ग्राउंड ज़ीरो से राजस्थान के इस छोटे से गांव में कैसे मेंस्ट्रुअल कप से लोगों को जोड़ रही हैं मोना राठौड़

राजस्थान के इस छोटे से गांव में कैसे मेंस्ट्रुअल कप से लोगों को जोड़ रही हैं मोना राठौड़

मोना बताती हैं, "अब को कभी कोई घर पर आ जाता है कि मेरे पास अतिरिक्त कप है क्या और मैं उपलब्ध कराने की कोशिश में लग जाती हूं। मैंने इस बारे में अपने गांव के स्वयं सहायता समूह की महिलाओं से भी बात की और वहां भी इच्छुक महिलाओं को कप दिए ताकि वह अपना अनुभव दूसरों को बताएं और बात आगे बढ़ें।" 

पीरियड्स, हर महीने होने वाली इस सतत प्रक्रिया को भी हमने टैबू बना कर रखा है। जैसे सांस लेते हैं, खाना खाते हैं, ऐसे ही पीरियड्स भी आते हैं। लेकिन इस बारे में हमें सहज तरीके से अवगत नहीं करवाया जाता, इस पर खुले आम बोला नहीं जाता, समाज में चर्चा नहीं की जाती। नतीजतन स्वाभाविक तौर पर इससे जुड़ी समस्याओं पर भी अकसर ध्यान नहीं दिया जाता। ऐसी सामाजिक परिस्थितियों में, राजस्थान के झुंझुनू जिले के नवलगढ़ क्षेत्र के एक छोटे से गांव गोठड़ा में एक महिला मेंस्ट्रुअल कप के बारे में जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रही हैं। जहां ‘टाइम आ गया‘ भी धीमे से बोला जाता है, वहां मोना राठौड़ मेंस्ट्रुअल कप हाथ में लिए अपने गांव को संबोधित कर रही हैं।

मोना के पिता नौसेना में थे तो उनका जीवन देश के विभिन्न इलाकों में पढ़ते हुए गुज़रा। उनका सपना भी सेना में जाने का था। बचपन में वह एनसीसी में भी थीं लेकिन फिर एसएसबी का इंटरव्यू भी नहीं दिया और करीब एक दशक पहले, शादी के बाद वह गोठड़ा गांव में आ गई। फिर उन्होंने बीएड किया और एक निजी विद्यालय में पढ़ाने लगीं। संयोग से उनके यहां महिला सीट आई और उनके ससुर ने उनसे चुनाव लड़ने के बारे में पूछा और वह पंचायत समिति सदस्य बन गई। राजनीति में उनकी कभी रुचि नहीं थी लेकिन अब उन्होंने सोचा कि अगर पांच सालों के लिए जनता ने उन्हें मौका दिया है तो उन्हें इसका इस्तेमाल कर कुछ अच्छा करना चाहिए। इस तरह उनके इस सफ़र की शुरुआत हुई।

मेंस्ट्रुअल कप तक पहुंचने की कहानी

फेमिनिज़म इन इंडिया से हुई बातचीत में मोना ने बताया कि पहले शहर में रहते हुए वह पैड का इस्तेमाल करती थीं। उन्हें कभी यह सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि फेंकने के बाद वह कहां जाता है। शादी के बाद जब वह इस गांव आई तो उन्हें हर महावारी के बाद, पैड इकट्ठा कर अपने घर के पीछे की एक खाली जगह में दफ़न करने होते थे और सुबह कुत्ते उसे मुंह में लिए फिरते। एक-दो बार ऐसा करने पर उन्होंने गौर नहीं किया लेकिन जब यह लगातार होने लगा कि रात के अंधेरे में जाना है, गड्ढा खोदना है और किसी ख़ुफिया सामान की तरह पैड दबाकर आना है तो उन्हें अजीब महसूस होने लगा कि क्या पीरियड्स कोई शर्मनाक चीज़ है? इन सब में उन्हें पीरियड्स से इतनी घुटन होने लगी कि वह सोचती की बस जल्दी से मेनोपॉज़ आए और उन्हें यह काम न करना पड़े। इसी दौरान उन्होंने पहली बार इस बात पर भी ध्यान दिया कि फेंकने के बाद सैनिटरी पैड कैसे पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है और उसका प्लास्टिक वह हर महीने जस का तस देखती। विद्यालय में पढ़ी हुई पर्यावरण से जुड़ी बातें उन्हें कचोटने लगीं।

फिर उन्होंने ख़ुद से गूगल पर कोई दूसरा तरीका ख़ोजना शुरू किया और ‘सस्टेनेबल पीरियड्स‘ नाम से कोई लेख पढ़ा। यहां से उन्हें टैम्पाॅन, कपड़े के पैड, कप इत्यादि के बारे में मालूम हुआ। कपड़े को धोने का झंझट था, टैम्पाॅन का निस्तारण करना फिर चुनौती थी, तो उन्हें मेंस्ट्रुअल कप सब से बेहतर तरीका लगा। हालांकि, वह महंगा था पर चूंकि उसे कई साल तक इस्तेमाल किया जा सकता था, उन्होंने कप मंगवाया।

पहली बार में मोना भी कप को देख चिंता में आ गई कि कप कितना बड़ा है, कैसे इस्तेमाल में लिया जाएगा लेकिन फिर वह उससे इतनी सहज हुई कि पिछले छह सालों से उन्होंने पैड की ओर लौटकर नहीं देखा। उन्होंने एक कप अपनी पड़ोस की महिला को दिया जो गांव से शादी कर जब शहर गई तो शहरवालों ने ताज्जुब किया कि हमें शहर में रहते हुए इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है और उन्हें इस बारे में पता है। फिर उस महिला की माँ ने उसका इस्तेमाल किया जो पैड की वजह से होनेवाले रैशेज से परेशान थी। इस तरह उनके आस-पड़ोस में मेंस्ट्रुअल कप पहुंचा।

गांव में कैसे फैली जागरूकता

मोना बताती हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं अकसर खुद पर खर्च नहीं करना चाहती। वह भी हर महीने की उस चीज़ पर जिसका उन्हें कोई दिखाई पड़ने वाला नतीजा न मिले। पितृसत्ता ने उन्हें ख़ुद की ज़रूरतों के साथ समझौता करने की आदत डाल दी है। इसलिए वे कपड़े का इस्तेमाल ही सबसे बेहतर मानती थीं। साथ ही पैड की पहुंच न होना, इस्तेमाल के बाद उसे कहां फेंके, जैसे सवाल भी उन्हें कपड़े को ही एक बेहतर विकल्प मानने पर मजबूर करते हैं। सिर्फ़ गांव नहीं, शहरों में भी, लोग कपड़ों को सूखते देखना स्वीकार नहीं करते। इसलिए सब कपड़ों को छिपाकर ही सूखाती हैं। ऐसे में महिलाओं को मेंस्ट्रूअल कप बेहतर विकल्प लगा जहां हर महीने का खर्चा नहीं है, फेंकने का झंझट नहीं है और जिससे रैशज की भी समस्या नहीं होती।

निर्मला, तस्वीर साभार: अनस
मेंस्ट्रुअल कप के साथ मोना राठौड़

लेकिन इस मुहिम की शुरुआत मोना ने अपने परिवार से की। चूंकि मोना गृहिणी थीं और खुद ज़्यादा बाहर नहीं जाती थीं। फिर जब वह पंचायत समिति सदस्य बनीं तो उन्हें लगा कि उनके पास अब एक मंच है, बड़ा दायरा है, रोज़ बहुत औरतों से मिलना होता है और अब वह कुछ कहेंगी तो उसे सुना जाएगा। फिर महिला दिवस की रोज़ जब उन्हें एक विद्यालय के समारोह में बुलाया गया, उस मंच से इन्होंने मेंस्ट्रुअल कप की बात की और वहां मौजूद शिक्षिकाओं, सरपंच और अन्य महिलाओं को कप दिया। थोड़ा वक्त लेकर, इन्होंने उनसे प्रतिक्रिया ली और उनका इस विचार के प्रति विश्वास और बढ़ा। फिर उन्होंने इस सिलसिले को रोका नहीं। वह बताती हैं, “अब को कभी कोई घर पर आ जाता है कि मेरे पास अतिरिक्त कप है क्या और मैं उपलब्ध कराने की कोशिश में लग जाती हूं। मैंने इस बारे में अपने गांव के स्वयं सहायता समूह की महिलाओं से भी बात की और वहां भी इच्छुक महिलाओं को कप दिए ताकि वह अपना अनुभव दूसरों को बताएं और बात आगे बढ़ें।” 

लोहार बस्ती का किस्सा

बीते साल 28 मई को मेंस्ट्रूअल हाइजीन डे के दिन की बात है। शुरुआत में मोना हिचकिचा रही थीं कि वहां पीरियड्स पर बात करना कितना सहज होगा, कप के लिए कितनी स्वीकार्यता होगी, समझाने में बहुत वक्त लगेगा आदि। मोना के मन में बहुत पूर्वाग्रहों में से एक था कि बस्ती की महिलाएं तो कपड़े का ही इस्तेमाल करती होंगी लेकिन उन्हें यह जानकर अच्छा लगा कि वह पैड इस्तेमाल कर रही थी।

निर्मला गोठड़ा में ही आंबेडकर नगर में रहती हैं। वह एक निजी विद्यालय में शिक्षिका हैं। साथ ही वह सिलाई का काम करती हैं और घर का काम भी। पहले हर महीने वह अपने पैड इकट्ठे कर उन्हें जलाया करती थीं। एक मीटिंग के दौरान इन्होंने मोना से मेंस्ट्रूअल कप के बारे में जाना। इनको लगा कि अगर वह इसका इस्तेमाल करेंगी, सीखेंगी, तभी तो पता चलेगा। आज निर्मला पिछले यह 6 महीने से कप का इस्तेमाल कर रही हैं

वह बताती हैं, “हालांकि, सैनिटरी पैड प्रकृति के लिए खराब है, लेकिन महिलाओं के लिए तुलनात्मक रूप से ठीक है। बस्ती की महिलाओं ने बताया कि वे पैड वहीं अपने घर के सामने वाले कूड़े की जगह में फेंकती हैं। कुछ कपड़े का भी इस्तेमाल कर रही थीं। उनकी समस्याएं भी यही थी कि रैशेज हो जाते हैं, बहुत दिन फिर चलने में दिक्कत होती है, मज़दूरी में दिक्कत होती है आदि।” फिर मोना ने बस्ती में भी महिलाओं को मेंस्ट्रूअल कप दिए और उनकी प्रतिक्रिया को बहुत निडर पाया और वे कप के प्रति भी काफ़ी स्वीकार्यता रख रही थी। कुछ वक्त बाद जब उनसे इस्तेमाल के बारे में प्रतिक्रिया ली तो लगभग सभी का बहुत सकारात्मक रवैया था। 

सरकारी स्कूलों में कार्यशाला का अनुभव

हमेशा की तरह हमारे विद्यालयों में ऐसी कार्यशालाओं में केवल लड़कियों की ही उपस्थिति होती है। पता नहीं हम लड़कों को इन मूलभूत जानकारियों से दूर क्यों रखना चाहते हैं। स्कूल, जिन्हें बेड़ियां तोड़ने वाला संस्थान होना चाहिए, वे सिर्फ़ समाज की रूढ़िवादी धारणाओं को सुदृढ़ करने का काम करते हैं। हमारा समाज इस मामले में बहुत पीछे हैं। हम ख़ुद के शरीर के बारे में ही नहीं जानते।

मोना ने छात्राओं को अपनी मां के साथ बुलाया था ताकि वह उन्हें कप के साथ सामान्य रूप में पूरा प्रजनन तंत्र और पीरियड्स से जुड़ी वैज्ञानिक बातें समझा पाएं। जिनको पीरियड्स आ रहे थे, जिन्होंने अपने पाठ्यक्रम में भी इसके बारे में पढ़ा था, वे भी मूलभूत तथ्यों से ही अनजान थे। लगभग सब लोग पीरियड्स को शरीर से गंदगी का निकलना ही समझते थे। अपने हार्मोनल बदलाव से अनजान थे और खुलकर कुछ भी कहने में बहुत शर्मा रहे थे। स्कूल में लिए गए इन वर्कशॉप्स से मोना को समाज में मौजूद पीरियड्स निरक्षरता का वास्तविक अंदाज़ा हुआ लेकिन उन्हें उम्मीद है कि उस दिन के साहसिक वार्तालाप का कोई सकारात्मक असर रहा होगा।

औरतें जो आगे बढ़ा रही हैं यह मुहिम

निर्मला गोठड़ा में ही आंबेडकर नगर में रहती हैं। वह एक निजी विद्यालय में शिक्षिका हैं। साथ ही वह सिलाई का काम करती हैं और घर का काम भी। पहले हर महीने वह अपने पैड इकट्ठे कर उन्हें जलाया करती थीं। एक मीटिंग के दौरान इन्होंने मोना से मेंस्ट्रूअल कप के बारे में जाना। इनको लगा कि अगर वह इसका इस्तेमाल करेंगी, सीखेंगी, तभी तो पता चलेगा। आज निर्मला पिछले यह 6 महीने से कप का इस्तेमाल कर रही हैं। इनका कहना है कि पहले जब स्टेफ्री का इस्तेमाल करते थे तो फुंसी, खुजली, कपड़े खराब होने की समस्या होती थी। अब कोई दिक्कत नहीं होती। वह गर्व से कहती हैं, “मैं तो अब सबको यही कहती हूं कि मेंस्ट्रुअल कप ही सबसे बेहतर विकल्प है।”

मंजू, तस्वीर साभार: कनिका
निर्मला

वहीं, मंजू जो पेशे से एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता उन्हें भी मोना से ही मेंस्ट्रूअल कप की जानकारी मिली। उनका कहना है, “बहुत महिलाओं ने उनसे ही कप लेकर इस्तेमाल में लेना शुरू किया। अभी किसी ने खुद खरीदा नहीं है क्योंकि अनुभव भी नहीं है और पता नहीं कैसे कहां मिलता है।” गांव में आंगनबाड़ी स्तर की नीति के बारे में उन्होंने बताया कि अभी सरकार हमें मुफ्त में सैनिटरी पैड देती है तो वह उसे ही महिलाओं तक उपलब्ध करवाते हैं, इसलिए कप का ज़्यादा प्रचार नहीं हो पा रहा है।

मोना राठौड़, तस्वीर साभार: वरुण
आंगनवाड़ी कार्यकर्ता मंजू

मेंस्ट्रूअल कप के बारे में महिलाओं की चिंताएं

यह पूछने पर कि आमतौर पर महिलाएं मेंस्ट्रूअल कप के इस्तेमाल से हिचकिचाती क्यों हैं मोना बताती हैं, “इस बारे में वह जानती ही नहीं है, तो जागरूकता सबसे बड़ी चुनौती है। दूसरा, वह एकाएक इसमें निवेश नहीं करना चाहती क्योंकि उन्हें नहीं पता कि उनका अनुभव कैसा होगा। ऑनलाइन ऑर्डर करने के अलावा इनकी उपलब्धता का कोई ज़रिया भी नहीं है। तीसरा, सबके बहुत मूलभूत सवाल हैं जैसे यह अंदर गुम हो गया तो, इसका आकार कितना बड़ा है, इससे इंफेक्शन हो गया तो आदि, जिन्हें जागरूकता के माध्यम से दूर किया जा सकता है। कई पढ़ी-लिखी महिलाओं ने भी इस तरह के सवाल किए कि क्या पेशाब करते वक्त उन्हें इसे निकालना होगा जिससे हम समझ सकते हैं कि हम सब हमारे शरीर के बारे में कितना कम जानते हैं। वर्जिनिटी का विचार भी एक बड़ी समस्या है। वैसे तो इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है कि मेंस्ट्रूअल कप से हाइमन फट सकता है लेकिन अगर ऐसा होता भी है तो क्या फर्क पड़ता है?”

गांव में इस मुद्दे पर बात करने की चुनौतियां

मोना आगे बताती हैं, “मुझे इस बारे में कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं किससे पीरियड्स के बारे में बात कर रही हूं, चाहे सामने किसी भी जेंडर का व्यक्ति हो। इन बातों को छिपाना नहीं चाहिए। मैं बहुत सारे पुरुषों को भी उनकी पत्नी के लिए मेंस्ट्रूअल कप दे चुकी हूं। मेरे घर में मेंस्ट्रूअल कप जब धूप में सूखता है तो मेरे 4 साल के बेटे को भी पता होता है कि यह मेंस्ट्रूअल कप है। हमें इन विषयों के बारे में बहुत सहज होना चाहिए।

अपने क्षेत्र में दिनभर पीरियड्स के मुद्दे पर बात करना मेरा पहला अनुभव था। कितना दुखद है कि जो सामान्य तौर पर होनी चाहिए, उतनी बात करना ही मुझे कोई बड़ी बात लग रही थी। इस बारे में कुछ काम तो दूर, समाज हमें सिर्फ़ बात करने की जगह भी नहीं देता। लौटते वक्त गांव के बस स्टैंड पर हमने एक महिला से पूछा कि क्या आप भी कप का इस्तेमाल करती हैं। उन्होंने कहा, “नहीं, लेकिन हम जानते तो हैं इस बारे में।” यह भी तो कितनी आम और ज़रूरी, लेकिन कितनी बड़ी बात थी।

उनका कहना है कि उन्हें इस मुद्दे पर काम करने के लिए अपने आसपास के लोगों से बहुत सहयोग मिला। कुछ लोगों ने अजीब बातें की, कुछ उल्टे कॉमेंट्स भी आए लेकिन गांव में विशेषाधिकार प्राप्त होने की वजह से किसी विशेष विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। जो नकारात्मक कॉमेंट्स आए, उन पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया वरना काम करना मुश्किल हो जाता।”मोना ने अब तक ख़ुद के स्तर पर ही अपने गांव की महिलाओं को कप उपलब्ध करवाए हैं। वह कहती हैं कि यदि कप (जो जीवन बदलने वाली चीज है) पर उतने संसाधन इस्तेमाल किए जाएं तो यह तो सबसे अच्छा धर्म है। इन्होंने राजनीतिक रूप से भी संसाधन इकट्ठे करने की कोशिश की, मुख्यमंत्री को भी लिखा लेकिन अभी कुछ खास मदद नहीं मिली।

भविष्य की नीति

अब इस काम को आगे बढ़ाने, मोना खुद का एनजीओ रजिस्टर करने जा रही हैं और सबसे पहले गोठड़ा गांव को पैड मुक्त करना चाहती हैं। उन्हें मलाल है कि टीम की कमी के कारण यह काम अब तक हो नहीं पाया लेकिन वह भविष्य में इस बदलाव को बड़े स्तर पर लाना चाहती हैं। जैसे राजस्थान सरकार अभी आंगनबाड़ियों के द्वारा मुफ्त पैड बांटती करती है। ऐसे ही अगर मेंस्ट्रूअल कप बांटे जाएं तो यह संसाधन, पर्यावरण और इस्तेमाल करनेवाले व्यक्ति सभी दृष्टि से बेहतर विकल्प है। सिर्फ शुरुआत में सरकार को ट्रेनिंग देकर लोगों को इस्तेमाल करना सिखाना होगा। अगर सरकार का साथ हो तो यह एक बड़ा बदलाव का संकेत हो सकता है।

अपने क्षेत्र में दिनभर पीरियड्स के मुद्दे पर बात करना मेरा पहला अनुभव था। कितना दुखद है कि जो सामान्य तौर पर होनी चाहिए, उतनी बात करना ही मुझे कोई बड़ी बात लग रही थी। इस बारे में कुछ काम तो दूर, समाज हमें सिर्फ़ बात करने की जगह भी नहीं देता। लौटते वक्त गांव के बस स्टैंड पर हमने एक महिला से पूछा कि क्या आप भी कप का इस्तेमाल करती हैं। उन्होंने कहा, “नहीं, लेकिन हम जानते तो हैं इस बारे में।” यह भी तो कितनी आम और ज़रूरी, लेकिन कितनी बड़ी बात थी।


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