हमारे समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य, शरीर से जुड़ी बातों के बारे में ज्यादातर लोगों के पास एक बनी-बनायी धारणा होती है जो संकीर्णता और रूढ़िवाद से भरी है। घर-समाज में आज भी स्त्रियों की बीमारी को हल्के में लिया जाता है। कभी हास्य की तरह तो कभी व्यंग की तरह भी कि तुम तो हमेशा बीमार ही रहती हो। हालांकि इसके दूसरे अर्थ भी छिपे होते हैं कि घर का काम न करना पड़े इसलिए बीमारी का नाटक करती हो। परिवार में स्त्रियों के लिए कही गई ये बात स्त्रियों के स्वास्थ्य को लेकर एक हल्का नज़रिया दिखाता है उनकी बीमारियों को ज्यादा संज्ञान में नहीं लिया जाता है।
हमारे गाँव में आज भी स्त्री की बीमारी को ज्यादातर भूत-प्रेत, टोन-टोटके और अंधविश्वास के भरोसे ठीक होने के लिए छोड़ दिया जाता है। कही-कहीं तो बिलकुल नजरअंदाज कर दिया जाता है और समय या ईश्वर की इच्छा मान ली जाती है। गाँव की गीता देवी की बीमारी में हमें यही देखने को मिला। उनकी बीमारी को अनदेखा कर और लापरवाही की वजह से परेशानी एक बहुत गम्भीर बीमारी में बदल गई थी। शुरुआत में उनको बहुत दिनों तक बुखार बना रहा था। हल्का बुखार कहकर वे खुद और परिवार परेशानी को टालती रही। घर के पास से ही एक स्टोर से दवाई उपलब्ध करा दी जाती रही। दवाई से ऊपर का बुखार ठीक हो जाता पर अंदर से वह फिर भी बीमार ही रहती थी। इसी तरह उसका बुखार डेंगू जैसे गंभीर बुखार में बदल गया।
इस तरह लापरवाही और स्त्री के स्वास्थ्य को कम वरीयता देने की वजह से लंबे समय तक किसी को यह पता ही नही चला की उन्हें डेंगू हुआ है क्योंकि उनकी जांच और सही इलाज समय पर नहीं करवाया गया। बुखार से वह महीने भर तक पीड़ित रही और बाद के दिनों में बुखार ठीक होने पर कमजोरी से। लापरवाही की वजह से ही गीता देवी के शरीर में संक्रमण फैला था। इस व्यवहार का एक परिणाम यह भी है कि कभी-कभी स्त्री की मौत भी हो जाती है। हालांकि वह अभी ठीक है। घर के परिवार के सदस्यों द्वारा उनकी अस्वस्थता को हल्के में लिए जाने के कारण, अस्पताल में जांच ना कराए जाने के कारण उन्हें इस बीमारी से इतने दिन तक पीड़ित रहना पड़ा।
महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर चुप्पी
यह तो एक आम बीमारी बुखार के गम्भीर बनने की बात है। इससे अलग बात जब स्त्री की शारीरिक बनावट पर आधारित तकलीफों की आ जाती है तो वह शर्म, झिझक, लापरवाही और गंभीरता की कमी सब साफ देखने को मिलती है। स्त्रियों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों में पीरियड्स भी एक ऐसा स्वास्थ्य का विषय है जिसमें उन्हें कई सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन पीरियड्स के बारे में अज्ञानता की वजह से वैसे तो इसे एक बीमारी कहा जाता है लेकिन जब पीरियड्स से जुड़ी जटिलताओं, परेशानी, शारीरिक और मानसिक परेशानी की आती है तो इसे हल्के में लिया जाता है। चुप्पी और शर्म की बात की वजह से शुरुआती लक्षणों को नज़रअंदाज किया जाता है।
पीरियड्स के समय उनको आराम नहीं मिलता है। तमाम दर्द और तकलीफ़ में उसको घर का काम लगातार करना पड़ता है। अगर वह आराम करती भी है तो तुम्हें कुछ नहीं हुआ है जैसी बात कहकर उन्हें काम करने का आदेश दे दिया जाता है। पीरियड्स के दौरान स्वच्छता मैनेट न करने की वजह से भी कई तरह के संक्रमण होने का खतरा बना रहता है। एक तो आर्थिक कमजोरी दूसरा महिलाओं के ऊपर खर्च के कारण उन्हें सैनिटरी पैड को खरीदने और उसके इस्तेमाल की बुनियादी जरुरतों में नहीं देखा जाता है। महिलाएं पीरियड्स में आज भी कपड़े का इस्तेमाल करती है जिनके कारण उन्हें और कई तरह की समस्याओं या बीमारियों का शिकार होना पड़ता है। पीरियड्स से गुज़रने वाले लोगों की पीड़ा और ज़रूरत को साफ-साफ नज़रअंदाज करने की वजह से वे चुपचाप दर्द में रहकर काम करने पर मजबूर रहते हैं।
लड़कियों से इस विषय पर बात करते समय वे अनेक समस्याएं बताती हैं जो अनदेखी के कारण ही ज्यादा तकलीफ़देह हो जाती हैं। गांव की मधु बताती है कि उसे एक बार पीरियड्स खत्म होने के बाद इन्फेक्शन हो गया था। शुरुआत में उसे हल्की खुजली होती थी। तब स्वयं उसके द्वारा भी उस पर ध्यान नहीं दिया गया। बाद में उसकी खुजली अधिक बढ़ गई। उसे गुप्तांगों पर फोड़े होने लगे। बीमारी बढ़ जाने के साथ उसे दवाई दी गई और कुछ घरेलू उपचार किए गए। लेकिन उनकी समस्या बढ़ती ही गई। इस वजह से वह शारीरिक परेशानी का तो सामना कर रही ही बल्कि वह मानसिक रूप से भी अस्वस्थ रहने लगी थी। तनाव और नींद न आने की वजह से मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो गया था।
बहुत समय बीतने के बाद उसके परेशान रहने के कारण उसकी माँ ने उसे इलाज के लिए डॉक्टर को दिखाने की बात की। डॉक्टर को दिखाने की बात पर पुरुषों का कहना था कि उसे क्या हुआ है। उसे बुखार तो नहीं हुआ है वह देखने में एकदम ठीक है, वह बीमार नहीं है। वह रात को सो नहीं पाती है और यह कोई बीमारी नहीं है। हमेशा खुजलाने से इन्फेक्शन की जगह से खून निकलता रहता था। विशेषज्ञ डॉक्टर की जगह मेडिकल स्टोर से दवाई लाकर दी जाती थी। आखिर में इस तरह से कुछ समय बाद स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया। ऐसी कितनी ही बातें हमारे आसपास के परिवेश में मौजूद है जहां लड़कियों और महिलाओं के स्वास्थ्य के प्रति होती लापरवाही को दिखाती है।
मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी
घर-परिवार और समाज में ध्यान से देखने पर दिखता है कि स्त्रियां कई तरह की बीमारी से पीड़ित होती है। उनकी सभी प्रकार की बीमारियों को हल्के में लिया जाता है लेकिन इसमें भी स्त्रियों के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी बातों को पर ध्यान देने का स्तर और भी खराब होता है। पहले तो आज भी मानसिक अस्वस्थता को बीमारी ही नहीं माना जाता है दूसरा बात जब स्त्री की मानसिक स्वास्थ्य की आती है वैसे तो उपचार ही नही होता है। इसे भूत-प्रेत, अंधविश्वास का मामला बनाकर उसका उपचार तंत्र -मंत्र द्वारा होता है। स्त्रियों के मानसिक रोग होने के तो कई कारण हैं जैसे कुछ बनने के सपने को न पूरा कर पाना, पारिवार में हर काम बेहतर करने की अपेक्षा, शादी, घर तक सीमित रहना आदि। गर्भावस्था के दौरान या प्रसव के बाद शारीरिक बदलावों की वजह से मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। लेकिन बच्चे को जन्म देने, माँ बनने के रूप को इतना महत्व दिया जाता है कि इससे अलग भी कोई परेशानी हो उसे कुछ समझा ही नहीं जाता है।
महिलाओं पर बीमारियों का तिगुना भार
भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं में विकलांगता और यौन-प्रजनन स्वास्थ्य से ज्यादा नॉन-कम्यूनिकेबल डिसीज़ से पीडित होने की ज्यादा संभावना रहती हैं। हेल्थ ऑफ द नेशन्स स्टेटस यह दिखाता है कि पिछले दो दशक में यह भार महिलाओं पर 30 फीसदी से बढ़कर 55 फीसदी हुआ है। डाउन टू अर्थ में छपी जानकारी के अनुसार यह स्टडी बताती है कि गैर-संचारी, संचारी और यौन-प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी बीमारियों का महिलाएं पर तिगुना भार का सामना करती हैं। अध्ययन के अनुसार भारत में कमजोर प्रजनन स्वास्थ्य, बाल स्वास्थ्य और पोषण का भार दुनिया के अन्य देशों से ज्यादा है।
लैंगिक असमानता, पूर्वाग्रह, अशिक्षा और रूढ़िवादी सोच महिलाओं की स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच को बाधित करती है। हॉवर्ड यूनिवर्सिटी, एम्स और अन्य द्वारा किए गए एक साझा अध्ययन के मुताबिक़ लैंगिक भेदभाव महिलाओं के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डालता है। रिसर्च में 2,377,028 ओपीडी के मरीजों से जुड़े रिकॉर्ड की जांच की गई थी। विशेषज्ञों के अनुसार केवल 37 प्रतिशत महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल कर पाती हैं जबकि पुरुषों में यह दर 67 फीसद है। डीडब्ल्यू में प्रकाशित ख़बर के अनुसार अध्ययन के अनुसार महिलाओं की प्रजनन आयु यह तय करने में बहुत बड़ा कारण है कि वे डॉक्टर को दिखा सकती है या नहीं। 31 से 44 की उम्र की महिलाओं और 45 से 49 साल की उम्र की महिलाएं कम लैंगिक पूर्वाग्रहों का सामना करती हैं। 19 से 30 साल की महिलाओं को इलाज के दौरान ज्यादा पूर्वाग्रह देखने को मिले है। यह अध्ययन यह भी दिखाता है कि राजधानी दिल्ली से क्षेत्र की दूरी साथ-साथ लैंगिक पूर्वाग्रह ज्यादा देखने को मिलता है। इसकी एक वजह इलाज और यात्रा पर होने वाला खर्च भी है।
इस तरह से लैंगिक पूर्वाग्रह की सोच महिलाओं और लड़कियों की बीमारियों के बीच बाधा बनती आ रही है। गांव हो या शहर हर जगह महिलाओं को पितृसत्ता की कंडीशनिंग के तहत खुद के स्वास्थ्य को कम महत्व देने और सबका ध्यान रखने की बात भी की जाती है। आज जरूरत है कि समाज स्त्रियों में होने वाली हर तरह की शारीरिक और मानसिक बीमारियों को गम्भीरता से लेकर चलने की। हमें ध्यान रखना होगा कि बिना स्वस्थ स्त्रियों के एक स्वस्थ समाज नहीं बन सकता है।