रोज सवेरे उठना, फिर ऑफिस जाने वालों के लिए टिफिन तैयार करना, साथ में छोटे बच्चे को स्कूल जाने के लिए तैयार करना उसके बाद घर के काम, साफ-सफाई ही पूरी होती है कि दोबारा दोपहर के खाने का समय आ जाता है। चेहरे पर हल्की मुस्कान और आंखों में उदासी के साथ बोलती वंशिका अकेली नहीं हैं जिनकी यह दिनचर्या है बल्कि घरों में रहने वाली औरतें इसी तरह सुबह से शाम तक काम में लगी रहती हैं। अक्सर दोपहर के बाद और शाम के काम के बीच वह कुछ-कुछ समय अपने लिए निकालती हैं। जहां आराम करके या बहुत सी इसमें भी खुद की पसंद का काम करते हुए समय बिताती है।
आज के वर्तमान समय में खुद की देखभाल पहले से कही अधिक महत्वपूर्ण है। नहाना, सोना, अच्छा भोजन, खाली वक्त निकालना इन सभी को सेल्फ केयर के कुछ उदाहरण माना जाता है। लेकिन खुद की देखभाल करना सभी के लिए एक जैसा नहीं है। इस तरह की गतिविधियां सभी के लिए फायदेमंद ज़रूरी है लेकिन जेंडर, जाति, क्षेत्रीय, अमीरी-गरीबी की वजह से यह सभी के एक तरह से उपलब्ध नहीं है। ख़ासतौर पर सेल्फकेयर जैसा काम पूंजीवादी दौर में एक उद्योग से भी जुड़ गया है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के दौर पर सेल्फ केयर के उत्पादों और आयोजनों के विज्ञापनों की भरमार है।
बाज़ार ने इसे सौंदर्य, पैसा और चीजों की खरीदारी के साथ जोड़ दिया गया है। सेल्फ केयर शब्द इंटरनेट पर टाइप करते ही सबसे पहले आधा दर्जन विज्ञापन दिखते हैं। ख़ासतौर पर कोविड-19 महामारी ने खुद की देखभाल के बाजार पर आधारित टर्म को और अधिक स्थापित करने का काम किया है। आईआरआई वर्ल्डवाइड के आंकड़ों के मुताबिक़ 2020 में सेल्फकेयर पर आधारित इंडस्ट्री का मूल्य 450 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। साल 2014 में जो 10 बिलियन से बढ़ गया है। अमेरिका में हुए एक अध्ययन के अनुसार आत्म-देखभाल करना बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन शोध में यह भी पाया गया है कि 44 प्रतिशत चिकित्सक का मानना है कि सेल्फ केयर केवल उन लोगों के लिए संभव है जिसने पास पर्याप्त समय है, जबकि 35 प्रतिशत का मानना है कि यह केवल उन लोगों के लिए है जिनके पास पर्याप्त पैसा है। यह अध्ययन इस बात को स्पष्ट करता है कि सेल्फ केयर के लिए पैसा और समय सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।
स्व-देखभाल के तहत जब बात पैसे और समय की आती है तो इसमें सबसे पहले पीछे छूटती स्त्रियां हैं। ख़ासतौर पर घरेलू स्त्रियां जिनके पास न तो पैसा है और न ही काम है। क्योंकि पितृसत्ता के तहत घर संभालना काम नहीं बल्कि एक जिम्मेदारी मानी जाती है जो हर गृहणी के लिए निभाना ज़रूरी है। इस तरह से दड़बे की घुटन में जीती ये स्त्रियां ऐसी जीवनशैली अपनाने में बहुत पीछे रहती है जहां वे खुद को वरीयता दे सकती हो। सेल्फ केयर की दुनिया हमें खुद को महत्व देना, अपनी पसंद और नापसंद को चुनना, स्वंय को प्राथमिकता देना सिखाती है। महिलाओं को नियंत्रित करने वाले पुरुषवादी और रूढ़िवादी समाज में इस तरह के व्यवहार को चुनना औरतों के लिए बहुत दूर की बात है।
अक्सर गांव-कस्बों और शहरों में रहने वाली इन स्त्रियों से जब आप सीधे पूछे कि आप खुद का ख्याल या सेल्फ केयर कैसे करती हैं तो अधिकांश के लिए इस सवाल का जवाब देना सबसे कठिन प्रश्नों में से एक है। पितृसत्ता के बनाए नियमों में न तो महिलाओं के काम को वो तवज़्जों दी जाती है जिसकी वह हकदार है और न ही खुद की पर्याप्त देखभाल के लिए उन्हें समय मिलता है। हमारे घरों में काम, रिश्ते, पालन-पोषण के बीच महिलाएं अक्सर कई तरह के तनाव से भी गुजरती हैं लेकिन वह खुद का ख्याल रखने वाली बात को नकार ही देती है। इसकी एक वजह यह भी है कि इस व्यवस्था में खुद को अहमियत देने को स्वार्थीपन से जोड़कर देखा जाता है। वहीं महिलाओं के अस्तित्व को त्याग की मूर्ति मानने वाली ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की विचारधारा के तहत उनका अपमान तक किया जाता है।
‘मेरे लिए नींद सबसे ज़रूरी है’
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर की रहने वाली अनीता एक गृहणी हैं। आमतौर पर जिस तरह की जिम्मेदारियां महिलाएं निभाती हैं उनका पूरा दिन उन्हीं कामों में निकल जाता है। घर और बाहर की जिम्मेदारियों के बीच खुद के लिए निकाले वक्त को वह कैसे बिताती है इस पर बात करते हुए उनका कहना है, “असलियत में हम औरतों को खुद के लिए वक्त चोरी करना पड़ता है। मेरा तय है कि खुद के मन को खुश करने के लिए मैं सुबह के काम के बाद और दोपहर के खाना बनाने के बीच बचे टाइम में अक्सर अख़बार पढ़ती हूं। अगर काम की व्यस्ताओं की बीच मेरा अख़बार पढ़ना छूटता है तो मुझे लगता है कि कुछ ऐसा छूट रहा है जिसके न होने से सिर्फ मैं प्रभावित होती हूं। साथ ही दिन में एक नींद की छपकी लिए बिना भी मुझे राहत नहीं मिलती है चाहे दस मिनट ही क्यों ना हो लेकिन दोपहर के खाने के बाद यह आराम बहुत राहत भरा है। बाकी तो कामों की लिस्ट पूरे दिन की सुबह ही तैयार हो जाती है। रूटीन के कामों के अलावा अन्य काम हम तैयार रखते हैं लेकिन यही वक्त है जब मैं खुद को कामों में उलझा हुआ नहीं पाती हूं। अक्सर ढ़लते दिन के बीत बाल संवारना, नेलपेंट लगाना और सहेलियों के साथ बातचीत करना राहत भरा और अगले दिन की ओर बढ़ना होता है।”
‘एक घंटा टीवी देखना खुश करता है’
सावित्री एक कामकाजी महिला हैं। वह पांच घरों में घरेलू कामगार के तौर पर काम करती हैं। सुबह आठ बजे से शाम के पांच-साढ़े पांच बजे तक वह घर से बाहर समय बिताती है। काम के बाद बचे समय और खुद के ख्याल रखने के बारे में उनका कहना है रोज दोपहर दो बजे तक मेरा सुबह का काम खत्म हो जाता है उसके बाद शाम के बर्तन साफ करने के लिए मेरे पास एक-डेढ़ घंटे का समय बचता है लेकिन यह समय मैं उसी जगह बिताती हूं जहां रोज आखिर में बर्तन और सफाई करने जाती हूं। दरअसल उस घर में ब्यूटी पार्लर है तो मैं वहां काम करने वाली अन्य लड़कियों के साथ बैठकर इस दौरान टीवी देखती हूं। एक-तो घर और काम की जगह में बहुत दूरी हूं और इतना पैदल घर चलकर आने-जाने से थकावट भी होती है। टीवी देखते हुए थोड़ा मन भी बदल जाता है और आराम भी हो जाता है। घर पर आकर तो फिर खुद के भी काम कुछ न कुछ निकल ही आते हैं। तो हम सभी बैठकर टीवी देखते हैं। इसके अलावा शाम में काम से लौटते हुए कभी-कभार जैसे आज बैठे बात कर रहे हैं तो अपनी किसी सहेली या जानकार के पास कुछ वक्त के ठहर जाती हूं। नहीं तो दिन काम में ही गुजर जाता है। खुद के लिए मेरे पास तो पूरे दिन में बस यही वक्त मिलता है।
‘खुद को वरीयता देना घर में मुश्किल है’
संगीता एक गृहणी हैं। घर-परिवार की जिम्मेदारियों के बीच खुद के लिए समय निकालने और सेल्फ केयर के बारे में बातचीत करते हुए उनका कहना है, “सभी लोगों के ख्याल के बीच खुद के ख्याल रखने जैसी बात तो कभी आती ही नहीं है और हमारे ऐसा करने से किसी को परेशानी हो तो चीजें घर में बहुत खराब हो सकती है। खुद को वरीयता देना कई तरह की चीजों को साफ मना करना भी है और इस तरह का व्यवहार करने पर हम औरतों को बहुत जज भी किया जाता है। इससे अलग पूरे दिन की भाग-दौड़ के बीच हमारे पास शाम का समय मिलता है जहां कुछ समय के लिए रसोई और अन्य कामों से फुर्सत मिलती है। नहीं तो पूरा दिन ऐसे ही बीत जाता है। यहीं समय है जब मैं थोड़ा खुद के लिए बिताती हूं। अक्सर हम मौहल्ले की औरतें इकट्ठा होकर बातचीत करके बिताती हैं। जहां किसी तरह की काम की जल्दबाजी नहीं होती है बस यही कुछ पल होते है जहां से थोड़ा रिफ्रेश जैसा फील होता है।”
आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में खुद की देखभाल करने वाले व्यवहार और आदतों पर ध्यान देना पहली ज़रूरत है। हालांकि महिलाओं के मामले में स्व-देखभाल की बहुत ही गलत तरह से देखा जाता है। सामाजिक ताना-बाना इस तरह की स्थिति में महिलाओं के बीच एक बड़ा अंतर पैदा करता है। ख़ासतौर पर जिन महिलाओं के पास आर्थिक स्वतंत्रता कम है उनके लिए इस पहलू को सोचा तक नहीं जाता है। इतना ही नहीं पितृसत्ता की कंडीशनिंग के तहत उन्हें खुद को भुलाकर अन्य लोगों की देखभाल की ट्रेनिंग तक दी जाती है। इससे इतर जब आप खुद की देखभाल की आदतों पर ध्यान देते है तो हम जान पाते हैं कि इससे मानसिक स्वास्थ्य में काफी सुधार होता है। ऐसा करने से ऊर्जा के नए संसाधन बनते है।
खुद की देखभाल करने और हर वक्त प्रोडक्टिव न रहने जैसे विषय एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तक सीमित है। हालांकि यह एक स्वास्थ्य से संबंधित विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य को पूरी तरह से शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की स्थिति के रूप में परिभाषित किया है, न केवल बीमारी या दुर्बलता की अनुपस्थिति के रूप में। इसी तरह कई अध्ययनों में मनोविज्ञान से जुड़ी चुनौतियां, कम आत्मसम्मान और नाखुशी व्यक्तिग मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी है। इस तरह से यह बात स्पष्ट होती है कि एक इंसान के लिए खुद की देखभाल और अपने व्यक्तिगत बदलावों पर गौर करने की कितनी आवश्यकता है।
‘खुद की पहचान बनाने की कोशिश मेरे लिए सेल्फ केयर है फिलहाल’
दुहाई गांव की रहने वाली वंशिका एक गृहणी है। अपनी दिनचर्या और सेल्फ केयर के बारे में बात करते हुए कहना है, “शादी के बाद आप मेंटली सेल्फकेयर के बारे सोच ही नहीं सकते है। शुरुआती समय में तो वक्त कैसे बीतता है पता नहीं चलता है। खुद के बारे में ख्याल आते है लेकिन अक्सर हम महिलाओं और लड़कियों को इन्हें नकारना और पीछे रखना सिखाया जाता है। इस कंडीशनिंग की वजह से हालांकि कुछ समय बाद चिड़चिड़ाहट होने लगती है। मेरी शादी को सात साल पूरे हो गए है। अब बच्चा स्कूल जाने लगा है, पति दफ्तर जाते है उसके बाद परिवार और काम में बीतता सारा वक्त मुझे बीते समय से परेशना करता रहा। मेरी क्या पहचान है, मुझे अपने पैरो पर खड़ा होना चाहिए, अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिए।”
उनका आगे कहना है, “अब बीते कुछ समय से मैंने खुद पर ध्यान देना शुरू किया है। सुबह पांच बजे उठकर पहले थोड़ा योग करती हूं ताकि खुद के शरीर को फिट रख सकूं। अगर कभी मिस होता है तो पति और बच्चे को स्कूल भेजने के बाद कुछ एक्सरसाइज करती हूं। दिन में खाली समय में अब मैं खुद पढ़ती हूं। दरअसल बच्चे को पढ़ाने के लिए मुझे भी उतनी ही मेहनत करनी होती है। साथ ही मैं खुद चाहती हूं कि मैं नौकरी करूं तो इसके लिए इंटरनेट से अंग्रेजी बेहतर करने की वीडियो देखती हूं। इस तरह खुद की पहचान बनाने और परिवार को संभालने के बीच दिन से रात कब हो जाती है पता ही नहीं चलता है। बस इन सबके बीच फिलहाल मेरे लिए सेल्फकेयर यही है कि मैं क्या सोच रही हूं और उसको पूरा करने के लिए मुझे क्या करना है। मैं छोटे-छोटे प्रयास कर रही हूं और इनसे मुझे अच्छा महसूस होता है।”
महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी विचार और उन्हें दोयम दर्जे का जीवन जीने की व्यवस्था में खुद की देखभाल का विचार पीढ़ी दर पीढ़ी अदृश्य किया जा रहा हो लेकिन इसकी अहमियत हर इंसान के लिए बहुत आवश्यक है। सेल्फ केयर टर्म की उत्पत्ति एक मेडिकल रिसर्च के तहत हुई है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में इसकी मौजूदगी ब्लैक फेमिनिस्ट एक्टिविस्ट और लेखक ऑड्रे लॉर्डे ने स्थापित की थी। उन्होंने सेल्फ केयर को कैंसर जैसी बीमारी की व्यक्तिगत यात्रा से निपटने का एक तरीका बताया था इसके साथ ही नस्लवाद के आघातों से निकलने के लिए भी। लॉर्डे ने लिखा था, “खुद की देखभाल करना आत्म-आनंद का काम नहीं है, यह आत्म-संरक्षण है, और यह एक राजनीतिक युद्ध की तरह भी है।”
सुमित्रा एक बुर्जग महिला है। अपनी दिनचर्या पर बातचीत करते हुए उनका कहना है कि अब तो उम्र बीत गई है काम करते हुए पूरा समय कुछ न कुछ करने में ही बीत जाता है। अब रसोई का काम नहीं करते है तो पशुओं की देभभाल करते है। शाम में अक्सर मैं रोज यहीं बाहर सड़क किनारे बैठ जाती हूं। आसपास की महिलाएं भी आकर बैठ जाती हैं। इधर-उधर की दो चार बात कर लेते हैं इस तरह से वक्त बीत जाता है और इसी तरह से जिंदगी भी गुजर गई। काम हमेशा किया है। अब तो बड़े हो गए है, घर में बेटे की पत्नी है, बच्चे है तो उस तरह का भार नहीं रहा है जो पहले था लेकिन इस सबके बीच भी रोज के कामों पर नज़र रखना और घर में सब सही से चल रहा इन पर ध्यान रहता ही है। ऐसे ही दिन गुजर रहे हैं और उम्र बढ़ रही है।
हमारी सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं के नज़रिये से स्व-देखभाल और आराम का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है। घरेलू महिलाओं का पूरा जीवन घर की चारदीवारों के बीच परिवार और घर को व्यवस्थित करने में बीत जाता है। खुद की बात करने, रखने की न उनके पास स्वतंत्रता होती है और न ही वे इससे अवगत होती हैं। अगर पूंजीवादी व्यवस्था में भी देखे तो उन्हें उपभोक्ता के तौर पर भी सबसे पीछे रखा जाता है। इस तरह निम्न मध्यवर्गीय, ग्रामीण और घरेलू महिलाएं खुद के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाती है। महिलाओं और ख़ास तौर पर हाशिये के समुदाय, क्षेत्र से आने वाली महिलाओं के लिए बहुत ज़रूरी है कि उन्हें अवगत कराया जाए और उनकी खुद की आवश्यकता को तवज़्जो दी जाएं।
नोटः लेख में शामिल सारी तस्वीरें पूजा राठी ने उपलब्ध करवाई हैं।