समाजमीडिया वॉच किशोर एथलीटों में बॉडी इमेज को लेकर पूर्वाग्रह स्थापित करता सोशल मीडिया

किशोर एथलीटों में बॉडी इमेज को लेकर पूर्वाग्रह स्थापित करता सोशल मीडिया

बॉडी इमेज, किशोरों के लिए वैसे भी बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर जब वे खुद की पहचान के लिए अपनी शारीरिक विशेषताओं का इस्तेमाल करते हैं जैसे एथलीट। हाल ही में जारी एक अध्ययन में बच्चों में खेल छोड़ने से जुड़े कारणों में बॉडी इमेज, सोशल मीडिया और लैंगिक पूर्वाग्रहों के संबंध पर बात की गई है। 

उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फरनगर जिले की रहने वाली उन्नति सिंह खेलों में रूचि रखती है। वह कक्षा नौ में पढ़ती है और स्कूल के साथ-साथ अपना बाकी समय रोज शहर के स्टेडियम में खेल की तैयारी में भी बिताती है। सोशल मीडिया पर स्पोर्ट्स से जुड़ी रील्स देखते हुए उन्नति का कहती है, “देखना एक दिन मैं भी इसी तरह ट्रैक पर दौड़ लगाऊंगी। साथ ही वह खिलाड़ियों की फिटनेस, आउटफिट और उनकी बॉडी के बारे में बातें करते हुए कहती है कि सोशल मीडिया से मुझे खेलों की दुनिया और खिलाड़ियों के बारे में एक्सप्लोर करने को काफी कुछ मिलता है। किस तरह से ग्राउंड पर दिखना है, किस तरह से अपने आप को प्रेजेंट करना है। आपका ट्रैक पर अच्छा दौड़ने के साथ-साथ अच्छा दिखना भी ज़रूरी है जिसके बारे में सोचते हुए कभी-कभी मुझे बहुत बैचेनी भी होती है। आजकल आपके टैलेंट के साथ आपकी प्रेजेंटेशन भी बहुत मायने रखती है।”

किशोरावस्था एक ऐसा समय होता है जब बहुत सारे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बदलाव होते हैं। इस अवस्था में किशोरों में खुद के शरीर में होने वाले बदलावों को लेकर अनेक सवाल होते हैं। विशेष तौर पर वे अपनी बॉडी इमेज को लेकर भी खासे चिंतित रहते है। बॉडी इमेज, किशोरों के लिए वैसे भी बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर जब वे खुद की पहचान के लिए अपनी शारीरिक विशेषताओं का इस्तेमाल करते हैं जैसे एथलीट। हाल ही में जारी एक अध्ययन में बच्चों में खेल छोड़ने से जुड़े कारणों में बॉडी इमेज, सोशल मीडिया और लैंगिक पूर्वाग्रहों के संबंध पर बात की गई है। 

अध्ययन में पाया गया है कि 44 फीसदी लड़के सोचते है कि वे आदर्श से भी बेहतर दिखते हैं। वहीं 46 फीसदी लड़कियां सोचती है कि वे आदर्श से बहुत खराब दिखती है। अध्ययन से पता चलता है कि 70 फीसदी बच्चें 13 साल की उम्र तक खेल छोड़ देते हैं, और 14 साल की उम्र तक लड़कियां, लड़कों की तुलना में दोगुनी दर से खेलना छोड़ देती हैं।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (एएपी) नैशनल कॉफ्रेंस एंड एक्जीबिशन में नेमोर्स चिल्ड्रेन्स हेल्थ द्वारा प्रस्तुत शोध के अनुसार शरीर की छवि यानी बॉ़डी इमेज, सोशल मीडिया, लिंग पूर्वाग्रह और कोचिंग शैली युवा एथलीटों का खेल छोड़ने का कारण बन सकती है। इस अध्ययन में स्थानीय लोकल एथलेटिक संगठन और स्पोर्ट्स मेडिसिन क्लीनिक के 8-18 साल की उम्र के 70 वर्तमान और पूर्व एथलीट्स का सर्वे किया गया है। इसका लक्ष्य उन कारकों को पहचाना था जो युवाओं को खेल छोड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। शोध में शामिल प्रतिभागियों ने खेल छोड़ने के जो कारण बताए है उनमें कोचिंग से जुड़ी परेशानियां, सोशल मीडिया से खराब बॉडी इमेज की तुलना करना और खेल का प्रतिस्पर्धी दबाब। अध्ययन में पाया गया है कि 44 फीसदी लड़के सोचते है कि वे आदर्श से भी बेहतर दिखते हैं। वहीं 46 फीसदी लड़कियां सोचती है कि वे आदर्श से बहुत खराब दिखती है। अध्ययन से पता चलता है कि 70 फीसदी बच्चें 13 साल की उम्र तक खेल छोड़ देते हैं, और 14 साल की उम्र तक लड़कियां, लड़कों की तुलना में दोगुनी दर से खेलना छोड़ देती हैं।

तस्वीर साभारः Zenger News

शोध के परिणामों में स्क्रीन समय, शारीरिक गतिविधि और बॉडी इमेज के बीच महत्वपूर्ण संबंध का संकेत मिलता है। कई प्रतिभागियों का कहना है कि उन्होंने खेल छोड़ दिया क्योंकि उन्हें लगता है कि वे एथलीटों के प्रदर्शन या उपस्थिति की अपेक्षाओं से मेल नहीं खाते हैं जो वे मीडिया और सोशल मीडिया में देखते हैं। जो लोग अपनी एथलेटिक क्षमताओं में कम आश्वस्त थे, उन्होंने खुद को बॉडी इमेज ‘सिल्हूट स्केल’ पर खुद को कम फिट के रूप में माना जैसा एक एथलीट होना चाहिए। प्रतिस्पर्धात्मक दबाब के कारण लड़कियां विशेष तौर पर खेल छोड़ने की ओर सोच रही थीं। 

शोध में कहा गया है कि प्रशिक्षकों और माता-पिता को यह जानना होगा कि उनके शब्द और कार्य खेल में बच्चों की भागीदारी को प्रभावित कर सकते हैं। इस अध्ययन की प्रमुख लेखक कैसिडी एम. फोले डेवेलार का कहना है कि माता-पिता को यह जानना होगा कि बच्चों को खेल छोड़ने के लिए क्या प्रेरित करता है ताकि वे अपने बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समर्थन कर सकें।” डॉ. फोले ने यह भी कहा है कि हमें युवा पीढ़ियों को उस दुनिया में बुलाने के लिए एथलेटिक होने का क्या मतलब है इसकी अधिक विविध, समावेशी और एथलीट की इनपरफैक्ट इमेज को बताना होगा।

सोशल मीडिया और बॉडी इमेज का असर

सोशल मीडिया पर बच्चों पर पड़ने वाले असर की बात करें तो मुख्य तौर यह युवाओं में दूसरों से तुलना करते हुए बॉडी इमेज का नकारात्मक असर पड़ता है। किशोरावस्था में वे खुद पर तथाकथित परफेक्ट बॉडी जैसा बनने का भार महसूस करने लगते हैं। यह स्थिति ख़ास तौर पर उन्हें मनोवैज्ञानिक तरीके से प्रभावित करती है। मेंटल हेल्थ फाउंडेशन के द्वारा ब्रिटेन में 13 से 19 साल के हुए किशोरों के बीच हुए एक ऑनलाइन सर्वे के मुताबिक़ एक तिहाई यानी 31 फीसदी किशोर अपनी बॉडी इमेज के वजह से शर्म महसूस करते हैं। दस में से चार किशोरों (40 फीसदी) का कहना था कि सोशल मीडिया पर मौजूद इमेज को देखकर वे बॉडी इमेज को लेकर चिंतित हैं। ब्रिटेन के एक तिहाई से अधिक किशोरों ने अपनी बॉडी इमेज को लेकर खाना बंद कर दिया या फिर सीमित डाइट लेने लगे।

तस्वीर साभारः Dwan

मुज़फ़्फ़रनगर के रहने वाले युवराज कक्षा 11वीं में पढ़ते है। वह सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव है। स्कूल और ट्यूशन क्लॉस के बाद रोज शाम सात बजे उनका पसंदीदा काम जिम जाना है। बीते एक साल से वह लगातार जिम जा रहे है। युवराज का सोशल मीडिया अकाउंट फिटनेस से संबंधित कंटेट से भरा हुआ है वह खुद जिम मे की गई प्रैक्टिस और अपनी बॉडी को दिखाते हुए पोस्ट करते है। इतनी कम उम्र में जिम के प्रति इतना लगाव पर उनका कहना है, “मैं अपने आपको एक परफेक्ट बॉडी वाले लुक में देखना चाहता हूं जैसा हमारे एक्टर्स और एथलीट होते हैं। पहले मैं बहुत पतला होता था मुझे खुद को देखकर अच्छा नहीं लगता था हर कोई मुझे बच्चा कहता था। जिम जाने के बाद बॉडी की शेप में बदलाव हुआ है और मेरा लुक भी बदल गया है। कॉलेज जाने से पहले मुझे खुद की अच्छी बॉडी बनानी है।” 

किशोरों के द्वारा लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे इंस्टाग्राम और स्नैपचैट तथाकथित परफैक्ट बॉडी इमेज से जुड़े कंटेंट की प्रचुरता होती है। एक अध्ययन के मुताबिक़ सोशल मीडिया का कंटेंट मांसपेशियों को आदर्श (वी आकार का धड़, विजिबल ऐब्स, बड़े बाइसेप्स और कम बॉडी फैट) और दुबला या एथलेटिक आदर्श कम वसा वाले सुड़ौल शरीर की विशेषता पर जोर देता है। न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख में किशोरों पर सोशल मीडिया के पढ़ने वाले प्रभाव को बारे में कई छात्रों का कहना है कि सोशल मीडिया उनके लुक के बारे में उनकी सोच के लिए हानिकारक है और भले ही वे जानते हैं कि यह पूरी तस्वीर नहीं दिखाता है फिर भी वे सोशल मीडिया पर देखी लोगों की छवि से अपनी तुलना नहीं करने का संघर्ष करते रहते है। कभी-कभी सोशल मीडिया उनके स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है जो उन्हें बदलाव करने या शरीर को वैसे ही स्वीकार करने में प्रेरित कर सकता है जैसे वे हैं।

द गार्जियन में प्रकाशित लेख के अनुसार इंस्ट्राग्राम किशोर लड़कियों में बॉडी इमेज के प्रति सोच को प्रभावित करता है। इंटरनेट रिसर्च के लीक आंतरिक शोध के बारे में वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपी जानकारी के अनुसार यह ऐप किशोर लड़कियों में बॉडी इमेज से जुड़े मुद्दों को खराब कर देता है। फेसबुक के द्वारा यूके और यूएस मेें हुए एक अध्ययन में 40 फीसदी से अधिक इंस्टाग्राम यूजर ने कहा था कि ऐप को इस्तेमाल करने बाद से वे खुद में अनाकर्षण महसूस करने लगे। 11 से 16 साल की उम्र की पांच में से दो यूके की लड़कियों का कहना है कि ऑनलाइन इमेज देखकर वे खुद में असुरक्षित और कम आत्मविश्वास महसूस करने लगती हैं। 

कक्षा 11 में पढ़ने वाली अंशु का सोशल मीडिया और बॉडी इमेज को लेकर कहना है, “यह बात बिल्कुल नहीं नकारी जा सकती है कि सोशल मीडिया देखकर आप खुद की बॉडी की बारे में न सोचें। हम वहां ब्राइट, स्लिम और लंबी लड़कियों की तस्वीर देखते हैं और मन में खुद के शरीर को लेकर भी ख्याल आते है। खुद को भी इसी तरह से दिखाने की भी कोशिश करने जैसे ख्याल आते है। मेरी हाइट कम है मुझे खुद पर एक बार वजन कम करने का ख्याल हावी हो गए। मैंने बिना किसी को बताए कम खाना शुरू कर दिया। भूख लगने पर भी खाना नहीं खाना क्योंकि मैं पतला होना चाहती थी। बाद में थोड़ा समझने के बाद कि इस तरह से हम केवल खुद को परेशान करते है लेकिन ऐसा हर किसी के मामले में नहीं होता है। हम टीनएजर सच में सोशल मीडिया से प्रभावित हुए बिना खुद को रोक नहीं पाते हैं।” 

युवराज का सोशल मीडिया अकाउंट फिटनेस से संबंधित कंटेट से भरा हुआ है वह खुद जिम मे की गई प्रैक्टिस और अपनी बॉडी को दिखाते हुए पोस्ट करते है। इतनी कम उम्र में जिम के प्रति इतना लगाव पर उनका कहना है, “मैं अपने आपको एक परफेक्ट बॉडी वाले लुक में देखना चाहता हूं जैसा हमारे एक्टर्स और एथलीट होते हैं। पहले मैं बहुत पतला होता था मुझे खुद को देखकर अच्छा नहीं लगता था हर कोई मुझे बच्चा कहता था।

सोशल मीडिया पर मौजद विज्ञापन और कंटेंट कई स्तर पर लैंगिक रूढ़िवाद और बॉडी इमेज प्रभावित करता है। जैनडॉन्ग पैन स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन एंड आर्ट्स, द यूनिवर्सिटी ऑफ क्वीन्सलैंड, ऑस्ट्रेलिया में हुए एक शोध के अनुसार ब्रांड्स इन दिनों जेंडर स्टीरियोटाइप्स और अवास्तविक बॉडी इमेज का सहारा लेकर प्रोडक्टस को बेच रहे हैं जो पूरी तरह से अनैतिक है। सोशल मीडिया के विज्ञापनों में दिखाई जाने वाली महिलाएं अस्वस्थ रूप से पतली होती है। इन विज्ञापनों में अधिक वजन वाली महिलाओं को कम जगह दी जाती है। आज के दौर में सोशल मीडिया एक ज़रूरत बन गई है। पेशेवर और निजी जीवन में लोगों के लिए संपर्क का एक बड़ा माध्यम है। इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोंनो पहलू है जिन्हें ध्यान में रखते हुए ही इनका इस्तेमाल करना होगा। विशेषरूप से जब बच्चों और युवा के इस्तेमाल करने की बात आती है तो इसको लेकर ज्यादा सजगता की ज़रूरत है और इस भूमिका को अभिभावक और टीचर को निभाना होगा। 


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