इंटरसेक्शनल मैन्युअल स्कैवेंजिंग: देश चांद पर, मजदूर गटर में झोंके जा रहे हैं

मैन्युअल स्कैवेंजिंग: देश चांद पर, मजदूर गटर में झोंके जा रहे हैं

हाथ से मानव मल की सफाई करने या मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा कानूनी रूप से पूरी तरह प्रतिबंध है। इसके बावजूद हर माह किसी न किसी राज्य में सीवरों की सफाई मजदूरों को लील रही है। ये मजदूर ठेकेदारी पर काम कर रहे होते हैं या फिर दिहाड़ी पर बुलाए गए होते हैं।

आज के समय में जब हम इतने सशक्त हैं कि चंद्रयान-3 लॉन्च कर चांद पर पहुंच चुके हैं और सूरज पर रिसर्च करने के लिए ‘मिशन आदित्य’ लॉन्च किया जा चुका है। ठीक इसी समय में हमारे देश के पास गटर की सफाई के लिए मशीनें तक नहीं है।आज भी एक जाति और वर्ग के लोगों को सीवर की सफाई के लिए जहरीली गैस चेंबर में उतरना पड़ता है। हाथों से मल उठाना पड़ता रहा है। भारतीय जातिवादी समाज की व्यवस्था में लगातार एक बड़े तबके को निरंतर सीवर की सफाई, मैला ढोने के काम की वजह से उसकी सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा से दूर रखता है। इस वजह से वह समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी हाशिए का जीवन जीने पर मजबूर है।

हाथ से मानव मल की सफाई करने या मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा कानूनी रूप से पूरी तरह प्रतिबंध है। इसके बावजूद हर माह किसी न किसी राज्य में सीवरों की सफाई मजदूरों को लील रही है। ये मजदूर ठेकेदारी पर काम कर रहे होते हैं या फिर दिहाड़ी पर बुलाए गए होते हैं। कई बार इनमें नाबालिग भी होते हैं। इन्हें बहुत कम पैसे देकर यह काम कराया जाता है जिसमें सिर्फ एक ही जाति के लोग शामिल हैं।

साल 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर देश में पहली बार प्रतिबंध लगाया गया था। मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 कहता है कि किसी व्यक्ति को सीवर के अंदर भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है।

हाथ से मैला साफ करने वालों में 98 फीसदी महिलाएं हैं जो एक ही जाति से हैं। जिससे पता चलता है कि इसका सामाजिक ढांचा लैंगिक भेदभाव करने वाला घोर जातिवादी भी है। जिन्हें इस काम में उनकी जाति और सामाजिक व्यवस्था के कारण झोंका गया है। मानव मल साफ करने का काम उनके जीवन को पूरी तरह से बदल दे रहा है। समाज में न ही समान प्रतिष्ठा मिल पाती है। जान जोखिम में डालकर बहुत ही कम पैसों में लोग इस काम को करने में मजबूर है जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है। वहीं इसका सबसे बुरा प्रभाव मैला ढोने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। इस काम से तभी छुटकारा पाया जा सकता है जब मैनुअल स्कैवेंजर्स के लिए वैकल्पिक रोजगार के अवसर पैदा हों। उन्हें सम्मानजनक काम दिया जाए।

बता दें कि साल 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर देश में पहली बार प्रतिबंध लगाया गया था। मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 कहता है कि किसी व्यक्ति को सीवर के अंदर भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। लेकिन फिर भी अगर किसी परिस्थिति में सीवर में उतरना पड़ता है तो इससे संबंधित कुल 27 नियमों का सख्ती से पालन करना होगा। इस तरह के नियम शुरू से ही ताक पर रहे और मजदूरों को सीवर में उतारने की परंपरा जारी रही। नियमों को ताक पर रखने के कारण ही सफाई के दौरान मजदूरों की मृत्यु की घटनाएं लगातार सामने आती रहती है।  

तस्वीर साभारः India Today

हमारा देश इतना आगे तो बढ़ गया है कि यही बैठे-बैठे चांद को देख सकते हैं लेकिन इतना सक्षम न जाने कब होगा जब सीवरेज की सफाई के लिए मजदूरों को अपनी जान न गंवानी पड़े। मार्च 2023 को हरियाणा के पानीपत शहर में सीवर कनेक्शन करने उतरे 35 वर्षीय मजदूर की गैस में दम घुटने से मौत हो गई थी। उन्हें बाहर खींचने के प्रयास में सीवर में गिरने से एक अन्य साथी की भी मौत हो गई। इस तरह के न जाने कितने ही मामले हैं जिनमें पूरा का पूरा परिवार ही बिखर जाता है। द वॉयर की रिपोर्ट के अनुसार साल 1993 और 2019 के जिन मजदूरों की सीवर की सफाई करते हुए जान गई थी उनमें से केवल 50 प्रतिशत के परिवारों को मुआवज मिला था। कुछ परिवारों को मुआवजें की राशि दस लाख मिली थी वहीं कुछ केसों में इससे भी कम रूपये दिए गए। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि जिन लोगों की सीवर की सफाई करते हुए मौत हुई है उनको दस लाख रूपये का मुआवज़ा दिया जाएगा।

समय की मांग यह है कि इस अमानवीय कार्य पर तुरंत पूरी तरह रोक लगे और सभी सीवर और नालों की सफाई मशीनों से ही की जाए। मैला ढोने जैसी प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार हरियाणा में साल 2022 के बीते 10 माह में 20 लोगों की सीवर सफाई के दौरान मौत हो चुकी है। असल में यह आंकड़ा बहुत विशाल हो सकता है। राज्यसभा में सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय से पूछे गए सवाल के जवाब में राज्यमंत्री रामदास अठावले ने बताया था कि पिछले 5 सालों में सीवर की सफाई के दौरान 308 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई हैं।

1993 और 2019 के जिन मजदूरों की सीवर की सफाई करते हुए जान गई थी उनमें से केवल 50 प्रतिशत के परिवारों को मुआवज मिला था। कुछ परिवारों को मुआवजें की राशि दस लाख मिली थी वहीं कुछ केसों में इससे भी कम रूपये दिए गए।

तस्वीर साभाः Hindustan Times

बता दें कि डॉ अम्बेडकर ने हाथ से मैला ढोने की प्रथा का पुरजोर विरोध किया था। यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 15, 21, 38 और 42 के प्रावधानों के भी ख़िलाफ़ है। आज तक इस प्रथा का जारी रहना देश के लिये शर्मनाक है और जल्द से जल्द इसका अंत होना चाहिए। भारत में बीते एक वर्ष से सफाई कर्मचारी आंदोलन चल रहा है। सेप्टिक टैंक में होने वाली मौतों पर रोकथाम और समुदाय के लोगों के लिए रोजगार के नए विकल्प की मांगे लगातार उठ रही है। बावजूद इन सबके इस आंदोलन पर कोई मेनस्ट्रीम में बात नहीं होती है। न मीडिया में सफाई कर्मचारियों की मांगों को मुद्दा बनाया जाता है।

इन सबके बीच हमारे प्रधानमंत्री मोदी सफाई कर्मियों के पांव धोकर उन्हें तौलिए से साफ करके सब दुख हर लेना चाहते हैं। यह दिखावे के अलावा कुछ नहीं। इस संबंध में ठोस कदम उठाए जाने की सख्त जरूरत है। इस देश में उनकी बात कोई नहीं करता जो इस देश को खूबसूरत बनाने में अपनी दिन-रात एक करते हैं। वो गटर में नंगे उतरते हैं, नालियों की सफाई करते हैं, कूड़ा बीनते हैं, अपनी जान तक दे जाते हैं लेकिन धरातल पर इस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा है। सफाई कर्मचारियों की मौत, उनके परिवार की आर्थिक-सामाजिक स्थिति से जुड़े फैसलों पर कोई विचार-विमर्श नहीं है। सरकार और सफाई कर्मचारियों के हितों पर बात केवल कैमरे के सामने उनके पैरों को धोकर झूठा दलित हितैषी बनने तक सीमित है।


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