हैं। वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 को वन संरक्षण नियम 2022 के जरिए लागू किया जाएगा।
यह नियम वनों के संबंध में आदिवासी समुदायों की भूमिका को बर्खास्त करते हैं। इन नियमों के जरिए वनों पर निर्भर रहने वाले समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी जो कि पहले केंद्र सरकार की होती थी, उसे राज्य सरकारों पर डाल दिया गया है। अब केंद्र सरकार ग्रामसभा की मंजूरी लेने से पहले गैर वानिकी उपयोग के लिए निजी डेवलपर्स को वन भूमि सौंप सकती है और जंगलों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजा वसूल कर सकती है।
जब केंद्र सरकार पहले ही परियोजनाओं को मंजूरी दे देगी तो राज्य सरकारों पर ग्राम सभा और आदिवासी समुदायों की सहमति लेने का दबाव होगा। इसी दबाव के चलते वन अधिकारों को सुनिश्चित करना राज्य सरकार के लिए महज एक औपचारिकता बन जाएगी। इन नए नियमों के जरिए सीधे-सीधे तौर पर ग्रामसभा, आदिवासी समुदाय की परियोजनाओं के निर्धारण में हिस्सेदारी को हटा दिया गया है। जिसके चलते आदिवासी समुदाय और जंगलों पर निर्भर रहने वाले समुदायों के जीवन में दखलअंदाजी बढेगी। बिना मंजूरी के व्यवसायिक उपयोग के लिए इनकी जमीन का उपयोग किया जाएगा। नतीजे के तौर पर जंगलों से विस्थापन, आवास और आजीविका पर खतरा बढे़गा।
वनों के संरक्षण के लिए आदिवासी समुदाय की भूमिका और प्रतिभाग महत्वपूर्ण है। क्योंकि ये समुदाय न सिर्फ अपनी आजीविका आवास और जीवन के लिए जंगलों पर निर्भर होते हैं बल्कि जंगलों और प्रकृति के बचाव को अपना कर्तव्य मानते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी जंगलों के संरक्षण में आदिवासी समुदायों की अहम भूमिका रही है। जंगलों और पर्यावरण के साथ इन समुदायों का अस्तित्व और परंपराएं जुड़ी हुई है। वनों और आदिवासी समुदायों को अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। वन और पर्यावरण के संबंध में होने वाली चर्चाओं बहसों और बनने वाले कानूनों में आदिवासी समुदायों की हिस्सेदारी और उनका प्रतिनिधित्व होना जरूरी है।
पर्यावरण हित के नियम ताक पर
वन अधिकार कानून 2006 आदिवासी समुदायों को प्रतिनिधित्व अधिकार प्रदान करता है। वनों के संरक्षण के लिए वन संरक्षण अधिनियम में वन अधिकार 2006 के अंतर्गत बदलाव किए जाने चाहिए। ताकि आदिवासी समुदायों के अधिकारों और वनों के संरक्षण दोनों उद्देश्य साथ में पूरे किए जा सके। सरकार के द्वारा लाया गया कानून इस समुदाय की वनों के संरक्षण और प्रबंधन के संबंध में भूमिका को अनदेखा करते हैं। सरकार पूरी तरीके से वन संरक्षण के उद्देश्य को अपने कब्जे में ले रही है।
नया कानून आर्थिक समृद्धि, इज ओफ डूईंग बिजनेस और पर्यावरण संरक्षण, आदिवासी अधिकार के द्वंद्व के बीच झूल रहा है। आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधित्व की अनदेखी, वन संरक्षण में दी गई छूट जैसे प्रावधान हाशिए पर बने समुदाय के अधिकारों और पर्यावरण की कीमत पर विकास का प्रयास है। आजादी के 77 सालों के बावजूद भी इस समुदाय को मुख्यधारा और विकास की राह नहीं जोड़ा जा सका है। परियोजनाओं के लिए जंगलों की कटाई की जाती है जिसके कारण इन लोगों के लिए विस्थापन का खतरा खड़ा होता है और आवास, आजिविका, सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इसलिए आवश्यक है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण दोनों उद्देश्य में एक संतुलन बनाकर चला जाए।
यह सुनिश्चित करना सबसे जरूरी है कि वर्तमान कानून से दी जा रही छूट कॉर्पोरेट्स के लिए अपने हितों को साधने का खुला जरिया न बनें। सरकार को पर्यावरण संरक्षण और परियोजना निर्माण में स्थानीय प्रतिभाग को कम करने की बजाय इसे मजबूत करना चाहिए। आदिवासी और वनों पर निर्भर लोगों के अधिकारों की रक्षा करते हुए वन संरक्षण के लिए इन समुदायों की हिस्सेदारी को बढाया जाना चाहिए, तभी लंबे समय से हाशिए पर बने इस समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ा जा सकेगा।