हमारे कपड़े, भाषा, खाना, रीति रिवाज़ आदि हमारे जीवन, समाज से जुड़ी चीजें हमारी संस्कृति यानी कल्चर कहलाती हैं। अमेरिकी मानवविज्ञानी राल्फ़ लिंटन के अनुसार कल्चर, “किसी समाज की संस्कृति उसके सदस्यों के जीवन जीने का तरीका, विचारों और आदतों का संग्रह है जिसे वे सीखते हैं, साझा करते हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रसारित करते हैं।” इसी कल्चर यानी संस्कृति का हिस्सा तस्वीरें, चित्र, चलचित्र भी होते हैं जो विजुअल कल्चर यानी दृश्य संस्कृति में आते हैं। एक समाज में लोगों के बीच दृश्य संस्कृति को शरीर के सपोर्ट के लिए ज़रूरी रीढ़ की हड्डी के समान रख सकते हैं। विज्ञान की नज़र से देखें तो लिखित से साठ हज़ार गुना ज़्यादा जल्दी दृश्यों को हमारा दिमाग समझ लेता है, याद कर लेता है। क्योंकि कल्चर वह है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में यात्रा करता है उसके लिए ज़रूरी है कि भौतिक दृश्य से लोग जुड़े रहें। ऐसे ही भौतिक कल्चर की एक वस्तु जो अक्सर दरकिनार कर दी जाती है वह है कैलेंडर आर्ट।
क्या है कैलेंडर आर्ट?
कैलेंडर कला एक मुद्रण रूप है जो व्यापक रूप से प्रसारित होता है और इसकी प्रतिमा समुदाय की मूर्तिपूजा और मूल्यों के स्थानीय रूपों का प्रतिनिधित्व करती है। कैलेंडर सांस्कृतिक कलाकृतियां हैं जिनके माध्यम से जन संस्कृति और रोजमर्रा की जिंदगी का प्रदर्शन किया जाता है। कैलेंडर कला की प्रतिमाएं न केवल समुदाय के सौंदर्यशास्त्र को दर्शाती हैं, बल्कि यह भी रेखांकित करती हैं कि कैसे कैलेंडर के भीतर अंकित दृश्य कलाएं पहचानों को फिर से चित्रित करने का एक तरीका रही हैं।
घरों की दीवारों पर लगे रहने वाला कैलेंडर जिसे हिंदी में तिथिपत्र या दिनदर्शिका भी कहते हैं विजुअल कल्चर की उपेक्षित धरोहर है। आप किसी भी आम व्यक्ति के घर जाएं तो बैठक में एक कैलेंडर ज़रूर देखेंगे जिस पर किसी न किसी हिंदू देवी देवता की तस्वीरें तो किन्हीं कैलेंडर पर नानक, यीशु, कुरान की आयतें आदि आदि देखने को मिल जाती हैं जहां तस्वीर के नीचे से महीने के अंक और विशेष दिनों की व्याख्या मिल जाएगी। यह विजुअल प्रतिरूप यह दर्शाता है कि आप किसी समुदाय से हो सकते हैं, आपकी आस्था किसमें है और आप दिनों को कैसे गुजारते हैं। मसलन घरों में देखते हैं कि किन्हीं विशेष दिनों में उपवास रखा जाता है, कहीं कुछ और ऐसा ही क्रिया कलाप समुदाय दर समुदाय होता है। यह विजुअल कल्चर लोगों के बीच उनके आपसी मूल्यों, विचारों को लेकर एक मजबूत रिश्ता बनाता है और वे जिन चीज़ों में, लोगों में विश्वास रखते हैं उनके प्रति भी वे सजग रहते हैं।
कैसे बहुजन कैलेंडर आर्ट, सवर्ण कैलेंडर आर्ट से अलग है?
समाज में रहते हर वर्ग का अपना अलग कल्चर होता है, मुख्यधारा में जो कैलेंडर आर्ट लंबे वक्त से मौजूद है और लोगों के हर दिन की रूपरेखा तय कर रहा है उसके समकक्ष बहुजन कैलेंडर आर्ट दलित बहुजन लोगों द्वारा उत्तर भारत में लाई गई है। इस कड़ी में पहला नाम सम्यक प्रकाशन का ही आता है जिन्होंने उत्तर भारत के दलितों के घर-घर में इस आर्ट की बदौलत एंटी कास्ट आंदोलन की ए बी सी डी लोगों को पढ़ाई है। भारत में बहुजनों की एक लोकप्रिय दृश्य संस्कृति बनाने में मान्यवर कांशीराम के प्रयास के कारण 2014 में अपने जन्मदिन पर पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने बहुजन कैलेंडर का पहला बड़ा लॉन्च किया। इसके बाद, पार्टी त्योहारों, अवसरों, समारोहों, जंयती आदि पर इन कैलेंडरों को लॉन्च और वितरित करती रही। मुझे आभास है आपके मन में सवाल आ रहे हैं कि ये बहुजन कैलेंडर आर्ट क्या है? इसमें ख़ास क्या है? क्या इसकी सच में ज़रूरत है? क्या दलित बहुजन के जीवन में कैलेंडर ने कुछ बदलाव किया है? इन सभी सवालों से आहिस्ता-आहिस्ता गुजरते हैं।
बहुजन कैलेंडर आर्ट क्या है?
यह भी बारह महीने का एक कैलेंडर होता है इसमें तिथियां लिखी होती हैं लेकिन पंचांग, राशिफल, व्रत, आदि कुछ भी नहीं लिखा होता है बल्कि हर महीने के कुछ विशेष दिनों की व्याख्या होती है और यह विशेष दिन होते हैं दलित बहुजन इतिहास से जुड़ी महान हस्तियों के जन्मदिन, निधन, उनके द्वारा किया गए ज़रूरी कार्य के दिन ताकि जब इस कैलेंडर में दिनों को पढ़ा जाए तो लोगों को ध्यान रहे कि उनके हिस्से के इतिहास में कौन-कौन हैं। इन कैलेंडरों में महीने के अंक जहां लिखे होते हैं उसके ऊपर या प्रष्ठधार में किसी भी दैवी शक्ति का चित्र नहीं होता है बल्कि दलित बहुजन मुक्तिदाताओं, मार्गदर्शकों जैसे बाबासाहेब, सावित्री फूले, ज्योतिबा फूले, बिरसा मुंडा, गौतम बुद्ध, मान्यवर कांशीराम आदि के चित्र होते हैं और सभी चित्र मुस्कुराते हुए या फिर साधारण अवस्था में, दुखी अवस्था में कोई चित्र नहीं होता है।” कैलेंडर में छवियों और विषयों का दोहराव वाला प्रवाह होता है, जो संस्कृति और सामुदायिक नैतिकता को दर्शाता है। चिह्नों के प्रतीकात्मक अर्थ विशेष रूप से दलित-बहुजन समुदाय के लिए मुक्तिदायक अर्थ रखते हैं।
उमा चक्रवर्ती के अनुसार “दलित-बहुजन कैलेंडर कला में प्रतीकवाद भी ब्राह्मणवादी पौराणिक व्याख्या को फिर से देखने और उसका मुकाबला करने और इसके ऐतिहासिक तथ्यों को सामने रखकर संस्कृति का पुनरुत्थान है।”
जाति विरोधी सोच को बढ़ाने में बहुजन कैलेंडर का योगदान
बहुजन कैलेंडर के होने के कई मायने हैं, वे दलित बहुजन जो बहुत मंहगी किताबों से बहुजन मुक्तिदाताओं के बारे में नहीं जान सकते उन तक बहुजन मानवों को तस्वीरें, विचार प्रिंटिंग फ़ॉर्म में इन्हीं कैलेंडर की बदौलत पहुंचे हैं। दलितों के घरों से हिन्दू देवी देवताओं को हटाकर बहुजन नायकों को इसी कला के माध्यम से बदला गया है। क्योंकि कैलेंडर आर्ट में कल्पनाओं को भी दर्शाने की जगह होती है, इससे उस तरह के भी चित्र बहुजन नायकों के गढ़े गए हैं जो मुख्यधारा में देखने को मुश्किल ही मिलते हैं। मसलन बुद्ध की तस्वीर में बाबा साहेब की मौजूदगी, और नवयान बौद्ध धम्म भी लोगों तक इसी से पहुंचा है। जाति विरोधी आंदोलन में कैलेंडर की भूमिका पर बात करें तो इसने ब्राह्मणवादी वैदिक वर्चस्व के समकक्ष अपने बहुजन नायकों के इतिहास और आंदोलन को जगह दी है।
कल्चरल असर्शन का ज़रिया है बहुजन कैलेंडर
समाज में अपने हिस्से पर दावा करना बहुत ज़रूरी होता है अगर ऐसा नहीं किया जाए तो समाज एक वर्ग को धीरे-धीरे सामाजिक भागीदारी में से हटा देता है। बहुजन कैलेंडर ने दलित बहुजन लोगों को कल्चरल असर्शन यानी सांस्कृतिक दावा करने का ज़रिया दिया है कि समाज के कौन लोग, कौन से आंदोलन उनसे संबंधित हैं जिसने उनके जीवन की सूरत बदली है। कैलेंडर में चित्रित चित्रों के अपने अर्थ होते हैं उदाहरण के तौर पर हाथी का बुद्ध के आगे झुकने का अर्थ है कि करुणा से आप किसी भी जीव के दिल को, उसके विश्वास को जीत सकते हैं, बाबा साहेब का संसद की ओर हाथ करती तस्वीर दलित बहुजन को ये बताती है कि हमारा लक्ष्य संसद में भागीदारी करना है जहां से हमारे जीवन के फैसले लिए जाते हैं, मान्यवर कांशीराम का कलम के साथ चित्र राजनीति के लिए संख्या वश संघर्ष करने से है, और बहुजन कैलेंडर आपको एक मात्र ऐसे कैलेंडर दिखेंगे जिसमें संविधान का चित्र भी मिल जाएगा।
इस देश के हर नागरिक के हकों की बात संविधान करता है लेकिन उसके प्रति इज़्ज़त हर समाज से नहीं आती है। उमा चक्रवर्ती के अनुसार “दलित-बहुजन कैलेंडर कला में प्रतीकवाद भी ब्राह्मणवादी पौराणिक व्याख्या को फिर से देखने और उसका मुकाबला करने और इसके ऐतिहासिक तथ्यों को सामने रखकर संस्कृति का पुनरुत्थान है।” समाज में स्थापित शोषक के वर्चस्व को मजबूत करती हर चीज़ को चैलेंज करना अपने लिए नए रास्ते खोलने जैसा होता है। बीआर जोशी इस संदर्भ में बाबा साहेब के हवाले से कहते हैं कि बाबा साहेब अम्बेडकर के पूरे लेखन में, सांस्कृतिक विद्रोह जाति की शक्ति को चुनौती देने से जुड़ा हुआ है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति द बुद्धा एंड हिज धम्म में एक सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता के बारे में बात की है जो न केवल पिछली सांस्कृतिक परंपरा को नष्ट करके बल्कि उसके स्थान पर नए मूल्यों को स्थापित करके भी हो सकती है।
प्रिंट में कैलेंडर आर्ट जाति विरोधी आंदोलन का सरल लेकिन ज़रूरी और सभी तक आसानी से पहुंचने वाला माध्यम है। काउंटर कल्चर के लिए कैलेंडर आर्ट के साथ ज़रूरी है कि अन्य कला के विकल्प के तौर पर जाति विरोधी आंदोलन में इतने ही प्रभावित तरीके से जगहें बनाएं।
स्रोतः