वे प्रसव के दौरान गर्भवती महिलाओं के साथ एक मां और एक सहेली के रूप में सहयोग करती हैं। घर-घर जाकर वे छोटे बच्चों को बुनियादी पोषण सामग्री वितरित करती है, टीकाकरण के लिए जागरूक करती हैं। साथ ही स्वच्छता के महत्त्व को समझाते हुए स्वास्थ्य से जुड़ी सभी सरकारी योजनाओं की जानकारी आम लोगों तक पहुंचाती हैं। हम बात कर रहे हैं आशा कार्यकर्ताओं की जिन्हें ग्रामीण इलाकों में अक्सर ‘आशा दीदी’ या ‘मैडम’ कह कर संबोधित किया जाता है। इन कार्यकर्ताओं ने हाशिये पर खड़े जन-मानस को सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ने का काम किया है। इस लेख में हमने उत्तराखंड के कुछ गाँवों की आशा कार्यकर्ताओं के साथ समय बिताकर उनके काम और चुनौतियों पर बातचीत की।
आशा का मतलब ऐक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट है। आशा वर्कर्स भारत सरकार के तहत ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य से जुड़ी ज़रूरतों की जानकारी देने और देखभाल के लिए नियुक्त की जाती हैं। विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना और बच्चों के टीकाकरण, स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी अन्य जानकारियां लोगों को देती है। भारत में आशा वर्कर की संख्या साल 2021-22 में 9.02 लाख थीं जो वित्त वर्ष 2022-23 में 10.03 लाख हैं। 9.2 लाख आशा कार्यकर्ता ग्रामीण क्षेत्र में काम करती हैं। नैशनल हेल्थ मिशन के 2020 के आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड राज्य में कुल 12,212 महिलाएं आशा वर्कर्स के तौर पर कार्यरत थीं। वहीं उत्तराखंड सरकार के चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, वर्तमान में राज्य में 11,086 महिलाएं आशा कार्यकर्त्ताओं के रूप में काम कर रही हैं।
राखी आगे कहती है, “मेरी एक ही शिकायत है कि जब हम गर्भवती महिला के साथ अस्पताल जाते हैं तो हमें वहां रहने के लिए कोई अलग कमरा नही दिया जाता है। चाहे ठंड हो या चाहे गर्मी एक ही बैंच पर पूरी रात गुजारनी पड़ती है।”
आशा दीदी और गांव का आंगनबाड़ी केंद्र
हर परिस्थिति में आशा वर्कर्स अपना काम कर रही हैं। सुबह के 10 बज रहे है। आंगनवाड़ी के आंगन में छोटे–छोटे बच्चों की किलकारियां सुनाई दे रही है। एक छोटा सा कमरा है। जमीन पर दरी बिछी है और कमरे की दीवार पर कुछ तस्वीरें टंगी हुई हैं। कमरे की चौखट में चार–पांच महिलाएं खड़ी हैं। एक महिला ने सूट के ऊपर कोट पहना है और हाथ में बड़ा सा थैला पकड़ा हुआ है। वह बच्चों को प्यार से बुला रही हैं और साथ में अन्य महिलाओं से उनके टीकाकरण की बात कर रही है। 38 वर्षीय अंजू बीस्ट, उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में बसे तोप गांव से है। अंजू, साल 2005 से आशा वर्कर के रूप में काम कर रही हैं। वह बताती हैं कि स्वास्थ्य केंद्रों में आशा कार्यकर्ताओं का काम बहुत ज्यादा होता है। हमें पूरे-पूरे दिन काम करना पड़ता है। पहले हमें एक डिलीवरी के 600 रुपया मिलता था अब उसे घटाकर 300 रुपया कर दिया है।
गांव की एक महिला आवाज देती है अंजू! आज कब लाओगी घास? अंजू हंसते हुए बोलती है तुम समय पर आओगी तभी तो जा पाऊंगी। बच्चों का शोर बढ़ रहा है। अगला सवाल करने पर कुछ बातें सामने आती है। अंजू बोलती है कि मेरा गांव अच्छा है। सब लोग मेरी बहुत इज़्जत करते हैं। लेकिन, दूसरे गांव की आशा कार्यकर्ताओं के मामले में ऐसा नहीं है। वे मुझसे कहती हैं कि हमारे गांव में तो लोग अक्सर हम पर तंज कसते हैं। चली गई मैडम सज–धज के, एक रात में इतनी बड़ी बन गई है जैसी बातें कही जाती है। वह यह भी मानती है कि स्वास्थ्य केंद्रों में कभी-कभी महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है। उनके अपने साथ ऐसा व्यवहार नहीं हुआ है लेकिन, आसपास इस तरह की घटनाएं घटी है जिनकी उन्हें जानकारी है।
आशा कार्यकर्ताओं के सामने एक मुश्किल ये भी है कि लोग उनकी बातों को नज़रअंदाज कर देते हैं। अक्सर लोग कहते है कि ये तो इनकी नौकरी है, इनको पैसा मिलता है। हम क्यों जाए? लोगों को समझाना मुश्किल काम होता है। घड़ी की सुई तेज गति से भाग रही थी। सूरज सिर के ऊपर था। पहाड़ों में गाँव पास-पास होते हैं, इसलिए मैं नीचे के रास्ते पर चलने लगी जो भटोली गांव को जाता है। गांव के लोगों से पूछने पर यह पता चला कि राखी रावत यहां आशा कार्यकर्ता हैं। राखी का घर गांव की सरकारी स्कूल के पास है। राखी बताती हैं कि महिलाओं की शिक्षा पर पहले इतना जोर नहीं दिया जाता था। उन्हें घरेलू काम तक ही सीमित रखा जाता था। शादी होने के बाद वो इस गांव में आई लेकिन कुछ ही सालों में उनके पति की मृत्यु हो गई। साल 2006 से वो गांव के एनएम सेंटर में काम कर रही हैं। राखी आगे कहती है, “मेरी एक ही शिकायत है कि जब हम गर्भवती महिला के साथ अस्पताल जाते हैं तो हमें वहां रहने के लिए कोई अलग कमरा नही दिया जाता है। चाहे ठंड हो या चाहे गर्मी एक ही बैंच पर पूरी रात गुजारनी पड़ती है।”
आमदनी कम, काम का भार ज्यादा
चमोली ज़िले के बिनामाला गांव में रहने वाली आशा कार्यकर्ताओं का जीवन आसान नहीं हैं। गाँव में हमारे पहुंचने के बाद पंचायत घर के सामने खड़ी कुछ महिलाएं आपस में बातें कर रही थी। गाँव में आशा के तौर पर कार्यरत दीपा बर्तवाल काम करती है। अपने काम के बारे में बताते हुए वह कहती है, “आज का आधा दिन यहीं महिलाओं को समझाने में निकल जाएगा। गाँव में महिलाएं काम के चक्कर में खाने-पीने का ध्यान नहीं रखती हैं। आज मैं छठी बार जा रही हूं दोपहर तक ही खाली हो पाउंगी।”
बीनामाला गांव की जनसंख्या दूसरे गांवों की तुलना में ज्यादा है। दीपा दीदी के साथ यहां मुनि देवी भी आशा कार्यकर्ता के तौर पर काम करती हैं। दीपा बताती है कि आज मुनि की ड्यूटी अस्पताल में है। उनसे मुनि देवी का नंबर लेती हूं और गांव से ऊपर चली जाती हूं। शाम के चार बजे है मुनि देवी से हमारी मुलाकात होती है। मुनि देवी के चेहरे पर थकान झलक रही है। पूछने पर वो हाँफते हुए कहती है, “आज तो सिर दर्द हो रहा है। काम भी नहीं बना और पैसे भी खर्च हो गए।” मुनि देवी बाहरवीं पास हैं। उनकी उम्र 40 वर्ष है। वह बताती हैं कि अस्पताल इतना दूर है कि दो पैसे भी नहीं बचते। कभी पहाड़ पर जाओ तो कभी घर जितनी कमाई नहीं होती है उतना खर्चा हो जाता है।
उत्तराखंड राज्य में कार्यरत आशा वर्कर्स
दूर-दराज के इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाने वाली आशा कार्यकर्ताओं से बात करते हुए सभी ने तनख्वाह के कम होने की बात की है। काम के भार के हिसाब से उनको मेहनतनामा कम मिलता है। बातचीत के दौरान सबका कहना है कि हमारी कोई तय तनख्वाह नहीं है। कभी एक महीने में आती है, तो कभी पांच महीनों में। बस बीच में मीटिंग के जरिए सौ-पचास रुपए मिल जाते है। जो गरीब और विधवा महिलाएं हैं उन्हें ऐसी स्थिति में अपने घर चलाने के लिए ज्यादा मशक्कत का सामना करना पड़ता है।
शहर की भीड़ में काम करती आशा कार्यकर्ताएं
ग्रामीण क्षेत्रों की तरह ही शहरी इलाकों में भी आशा कार्यकर्ताओं ने स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाने का काम किया है। देहरादून के डालनवाला की आशा कार्यकर्ता संगीता बताती है कि उसे अपने क्षेत्र में लोगों के घर-घर जाना होता है। लोगों को सलाह देनी होती है। कई बार मानते हैं, तो कई बार नज़रअंदाज कर देते हैं। कभी-कभी हम खुद बीमार पड़ जाते हैं। सरकारी योजनाएं का हमें कोई खास लाभ नहीं मिलता है। इन दिनों देहरादून शहर में डेंगू का प्रकोप चल रहा है। लोग काफी संख्या में बीमार है।
देहरादून के ही बंजारावाला क्षेत्र में मधु एक आशा वर्कर हैं। उन्होंने इंटर तक की पढ़ाई की है। 34 वर्षीय मधु हमें बताती है कि मुझे हमेशा से समाज सेवा करनी थी। आशा वर्कर होने से मुझे खुद पर बहुत नाज़ होता है। भले ही हम पर काम का बोझ ज्यादा है और तमाम चुनौतियों के साथ हम काम करते हैं। लेकिन, अपने लोगों की मदद कर ने में मुझे खुशी मिलती है। मधु से बात करते हुए मुश्किल से दस मिनट हुए होंगे, तभी उनका मोबाइल बजता है। उन्हें किसी महिला की डिलीवरी की बात आती है।
लोगों को जागरूक करना, नवजात शिशु का लालन-पालन, टीकाकरण और सभी स्वास्थ्य सेवाओं को लोगों तक पहुंचाने का काम आशा दीदी करती है। कोविड-19 के दौरान आशा कार्यकर्ताओं को कोरोना वॉरियर्स कहा गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आशा कार्यकर्ताओं को ग्लोबल हेल्थ लीडर के तौर पर सम्मानित किया। तमाम शिकायतों और कम वेतन के साथ ये आशा वर्कर अपने घर और नौकरी में तालमेल बिठाते हुए काम पर लगी हुई है। एक दिन सरकार उनके लिए भी कुछ बेहतर करेंगी इस संतोष में वे अपने काम पर लगी हुई हैं।
नोटः सभी तस्वीरें शिवानी खत्री ने उपलब्ध कराई हैं।
It was a good read, situation is pathetic kudos to the ‘Asha Workers’ who have been working restless throughout the country.