समाज फिल्म ‘अखुनी’ के बहाने खाने की पसंद पर बहस

फिल्म ‘अखुनी’ के बहाने खाने की पसंद पर बहस

हाल फिलहाल में सुधा मूर्ति ने कहा कि वह विदेश जाती हैं तो अपना खाना अपने साथ ले जाती हैं। सुधा मूर्ति लेखिका होने के साथ-साथ इंफोसिस फाउंडेशन की अध्यक्ष भी हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक उनके दामाद हैं। वह विशुद्ध रूप से शाकाहारी हैं और अंडा तक नहीं खाती हैं। उन्हें डर रहता है कि रेस्टोरेंट में जिस चम्मच से शाकाहारी लोग खाते हैं उसी से माँसाहारी लोग भी खाते होंगे।

2020 में एक फिल्म आयी थी अखुनी। यह फिल्म नागालैंड के एक व्यंजन ‘अखुनी’ पर आधारित है। अखुनी नागालैंड का प्रमुख भोजन है। नॉर्थ ईस्ट के कुछ बच्चे दिल्ली में रोजगार के सिलसिले में रह रहे हैं। इसे शादी-ब्याह, त्यौहार और ख़ास मौकों पर बनाया जाता है। इस फिल्म में मीनम नाम की एक लड़की की शादी है। दिन में उसका यूपीएससी का इंटरव्यू होना है। उसके दोस्त इस मौके पर अखुनी बनाना चाहते हैं। लेकिन एक दिक्कत आती है कि वे इसे पकाए कहां? दिल्ली के जिस घर में ये लड़कियां रहती हैं उसकी मकान मालकिन इसे पकाने की इजाज़त नहीं देती है। उनका मानना है कि इससे ख़ास तरह की गंध आती है। ये फिल्म अखुनी पकाने के संकट के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। नॉर्थ ईस्ट के ये लड़के-लड़कियाँ अपना स्पेशल भोजन सिर्फ़ इसलिए नहीं पका सकते हैं क्योंकि दिल्ली में रह रहे लोगों को ये पसंद नहीं। भोजन जैसी बुनियादी चीज़ भी सिर्फ़ आप अपनी ‘च्वाइस’ से नहीं खा सकते हैं। 

फिल्म अखुनी का एक दृश्य। तस्वीर साभारः The Wire

हाल फिलहाल में सुधा मूर्ति ने कहा कि वह विदेश जाती हैं तो अपना खाना अपने साथ ले जाती हैं। सुधा मूर्ति लेखिका होने के साथ-साथ इंफोसिस फाउंडेशन की अध्यक्ष भी हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक उनके दामाद हैं। वह विशुद्ध रूप से शाकाहारी हैं और अंडा तक नहीं खाती हैं। उन्हें डर रहता है कि रेस्टोरेंट में जिस चम्मच से शाकाहारी लोग खाते हैं उसी से माँसाहारी लोग भी खाते होंगे। एक बारगी तो ये साधारण सी बात लग सकती है। लोग इसे उनकी ‘च्वाइस’ भी कह देंगे। लेकिन सब कुछ इतना ब्लैक एंड व्हाइट नहीं है। सुधा मूर्ति ऐसा कहने और करने वाली पहली व्यक्ति नहीं हैं। इसकी तह में जायेंगे तो वही ब्राह्मणवादी रवैया नज़र आयेगा जिसने जाति के आधार पर इस देश में लोगों के साथ भेदभाव किया। 

प्रोफेसर सौम्या गुप्ता खाने की च्वाइस और उस होने वाली बहस पर कहती हैं, “जब हम व्यंजन की बात करते हैं, तो जो हाशिये के लोग हैं वो क्या खाते हैं? वे वही खाते हैं जो उनको मिल जाता है। ये इतना जो वेजिटेरियन का पूरा डिस्कोर्स है ये अपर कास्ट डिसकोर्स है।”

आप किस तरह का भोजन करते हैं ये आपकी परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। ये परिस्थितियां आर्थिक से लेकर भूगोल की हो सकती हैं। क्या ये अनायास है कि बंगाल में मछली मुख्य भोजन है? समुद्र के किनारे स्थित प्रदेशों में सी फूड खाया जाना आम है। इसे अगर आप हीन भावना से देख रहे हैं तो समस्या आपमें है।

हस्ताक्षर पत्रिका को दिये इंटरव्यू में प्रोफेसर सौम्या गुप्ता खाने की च्वाइस और उस होने वाली बहस पर कहती हैं, “जब हम व्यंजन की बात करते हैं, तो जो हाशिये के लोग हैं वो क्या खाते हैं? वे वही खाते हैं जो उनको मिल जाता है। ये इतना जो वेजिटेरियन का पूरा डिस्कोर्स है ये अपर कास्ट डिसकोर्स है। और हमेशा से ही अपर कास्ट बाय द डेफिनेशन कम होंगे संख्या में। आपने कभी सुना है कि नॉर्मल लोग क्या खाते हैं, उनको जब कुछ भी नहीं मिल रहा है खाने के लिए तो उनको जो भी प्रोटीन मिलेगा वह वहीं खाएंगे। मुसहर चूहे क्यों खाते हैं? वे लोग उसको स्वाद के रूप में नहीं खाना शुरू किये हैं क्योंकि उनके पास कुछ और है नहीं खाने के लिए।”

इस देश के संसाधनों पर कुछ ख़ास लोगों का दबदबा रहा। किसी के पास सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं और कोई खाने को तरस रहा था। जिसके पास खाने को कुछ नहीं था उन्होंने वही खाया जो उनको उपलब्ध हो गया। फिर सुविधासम्पन्न लोगों ने शुद्धतावाद का प्रपंच फैलाया। हम उसका बर्तन नहीं छू सकते हैं क्योंकि वह तो माँस खाता है। शाकाहारी होने को ही एक तबका श्रेष्ठ मानने लगा। इस श्रेष्ठताबोध के दंभ को उनका प्रिविलेज हमेशा पोषित करता रहा। 

2014 में भाजपा की सरकार आने के बाद से धर्म के आधार पर लोगों को टार्गेट किया जाने लगा। सरकार के निशाने पर मुसलमान रहे। अचानक से इस देश में खाने-पीने को लेकर बहस गरम हो गयी। आप क्या खा रहे हैं इस आधार पर आपकी हत्या की जा सकती है। अक्टूबर 2015 में मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या भीड़ ने सिर्फ़ इसलिए कर दी क्योंकि उन्हें शक था कि अख़लाक़ ने बीफ खाया है। यह सब एक विचारधारा के तहत किया जा रहा था। 

2022 में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कावेरी हॉस्टल में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों ने हंगामा खड़ा कर दिया कि राम नवमी के दिन मेस में नॉन वेज बना है। जबकि मेस में पनीर की व्यवस्था वेज खाने वाले बच्चों के लिए है। दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेज में पिछले कुछ सालों में नॉन वेज मिलना बंद हो गया है। जनवरी 2023 में हंसराज कॉलेज के मेस में कहा गया कि नॉन वेज भोजन नहीं मिलेगा। कॉलेज प्रशासन का इस पर कहना है कि चूँकि यह आर्य समाजी कॉलेज है इसलिए यहाँ नॉन वेज नहीं दिया जा सकता है। ध्यातव्य हो इसी कॉलेज में सत्र 2019-20 तक नॉन वेज मिलता था। न तो कॉलेज अचानक से आर्य समाजी हुआ है और न खाने की च्वाइस पर रोकटोक अकारण शुरू हुई है। ये एक मानसिकता के तहत किया जा रहा है। 

इस देश के संसाधनों पर कुछ ख़ास लोगों का दबदबा रहा। किसी के पास सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं और कोई खाने को तरस रहा था। जिसके पास खाने को कुछ नहीं था उन्होंने वही खाया जो उनको उपलब्ध हो गया। फिर सुविधासम्पन्न लोगों ने शुद्धतावाद का प्रपंच फैलाया।

आईआईटी बाम्बे में कुछ दिन पहले विद्यार्थियों ने माँग किया कि मेस में शाकाहारी और माँसाहारी लोगों के लिए अलग से बैठने की व्यवस्था की जाए। अंबेडकर फुले पेरियार स्टडी सर्कल के विद्यार्थियों ने इस पर ट्वीट करते हुए कहा कि खाने के अलग स्पेस की माँग करना ‘शुद्धता’ की भावना से ग्रसित है और कैंपस में ये सवर्णों का श्रेष्ठताबोध कायम करने का प्रयास है। 

भोजन न सिर्फ़ हमारे ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है अपितु ये हमारी पहचान से भी जुड़ा हुआ है। जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो यह तीन चीज़ों से बनती है। भोजन, पोशाक और भाषा। दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले लोगों का अपना कोई भोजन है जो उनके लिए बहुत ख़ास है। 2014 के बाद से सारी पहचानों को ख़त्म किया जाने का प्रयास किया जा रहा है। मामला शाकाहार और माँसाहार भर का नहीं है। शाकाहार में भी कई परतें खुलेगी तो इन्हें पसंद नहीं आयेगी। दिल्ली में रहने वाले नॉर्थ ईस्ट के बच्चे अखुनी नहीं पका सकते हैं क्योंकि उनके शुद्धतावादी मकान मालिक और पड़ोसियों को ये पसंद नहीं है। जब खाने की च्वाइस को लेकर बहस तेज हो रही है तो ‘अखुनी’ को देखे जाने की ज़रूरत है कि कैसे अपने ही देश में आपकी खाने की च्वाइस पर सवाल खड़ा किया जा सकता है। 


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