इन दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो खूब वायरल हो रहा है जिसमें एक मिथलेश भाटी नाम की स्त्री सचिन मीना नाम के लड़के के लिए बहुत खराब तरीके बॉडी शेमिंग कर रही है। जिसमें वह सचिन नाम के व्यक्ति के लिए बेहद ही अभद्र भाषा में टिप्पणी करती जा रही है। वह स्त्री सचिन नाम के लड़के को बॉडी शेमिंग करते हुए “लप्पू सा सचिन… झींगुर सा सचिन.. बोलना तो आवे ना उसे…” जैसी अव्यवहारिक बातें कहते हुए बड़े जोश में बोले जा रही है। उस महिला को जरा भी एहसास नहीं है कि वह बॉडी शेमिंग जैसा हिंसात्मक व्यवहार एक दूसरे इंसान के ख़िलाफ़ कर रही है।
सारे मीडिया वाले उस बॉडी शेमिंग करती महिला के वीडियो को वायरल कर रहे हैं। उस पर खबरें बना रहे हैं। उसकी बॉडी शेमिंग को दुहराते जा रहे हैं। पूरा मीडिया उस औरत पर लहालोट दिखा। बात यहीं नहीं रुकी। पहली बार तो मीडिया के सामने महिला ने यूं ही बोल दिया था फिर बकायदा उसे चैनल वालों ने अपनी तरह से चमकाया-दमकाया, दूसरी बार स्क्रिप्टेड वीडियो बना। मनोरंजन के नाम पर यहां सोशल मीडिया कुछ भी परोस देता है और बिना उस पर सोचे-समझे लोग उसपर लहालोट हो जाते हैं।

बॉडी शेमिंग जैसी हिंसा का चलन कब से हुआ होगा? शायद यह सभ्यता के बनने के साथ ही चलन में आ गया था। अगर इस व्यवहार की गहराई में उतरकर देखा जाए तो यह समाज में ताकत का मसला है। शुरुआत में यह व्यवहार शायद एकदम से शारीरिक अक्षमता पर ही केन्द्रित होगा। फिर बाद में संस्कृति के विकास के साथ इसको प्रतिष्ठा से भी जोड़ लिया गया। वे लोग जो शारीरिक रूप से कुछ असमर्थ होते होंगे समाज में उनको कम उपयोगी समझा गया होगा।
किसी भी मनुष्य की देह को लेकर उसे कमतर कहना, महसूस करवाना, उसे अजीब या हास्यास्पद नज़रों से देखना, उसका मजाक उड़ाना, उस पर चुटकुले बनाना सब एक तरह का अमानवीय व्यवहार और हिंसा है। लेकिन समाज में बॉडी शेमिंग के लिए इतनी सहजता और स्वीकार्यता दिखती है कि इस हिंसा की पीड़ा तक अक्सर हम पहुंच ही नहीं पाते।
कालांतर में तो यह हिंसा बहुत जड़ रूप में दिखती है। लेकिन इतिहास से लेकर मिथक तक मे इस हिंसा का खूब चलन दिखता है। जैसे ‘कुब्जा’ नाम की स्त्री को पीठ पर कूबड़ था तो वहां लोग उन्हें कुबड़ी कहते थे। इसी तरह रामायण में मंथरा नाम की स्त्री को कूबड़ था तो उन्हें भी कुबड़ी कहकर अपमानित किया जाता था। इसी प्रकार के कुछ उद्धरण और भी मिलते हैं जहां शारीरिक कमजोरी को एक पहचान की तरह लिया जाता था। इसके साथ मिथकों में ये भी मिलता है कि ऐसे व्यक्ति कुटिल होते हैं ये कुटिलता की प्रकृति उनके शरीर के साथ जोड़कर देखी जाती। आगे चलकर तो इस मिथकीय पूर्वाग्रहों का असर समाज में बहुत गहरा दिखा।

गाँव-समाज में तो किसी भी विकलांग व्यक्ति के लिए बेहद अमानवीय व्यवहार होता था। यहां अवध में ही अभी कुछ दशक तक गाँव में शादी-ब्याह जैसे किसी उत्सव में उन्हें ले नहीं जाया जाता था। अगर घर-घराने के संबंध होने के कारण उन्हें ले भी जाया गया तो जो पक्ष विकलांग लोगों को उत्सव में ले गया है उसे उसका हर्जाना भरना पड़ता था। यही नहीं, उनको उत्सव आदि में अलग-थलग खाना खिलाया जाता था। आज भी यहां गाँव से लेकर कस्बों और शहरों में भी देखा है कि किसी विकलांग व्यक्ति का नाम उसकी विकलांगता से ही जोड़कर रख दिया जाता है। उसी नाम से ही उस व्यक्ति को संबोधित किया जाता है।
समाज में बॉडी शेमिंग जैसी हिंसा के कारण बाजार ऐसे मनुष्यों को लूटने के लिए भी अपनी दुकानें खोल कर बैठा है। सड़कों पर, दीवारों पर, हर ऑटो रिक्शा पर एक इश्तिहार लिखा मिलेगा, “कद बढ़ाएं” और कोई मोबाइल नंबर लिखा रहेगा। लोग जाते हैं इन लोगों से कद बढ़वाने के इलाज के लिए और इस तरह इन धूर्त लोगों की दुकानें चलती हैं।ये सब समाज की बॉडी शेमिंग प्रवृत्ति का परिणाम है।
इसी तरह तमाम शारिरिक कमजोरियों को ही नहीं रंग-रूप को लेकर भी बॉडी शेमिंग करते हैं। जैसे कोई छोटा है तो उसे नाटा कहेंगे, किसी की त्वचा का रंग गहरा है तो उसके लिए भी तमाम तरह की बॉडी शेमिंग यह समाज करता है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जो लोग इस अमानवीय व्यवहार से ग्रसित हैं उन्हें इसका न एहसास न कोई शर्मिंदगी। किसी मनुष्य को कमतर साबित करके ऐसे लोग इसे अपना मनोरंजन समझते हैं। जबकि किसी भी मनुष्य की देह को लेकर उसे कमतर कहना, महसूस करवाना, उसे अजीब या हास्यास्पद नज़रों से देखना, उसका मजाक उड़ाना, उस पर चुटकुले बनाना सब एक तरह का अमानवीय व्यवहार और हिंसा है। लेकिन समाज में बॉडी शेमिंग के लिए इतनी सहजता और स्वीकार्यता दिखती है कि इस हिंसा की पीड़ा तक अक्सर हम पहुंच ही नहीं पाते।
यही नहीं, कई लोग व्यक्ति की पहचान के नाम पर बॉडी शेमिंग करते रहते हैं। हमारे समाज की कंडीशनिंग इस तरह के जाने कितने अमानवीय व्यवहार हमसे करवाती है और हमें उसका एहसास भी नहीं होता। कोई भी मनुष्य किसी भी तरह से देह, जाति, वर्ग, लिंग या किसी भी अन्य आधार पर दूसरे मनुष्य से श्रेष्ठ नहीं है। इसलिए किसी भी मनुष्य को लेकर दूसरे मनुष्य की इस तरह की टिप्पणी या प्रतिक्रिया एक तरह की हिंसा ही है।
समाज में बॉडी शेमिंग जैसी हिंसा के कारण बाजार ऐसे मनुष्यों को लूटने के लिए भी अपनी दुकानें खोल कर बैठा है। सड़कों पर, दीवारों पर, हर ऑटो रिक्शा पर एक इश्तिहार लिखा मिलेगा, “कद बढ़ाएं” और कोई मोबाइल नंबर लिखा रहेगा। लोग जाते हैं इन लोगों से कद बढ़वाने के इलाज के लिए और इस तरह इन धूर्त लोगों की दुकानें चलती हैं। ये सब समाज की बॉडी शेमिंग प्रवृत्ति का परिणाम है। उनकी इस हिंसा के कारण कितने मनुष्यों का जीवन बद्तर होता जाता है उनको एहसास नहीं होता।

टीवी से लेकर सोशल मीडिया पर तो जैसे इन बॉडी शेमिंग का बाजार लगा हुआ है। ये सारे बाज़ार बॉडी शेमिंग जैसी हिंसा को नये-नये रूप में स्थापित ही नहीं करते बल्कि इस हिंसा के व्यवहार का बाकायदा व्यवसाय करते हुए समाज में उसे और जड़ बनाते हैं। इस तरह समाज में ये एक सामान्य व्यवहार की तरह बरता जाता है। समाज में बॉडी शेमिंग जैसी हिंसा को लेकर इतनी सहजता सीधे सत्तात्मक प्रवृत्ति से संबंधित है। इतिहास से मिथकों तक में इस हिंसा के प्रमाण मिलते हैं। शारीरिक बल और रूप जैसी चीजें समाज में प्रतिष्ठित थीं उसके इतर जो मनुष्य उनके सौंदर्य मानक, देह सम्पूर्णता के मानक में नहीं आते उनका उपहास करेंगे उनपर मजाक और चुटकुले बनाते हैं। डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दहिया में बॉडी शेमिंग हिंसा के इतने क्रूर दृश्य आते हैं कि जो किसी भी समाज के शर्मनाक और भयावह स्थिति है लेकिन समाज में इस हिंसा के लिए लोगों में कोई जागरूकता नहीं दिखती।
समाज अगर इसे संवेदनशील मन से सोचे-समझे और मानवीय मूल्यों के आधार पर मनुष्य को आंके तो इस तरह की हिंसा धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। मात्र देह बनावट के कारण किसी मनुष्य की आत्मा को आहत करके हास्य, व्यंग्य या कोई मनोरंजन सब एक तरह की क्रूरता होती है। एक स्वस्थ समाज समता और गैरबराबरी, न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों से बनता न कि भेदभाव, हिंसा और जड़ता जैसी धारणाओं से बनता है।