इंटरसेक्शनलजेंडर हर दिन की थकान के बीच आराम खोजती औरतों का जीवन

हर दिन की थकान के बीच आराम खोजती औरतों का जीवन

हम नहीं देख पाए कि घर की औरतें एक नहीं कई जीवन जीती हैं। अपने पति का, बच्चों का, परिवारवालों का और उन सब में से सबसे कम जी पाती हैं खुद का जीवन। सारा दिन वे फ़ेहरिस्त बनाती रहती हैं उन्हीं के कामों की, खाने की, ज़रूरी सामान की और उनकी भावनात्मक ज़रूरतों की। हमने नहीं सोचा कि कब मिलता होगा उसके दिमाग को ख़ाली वक़्त ख़ुद के लिए। हम अनजान बने रहे क्योंकि उसी में हमारा फ़ायदा था

हमने महिलाओं को अकसर भागते देखा है। चौबीसों घंटे इधर-उधर, उपर-नीचे, घर के काम, परिवार की देखभाल, नौकरी आदि के लिए। फिर हमने यह भी कई बार सुना है कि महिलाएं दिनभर घर में करती क्या हैं, या “घर का काम भी कोई काम है भला या ये कि “माँ – बहन- बीवी के बिना घर कितना अधूरा होता है।” हमने औरतों के काम को तो देखा है लेकिन नहीं देखी है तो उनकी हमेशा रहने वाली थकान। उनके ऊपर डाला गया बाहर और घर के दोहरे काम का बोझ। हम कभी नहीं सोचते कि घर की औरतें कितना खाती हैं, कब खाती हैं, क्या खाती हैं? यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी कभी नहीं रही। हमें नहीं पता चलता था उनके पीरियड्स कब आते हैं, उनका हीमोग्लोबिन लेवल आज-कल कम क्यों रहने लगा है।

घर की औरतें जब कहती हैं, “सिर में दर्द है, पैरों में जान नहीं है, चक्कर से आ रहे हैं, हिम्मत टूट रही है” तो इन पर ध्यान देने की कभी नौबत परिवार के बाकी सदस्यों के लिए नहीं आई। ऐसा इसलिए क्योंकि हमने कभी इससे औरतों के काम पर कोई असर पड़ता नहीं देखते। हम नहीं देख पाए कि घर की औरतें एक नहीं कई जीवन जीती हैं। अपने पति का, बच्चों का, परिवारवालों का और उन सब में से सबसे कम जी पाती हैं खुद का जीवन। सारा दिन वे फ़ेहरिस्त बनाती रहती हैं उन्हीं के कामों की, खाने की, ज़रूरी सामान की और उनकी भावनात्मक ज़रूरतों की। हमने नहीं सोचा कि कब मिलता होगा उसके दिमाग को ख़ाली वक़्त ख़ुद के लिए। हम अनजान बने रहे क्योंकि उसी में हमारा फ़ायदा था

थकान समझने के लिए कोई नयी चीज़ नहीं है। ख़ासकर आज के पूंजीवादी दौर में जहां जीवन एक दौड़ है और जीवनयापन एक संघर्ष, हम सब थकान के शिकार हैं। लेकिन फिर भी हम इसे गंभीरता से क्यों नहीं लेते? क्या थकान कोई ध्यान देने लायक शारीरिक-मानसिक स्थिति नहीं है? क्या महिलाओं को इससे ज़्यादा जूझना पड़ता है? क्या महिलाएं और पुरुष इससे भिन्न तरीके से निपटते हैं?

थकान क्या है?

परंपरागत परिभाषा के अनुसार लंबे समय तक काम करने के फलस्वरूप घटी हुई क्षमता को ही थकान की परिभाषा दी गई है। थकान को मेडिकल भाषा में ‘फटीग’ (fatigue) भी कहा जाता है, जिसमें आपको न सिर्फ कमज़ोरी महसूस होती है, बल्कि ऊर्जा की कमी रहती है। थकान या थकावट होना कई छिपी हुई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का संकेत हो सकता है, इसके अलावा यह खुद में भी एक प्रकार का सिंड्रोम हो सकता है। इसके कारण आपको अपनी आम दैनिक गतिविधि जैसे नहाना, कपड़े पहनना आदि में भी थकावट महसूस हो सकती है।

कहीं बाहर से घर लौटकर पुरुषों की सहज प्रवृत्ति लेटकर आराम फ़रमाने की होती है और महिलाएं सीधा काम में लग जाती हैं। बड़ी होती लड़कियां अचानक अपने भाई को खुद से पहले खिलाने लगती हैं। प्रेमिकाएं पुरुषों के काम कर अपना प्रेम ज़ाहिर करने लगती हैं। 

रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

क्रोनिक फटीग सिंड्रोम (दीर्घकालिक थकान)

यूएस सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार, क्रोनिक फटीग सिंड्रोम, एक गंभीर और दुर्बल करनेवाली बीमारी है जो तंत्रिका तंत्र, प्रतिरक्षा प्रणाली और शरीर के ऊर्जा उत्पादन को प्रभावित करती है। दैनिक गतिविधियों को करने की क्षमता में अचानक कमी आना इसका सबसे बड़ा लक्षण है।

ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (एनएचएस) के अनुसार, नींद या आराम से यह थकान दूर नहीं होती और व्यायाम करने से आमतौर पर लक्षण बदतर हो जाते हैं। अन्य लक्षणों में सोने में परेशानी, सोचने में कठिनाई, स्मृति और एकाग्रता में कमी, चक्कर आना, सिरदर्द, मांसपेशियों में दर्द, जोड़ों में दर्द, फ्लू जैसे लक्षण, नाज़ुक़ लिम्फ नोड्स और पाचन संबंधी समस्याएं शामिल हैं। इसमें ब्रश करने जैसी मामूली गतिविधियों के लिए भी शारीरिक/मानसिक ऊर्जा नहीं बचती।

थकान के जटिल कुचक्र से गुज़रती महिलाएं

ब्र्यां जे मैथिस, अपने लेख ‘द इन्ट्रीकेट वेब ऑफ़ फटीग इन वीमेन में लिखते हैं, “थकान आधुनिक जीवन की ज़रूरतों पर आधारित एक सांस्कृतिक घटना है।  वैश्विक वाणिज्य, विभिन्न समय क्षेत्रों में हर समय संचार, नौकरियों की जटिलताएं, सभी मिलकर तनाव बढ़ाने और आराम करने के समय को कम करने का काम करते हैं। लेकिन अधिकांश चिकित्सा सलाह इसके मूल कारणों को दूर करने के बजाय तनाव से लड़ने की पर केंद्रित होती हैं। विशेष रूप से महिलाएं तनाव से अधिक पीड़ित होती हैं। अगर महिलाएं शिक्षा, करियर, प्रसव, बच्चे की देखभाल, या सामाजिक दबाव में काम करने में असमर्थ हैं, तो उन्हीं पर दोष मढ़ा जाता है, तनाव के कारणों पर नहीं। यह चिकित्सा विज्ञान के नियम (बीमारी के कारण को दूर करना इलाज करने से कहीं बेहतर है) के ठीक विपरीत है।

हम कभी नहीं सोचते कि घर की औरतें कितना खाती हैं, कब खाती हैं, क्या खाती हैं? यह सोचना हमारी ज़िम्मेदारी कभी नहीं रही। हमें नहीं पता चलता था उनके पीरियड्स कब आते हैं, उनका हीमोग्लोबिन लेवल आज-कल कम क्यों रहने लगा है।

शायद ही कभी किसी एक वजह के कारण थकान होती है। बल्कि, थकान, विशेष रूप से महिलाओं में बहुत सारी घटनाओं का परिणाम है। इस दृष्टि से, थकान केवल मानव इच्छाशक्ति में बाधा उत्पन्न नहीं करती बल्कि यह हमारे न्यूरोफिज़ियोलॉजिकल तंत्र में एक रुकावट है। थकान के रूप भी विविध हैं इसलिए उससे पीड़ित महिलाएं और तनाव के मूल कारणों को पूरी तरह से चित्रित करने के लिए मनोसामाजिक, शारीरिक, सांस्कृतिक और रोग संबंधी क्षेत्रों को संबोधित किया जाना चाहिए।”

रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
रितिका बनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

भारत में दीर्घकालिक थकान

जागरूकता की कमी और अपर्याप्त शोध के कारण भारत में थकान की बात करना ही काफी कठिन है। दुनियाभर के मेडिकल स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में भी इस स्थिति का बहुत कम या कोई विवरण नहीं है। बहुत से लोग यहां दीर्घकालिक थकान से प्रभावित हैं और उन्हें नहीं पता कि इस लगातार थकावट के बारे में उन्हें क्या करना चाहिए। साल 2005 में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, भारत में महिलाओं द्वारा आमतौर पर दीर्घकालिक थकान की शिकायत की गई। इसका सबसे मजबूत संबंध मनोसामाजिक कारकों से है जो खराब मानसिक स्वास्थ्य और लैंगिक भेदभाव की ओर इशारा करते हैं। यह अपनी तरह का भारत में पहला अध्ययन था और इसके अनुसार महिलाओं में इस थकान का कारण आमतौर पर मौजूद खून की कमी से कहीं ज़्यादा मल्टी- टास्किंग की वजह से उत्पन्न होने वाला तनाव है। अधिकतर महिलाओं ने अपनी थकान का कारण ‘मुश्किल पारिवारिक जीवन’ और उनसे की जाने वाली अनगिनत अपेक्षाओं को बताया।

थकान समझने के लिए कोई नयी चीज़ नहीं है। ख़ासकर आज के पूंजीवादी दौर में जहां जीवन एक दौड़ है और जीवनयापन एक संघर्ष, हम सब थकान के शिकार हैं। लेकिन फिर भी हम इसे गंभीरता से क्यों नहीं लेते? क्या थकान कोई ध्यान देने लायक शारीरिक-मानसिक स्थिति नहीं है? क्या महिलाओं को इससे ज़्यादा जूझना पड़ता है? क्या महिलाएं और पुरुष इससे भिन्न तरीके से निपटते हैं?

भारतीय महिलाओं से ‘सुपरवुमन’ होने की उम्मीद की जाती है, जिन्हें अपनी नौकरी पर रहते हुए भी अपने घरों की देखभाल करनी पड़ती है और अपने बच्चों के शेड्यूल पर भी ध्यान देना पड़ता है। ऐसा तनाव दीर्घकालिक थकान के रूप में प्रकट होता है। भारत जैसे विकासशील देशों में इन सामाजिक कारकों के अलावा, पोषक तत्वों की कमी, ख़ून की कमी जैसे शारीरिक कारक भी थकान की मुख्य वजह हैं। वृद्ध, बड़े परिवार में रहनेवाले लोग और सामाजिक आर्थिक कठिनाइयों (कम शिक्षा, गरीब आवास की स्थिति, वित्तीय कठिनाई) का सामना करनेवालों में थकान का अनुभव होने की अधिक संभावना होती है।

आराम से दूर महिलाएं 

आराम शायद सबसे बड़ा विशेषाधिकार है। भारत जैसे देश में एक बड़ी आबादी को आराम का मौका नहीं मिलता। ख़ासतौर पर महिलाओं को तो बिलकुल नहीं। दिनभर की मज़दूरी के बाद, पुरुष फिर भी चंद घड़ी बैठकर सांस ले सकते हैं लेकिन औरतें घर के काम में लगी रहती हैं। तमाम सर्वे बताते हैं कि महिलाएं अधिक काम करती हैं, और वह भी बिना किसी मेहनताने के। सर्वे यह भी बताते हैं कि महिलाएं कम आराम करती हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है हमारी लैंगिक भूमिकाएं और पितृसत्तात्मक कंडीशनिंग।  

श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए
श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

पुरुषों के मुकाबले महिलाएं आसानी से अपनी नींद को काटकर काम कर लेती हैं। उनकी कंडीशनिंग ही इस तरीके से की जाती है। डिलीवरी के बाद बच्चे की देखभाल के लिए अचानक पति की जगह घर की कोई महिला ही काम में लग जाती है। कहीं बाहर से घर लौटकर पुरुषों की सहज प्रवृत्ति लेटकर आराम फ़रमाने की होती है और महिलाएं सीधा काम में लग जाती हैं। बड़ी होती लड़कियां अचानक अपने भाई को खुद से पहले खिलाने लगती हैं। प्रेमिकाएं पुरुषों के काम कर अपना प्रेम ज़ाहिर करने लगती हैं। यही छोटी-छोटी बातें बड़े अंतर का कारण बनती हैं। असल में यह छोटी नहीं, बहुत बड़ी बातें हैं पर इन्हें छोटी मानना शायद हमारी कंडीशनिंग है। 

सबसे पहले तो हमें इस बात को स्वीकारना होगा कि थकान एक गंभीर अवस्था है और ध्यान न देने पर वह मुश्किल बीमारियों का कारण बन सकती है। रोज़मर्रा की थकान से निपटने के लिए महिलाओं को अपनी सेहत शारीरिक और मानसिक ज़रूरतों को तवज्जो देनी चाहिए। हमें व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और सांस्थानिक स्तरों पर लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती देना शुरू करना चाहिए और पोषण के लिए और संजीदा तरीके से काम करना चाहिए। चिकित्सकीय शिक्षा में जेंडर आधारित पढ़ाई को शामिल कर विद्यार्थियों में संवेदनशीलता और सामाजिक समझ बढ़ाने की भी बेहद ज़रूरत है। वरना यह तो चल ही रहा है, “तुम कोई नयी आई हो? थकान तो होती ही है। चलो हिम्मत करो।”   


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content