वैश्विक दुनिया के इतिहास और वर्तमान की एक वास्तविकता युद्ध है। सदियों से चले आ रहे सशस्त्र संघर्ष के कारण जान-माल की भीषण हानि हो रही है। साथ ही युद्ध का एक पहलू यह भी है कि यह हमारे पर्यावरण को भी उतना ही नुकसान पहुंचा रहा है। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट हर स्तर पर मानव जीवन को प्रभावित कर रहा है। यह संकट सबको प्रभावित कर रहा है लेकिन सबसे ज्यादा गरीब और हाशिये पर रहने वाले समुदाय है। इन्हीं समुदाय में से एक युद्ध और संघर्ष का सामान करने वाले लोग हैं। संघर्ष और युद्ध के बीच हमेशा पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन का मुद्दा उपेक्षित रह जाता है लेकिन पर्यावरण को युद्ध भारी नुकसान पहुंचाता है। दुनिया में कई देशों के बीच आपसी संघर्ष चलता आ रहा है और ताकत और सत्ता के खेल में अलग-अलग देशों में युद्ध, हिंसा, सशस्त्र संघर्ष चल रहे है और इसका सीधा असर जलवायु और पर्यावरण पर पड़ता है।
समुद्र का बढ़ता जलस्तर, पिघलते ग्लेशियर, अत्याधिक वर्षा, सूखा, हीटवेव्स ये सब जलवायु परिवर्तन के वे अनुभव है जिसकी वजह से धरती पर रहने वाले प्रत्येक जीव के जीवन पर असर डाल रहा है। इसके साथ ही दुनिया के देशों में आपसी संघर्ष, युद्ध इस स्थिति को और अधिक प्रभावित करता है। युद्ध से इंसानी जान के साथ-साथ प्राकृतिक दोहन दोगुना होता है। राष्ट्रों के संघर्ष की वजह से पानी का दूषित होना, जंगल में आग लगना, जानवरों की मृत्यु, शहर तबाह होना, कांक्रीट का कचरा बढ़ना, कैमिकल और रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल आदि होता है।। युद्ध और सशस्त्र संघर्षों के कारण पृथ्वी को भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
सशस्त्र संघर्षों का पर्यावरण पर कैसे पड़ता है प्रभाव
सशस्त्र संघर्षों और युद्ध का असर पर्यावरण पर उनके शुरू होने के बहुत पहले हो जाता है। सैन्य बलों के रख-रखाव और निर्माण में भारी मात्रा में संसाधनों की खपत होती है। ये सामान्य धातु या दुर्लभ तत्व, पानी और हाइड्रोकार्बन हो सकते है। सेना की तैयारी बनाए रखने के लिए संसाधन की ज़रूरत होती है और ये संसाधन होते है सेना के हथियार, एयर क्रॉफ्ट, जहाज, इमारतों और बुनियादी ढांचे को ऊर्जा की ज़रूरत होती है। ऊर्जा से अलग तेल की आवश्यकता पड़ती है। कई बड़ी सेना का CO2 उत्सर्जन दुनिया के कई देशों से भी अधिक है।
डरहम विश्वविद्यालय और लैंकेस्टर विश्वविद्यालय के सोशल साइंटिस्ट के अध्ययन के मुताबिक यूएस मिलेट्री इतिहास में सबसे ज्यादा जलवायु प्रदूषकों में से एक है जो बहुत से देशों की तुलना में अधिक तरल ईधन का उपभोग कर सकती है। कॉन्फिल्कट एंड एनवायमेंटल ऑबर्जवेक्टरी के मुताबिक़ सभी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के 5.5 फीसदी के लिए सेनाएं जिम्मेदार हैं। हालांकि संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन में सैन्य उत्सर्जन की रिपोर्टिंग बहुत खराब है। सैन्य ग्रीनहाउस उत्सर्जन की रिपोर्टिंग स्वैच्छिक है इस वजह से डेटा हमेशा अनुपस्थित रहता है। कमजोर पर्यावरणीय निरीक्षण के कारण इतिहास ने कई देशों को सैन्य प्रदूषण से जुड़ी गंभीर पर्यावरण के नुकसान, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर असर और पर्यावरण उपचार के लिए भारी लागत के साथ छोड़ दिया है।
सेनाओं को ट्रेनिंग और बेस के लिए समुद्र और जमीन की बड़ी जगह की आवश्यकता पड़ती है। एक अनुमान के मुताबिक़ सेना की जमीन वैश्विक भूमि का 1-6 फीसदी के बीच फैली है। बहुत से केस में यह इकोलॉजिकल महत्वपूर्ण क्षेत्र है। सैन्य प्रशिक्षण उत्सर्जन, स्थलीय और समुद्री आवासों में बाधा पैदा करता है। हथियारों, वाहनों और विमानों के इस्तेमाल से रासायनिक और ध्वनि प्रदूषण होता है। इससे अलग उच्च स्तर का मिलिट्री पर होने वाला खर्च वैश्विक स्तर पर होने वाले पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान और सस्टेनेबल विकास में भी बाधा का काम करते है। इतना ही नहीं उच्च स्तर के सैन्य खर्च पर्यावरण खतरों पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को कम करता है। साथ ही यह पहलू भी ध्यान देने वाला है कि सुरक्षा के नाम पर राजनीति और सैन्यकरण कैसे पानी, गैस, तेल से जुड़े संसाधनों को नियंत्रित करता है।
सशस्त्र संघर्षों, युद्ध के पर्यावरण पर पढ़ने वाले प्रभाव बहुत व्यापक है। अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद इस संघर्षों में डिफोलिएंट छिड़काव, जहरीली गैस, ड्रोन, फायरबॉम्बिंग हाल के युद्धों में इस्तेमाल की जाने वाली कुछ रणनीतियां हैं। तकनीक के युद्ध में इस्तेमाल होने से इसका नागरिक आबादी को जितना नुकसान पहुंचा है उतना ही पर्यावरण पर भी हुआ है। कुछ अंतरराष्ट्रीय सशस्त्र संघर्ष संक्षिप्त लेकिन बहुत ज्यादा विनाशकारी हो सकते हैं। कुछ गृह युद्ध कम तीव्रता से लेकिन लंबे समय तक चलते आ रहे है। लंबे चलते आ रहे युद्ध पर्यावरण पर पड़ने वाले असर की विस्तृत रूप को दिखाते है। लगातार कुछ समसामायिक संघंर्षों ने तो ऐसी रेखाओं को भी धुंधला कर दिया है। इजराइल और फलीस्तीन के बीच हो रहे संघर्ष में लाशों के ढ़ेर, इमारतों का ज़मीदोज, आसमान में उड़ते रॉकेट, सफेद फॉस्फोरस का इस्तेमाल इसके ताजा उदाहरण है। एक साल से ज्यादा समय रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है। दोंनो देश एक-दूसरे के ख़िलाफ़ वायु और थल सेना का इस्तेमाल कर रहे है।
साल 2007 के बाद से हिंसक संघर्ष की वैश्विक दर तीन गुना ज्यादा हो गई है। फॉरेन पॉलिसी में प्रकाशित लेख के अनुसार दो बिलियन से ज्यादा लोग यानी दुनिया की एक चौथाई आबादी वर्तमान में नाजुक और संघर्ष प्रभावित राज्यों में रह रहे हैं। रेडक्रॉस की 2020 की अंतरराष्ट्रीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरणीय गिरावट और जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे संवेदनशील मान जाने वाले 25 देशों में से 14 वर्तमान में संघर्ष और हिंसा का सामना कर रहे हैं। साल 2018 में सुरक्षा परिषद की मीटिंग में संयुक्त राष्ट्र के जनरल सेक्रेट्री एंटोनियो गुटेरेस ने जोर देकर कहा था, “पिछले 60 सालों में 40 फीसदी गृहयुद्ध या संघर्ष दुर्लभ प्राकृतिक संसाधनों की वजह से हो सकते है। साथ ही उन्होंने कहा था कि जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ मानवीय कारण भष्ट्राचार और असमान वितरण के कारण इन संसाधनों को पाने की होड़ अधिक होगी।”
ग्लोबल सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ संयुक्त राष्ट्र के अनुसार युद्ध शुरू होने से पहले 2006 और 2011 के बीच एक असाधारण सूखे के कारण सीरिया के 75 प्रतिशत खेत बर्बाद हो गए और 85 फीसदी पशु मर गए। सूखे से शहरी क्षेत्र की ओर लोगों ने पलायन किया जिससे पूरे देश में अस्थिरता फैल गई। सीरिया के गृहयुद्ध के बाद इराक को अनेक चरम मौसमी घटनाओं का सामना करना पड़ा। सूखा, बाढ़ और तेज हवाओं से आर्थिक नुकसान हुआ। सूडान, लीबीया, यमन में चल रहा संघर्ष देश के लोगों के लिए भौगिलिक स्थिति के लिए संकट की बड़ी वजह है।
युद्ध के दौरान वनों की कटाई बढ़ जाती है। ईधन की ज़रूरत की बढ़ती मांग की वजह से तेजी से जंगलों को काटा जाता है। इतना ही नहीं कई सशस्त्र संघर्षों की वजह खनिज संपदा या अन्य प्राकृतिक संसाधनों के लिए भी है। उच्च स्तर पर विस्थापन, भूमि अधिकार और स्वामित्व के मुद्दे सामान्य हो जाते हैं जब वे घर वापस आते है। कई शोध बताते है कि युद्ध के बाद वाले देशों में भी वनों की कटाई अधिक देखने को मिलते है। सेना की मौजूदगी युद्ध के बाद वाली जगहों पर प्रदूषण को बढ़ाने का कारण होती है। बर्न पिट जैसी प्रथाओं के कारण प्रदूषण कारण बनती है। पोस्ट कॉन्फिल्कट एरिया में लैड माइंस और युद्ध विस्फोटक के अवशेष मिट्टी की गुणवत्ता को खराब करते है।
संघर्षो से पर्यावरण को जो नुकसान होता है उसका असर बहुत व्यापक है। पर्यावरण संरक्षण कार्य में भी यह बहुत बड़ी बाधा है। इससे प्रदूषण नियंत्रण, संसाधन संरक्षण और प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। इतना ही नहीं सशस्त्र संघर्ष की बाद पुननिर्माण परियोजनाओं के लिए संसाधनों की आवश्यकता होती है। युद्ध, संघर्ष जिनता मनुष्य के लिए खतरनाक है उतना ही प्रकृति के लिए है।