इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत लोक में भाषा की आविष्कारक स्त्रियां

लोक में भाषा की आविष्कारक स्त्रियां

गीतों से लेकर आम बोलचाल में प्रयोग होने वाली भाषा मे बहुत से ऐसे शब्द मिलते हैं जिनका प्रयोग सिर्फ स्त्रियां ही करती हैं, उन शब्दों का प्रयोग पुरुष नहीं करते।

मनुष्य सभ्यता में भाषा का कार्य वृहद होता है। भाषा मनुष्य को उसके जीवन में परिष्कृत और परिमार्जित करती है, उसे उसकी संवेदनाओं को व्यक्त करने का माध्यम बनती है। कला और संस्कृति के बनने से समृद्ध होने में भाषा की भूमिका अपरिहार्य होती है। अक्सर देखा गया है कि एक ही भौगोलिक परिवेश में रहते हुए भी वहां के मनुष्यों की भाषा मे अंतर होता है। ये अंतर विशेष रूप से मनुष्य के समुदाय, वर्ग और लैंगिकता पर आधारित होता है और इसका उदाहरण भाषा मे ही देखने को मिलता रहता है। जैसे अभिजातीय भाषा, बोलचाल की भाषा, सड़क की भाषा, गली की भाषा जनजातीय भाषा आदि। हालांकि, ये वर्गीकरण बोलियों पर आधारित होता है लेकिन बोलियां ही भाषाओं की जननी होती हैं। लोक की स्त्रियों की दुनिया उनके उनकी संवेदनाओं और जीवन की एक कठिन रहनवारी में बीतते जीवन के रंगों से बनी होती है।

जहां उनके सुख-दुख, अचरज, उलझन, उलाहने सब उन्हीं की भाषाओं में अभिव्यक्ति पाते हैं। लोक की स्त्रियों की भाषा का अध्ययन किया जाए तो हम देखेगें कि उनकी अभिव्यक्ति की भाषा पुरुषों काफी हद तक अलग होती है। गीतों से लेकर आम बोलचाल में प्रयोग होने वाली भाषा मे बहुत से ऐसे शब्द मिलते हैं जिनका प्रयोग सिर्फ स्त्रियां ही करती हैं, उन शब्दों का प्रयोग पुरुष नहीं करते। लोक में स्त्रियों के किस्से कहावतें मुहावरे सब उनकी एक अलग ध्वनि और अर्थ के साथ भाषा में रहते हुए भाषा से अलग होते हैं। लोक में क्रियाओं के जाने कितने शब्द मिलते हैं जो महज स्त्रियों द्वारा ही बोले जाते हैं।

जैसे एक शब्द है डहकना जिसका अर्थ है दुख की एक गहरी और लम्बी चुप्पी भरी रुलाई। गाँव में स्त्रियां इस शब्द को अक्सर वेदना के गहरे अर्थों में प्रयोग करती दिखती हैं। जो बहुधा गहरे अवसाद या तनाव आदि के भी अर्थों में दिखता है। किसी दुख ,अपमान या ग्लानि की बात पर अगर कोई संवेग वे नहीं व्यक्त कर पाई और वह संवेग बार-बार मन में उठता है तो लोक में स्त्रियां उसे ‘करकना’ कहती हैं, “जैसे फलां बात मेरे मन में करकती रहती है।” जबकि कोई चोट की पीड़ा या कहीं शरीर के किसी अंग में कांटा धसने की पीड़ा को भी वह करकना कहती हैं। यहां देह के किसी अंग में धंसे कांटे की पीड़ा और कोई मन की रह गई पीड़ा का प्रभाव एकसमान दिखता है।

लोक में ये स्त्री-पुरुष की भाषा का वर्गीकरण गीतों और गालियों में बहुत स्पष्ट मिलता है। स्त्रियों के गीतों के शब्द पुरुषों की भाषा के शब्दों से बेहद अलग और ज्यादा संवेदनशील अर्थ लिए होते हैं जिसमें जीवन में घटित क्रियायों की ध्वनियों का समावेश होता है।

इसी तरह एक शब्द जिसका प्रयोग अक्सर हो शरीर में नुकसान पहुंचाने वाली चीजों की क्रियाओं के लिए करती हैं- बेजांय करना। बेजांय करना वह किसी मौसम या खाने की चीज़ आदि से शरीर को पहुंचते नुकसान के लिए करती हैं। लोक में भी कभी कोई पुरुष इस शब्द का प्रयोग करते नहीं मिलता। देखा गया है कि बहुत छोटे होने पर बच्चे माँ की भाषा में प्रयुक्त बोलियों का प्रयोग करते हैं लेकिन थोड़े बड़े हो जाने पर जब आसपास का वातावरण घर परिवार आदि उन्हें एहसास करवाते हैं कि वे पुरुष हैं तब वे इस भाषा का प्रयोग करना छोड़ देते हैं।

लोक में ये स्त्री-पुरुष की भाषा का वर्गीकरण गीतों और गालियों में बहुत स्पष्ट मिलता है। स्त्रियों के गीतों के शब्द पुरुषों की भाषा के शब्दों से बेहद अलग और ज्यादा संवेदनशील अर्थ लिए होते हैं जिसमें जीवन में घटित क्रियायों की ध्वनियों का समावेश होता है। स्त्रियों के लोकगीतों में जैसे सोहर, बियाह, उठान, कजरी, चैता, सुहाग, बन्ना ,बन्नी आदि गीतों में ऐसे शब्दों का जखीरा है जो महज स्त्रियों की दुनिया के शब्द होते हैं। जैसे सोहर गाते हुए वे बार-बार गीत में ‘होरिलवा’ शब्द का प्रयोग करती हैं। लोक भाषा में होरिलवा का अर्थ होता है नवजात शिशु। आप जब भाषा की पड़ताल करेगें तो पाएंगे इस शब्द को बस स्त्रियां ही भाषा में बरतती हैं। जबकि प्राचीन समय से ये सारे शब्द स्त्री लोकगीतों में गाए जा रहे हैं लेकिन महज स्त्रियों द्वारा गायए जाने वाले गीतों में पुरुषों की भाषा में ये शब्द इस रूप में नहीं मिलता।

इसी तरह छोटे बच्चे के लिए उनके गीतों में एक और शब्द भी खूब आता है ‘छडूंलवा’ जिसका अर्थ होता है वो छोटा बच्चा जिसके माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद बाल कटे न हों। ऐसे बच्चे को स्त्रियां अपनी भाषा में झडूंलवा कहतीं हैं। इसी तरह एक और शब्द आता है ‘छठुलवा।’ यह छः महीने के बच्चे के लिए लोक की स्त्रियों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला शब्द है। यहां भाषा की प्रांजलता का अद्भुत और अलग-अलग रूप दिखता है। भाषा अपने अर्थ में एक सजग वैज्ञानिक दृष्टि और अलग-अलग अवस्था के दैहिक लक्षण को समेटे हुए है।

स्त्रियां भाषा में अन्याय और गैरबराबरी को कहते हुए हमेशा उसे एक व्यंग और संताप की रहन में ही कहतीं हैं। लोक में स्त्रियों की बोलियों का एक वृहद शब्दकोश है जो भाषा के संसार को समृद्ध और सुंदर बनाता है।

लोक की स्त्रियों के गीतों में वाक्य कहते हुए विशेषणों से बने शब्दों का प्रयोग करके भाषा को अधिक सजल और संवेदनशील रूप देने की कोशिश दिखती है। जैसे विवाहित स्त्री के लिए वह अपने गीतों में ‘तिरिया’ शब्द का प्रयोग करती हैं। उनकी भाषा में जिन स्त्रियों के छोटे बच्चे हैं उनको ‘लाडकोरी’ कहा जाता है। इसी तरह एक शब्द उनके गीतों में बोलियों में बार-बार आता है ‘बिहंसना’ जिसका अर्थ होता है एक विशेष किस्म की हंसी जिसमें विलास का मिश्रण होता है। लोक की स्त्रियों की भाषा में एक शब्द अपने कई सारे लक्षणों के साथ उपस्थित होते हैं और बेहद कम अक्षरों में भाषा के कई शब्दों का अर्थ समेटे रहते हैं। संवेदना की जितनी बारीक पड़ताल लोक स्त्रियों की भाषा में मिलती है वह कहीं और देखने को नहीं मिलती है। अवध की स्त्रियों की लोक भाषा मे एक शब्द स्त्रियां बहुतायत प्रयोग करती हैं ‘किता’ जिसका अर्थ काफी वृहद है। किता शब्द में मनुष्य या वस्तु का रूप-रंग वेष भूषा सब आ जाता है। अगर वह किस्म व्यक्ति के लिए किस ‘किता’ का है प्रयोग कर रही हैं तो इसका पूरा अर्थ होता है कि वो मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व को जानना चाहती हैं।

इसी तरह लोक की स्त्रियों में जो गालियां हैं भाषा में वह पुरुषों की भाषा की तरह अप्राकृतिक और हिंसक नहीं होतीं। ज़्यादातर वे जन्म और मृत्यु से जुड़ी होती हैं। जैसे स्त्रियों की एक गाली ‘निबहुरा’ जिसका अर्थ न लौटना। ये गौरतलब बात है कि उनकी भाषा में व्यक्ति का कहीं से न लौटना गाली ही गाली का अर्थ है। लोक की स्त्रियों की भाषा में इसी मिजाज की गालियां मिलती हैं। इसी तरह जो यौनिकता से जुड़ी गालियां होती हैं वो थोड़े से हास्य सम्बन्धों की अनगढ़ता से जुड़ी होती हैं। वहां उनकी भाषा की गालियों में संताप दिखता है। आह या श्राप जैसे भाव मिलते हैं लेकिन सामन्ती हनक वहां जल्दी नहीं मिलती।

उनकी लोकोक्तियां और मुहावरे भी अपनी भाषा में उनके जीवन-रहन से ही जुड़े होते हैं लेकिन वहां भी उनकी दृष्टि मौलिक और वैज्ञानिक चेतना से प्रभावित मिलती है। मौसमों को लेकर स्त्रियों के जो मुहावरे हैं वे रोचक और उनकी दुनिया से जुड़े हुए हैं वर्ष के बारह महीनों को लेकर उनके जो बारह लोकोक्तियां हैं वे अद्भुत वैज्ञानिक चेतना से लैस हैं। कौन सा महीना कितने समय और कितने कार्य भर का होता है तब धूप और छांव किस रंग की और कितनी देर तक ठहरती है सबका विवरण उसमें समेटा हुआ होता है।

भाषा जब ध्वनियों, लक्षणों, आकृतियों आदि से संवेदित होकर निकलती है तो उसका स्वरूप प्रांजल होता है और यही भाषा की प्रांजलता ही उसे सहज और ज्यादा बोधगम्य बनाती है। लोक में स्त्रियों की जो भाषा है वहाँ जो सूक्ष्मता और सजलता है वो उसे मौलिकता जरूर देती है लेकिन उनकी संवेदना की गहराई है जो उनकी भाषा को विल

जहां उनके सुख-दुख, अचरज, उलझन, उलाहने सब उन्हीं की भाषाओं में अभिव्यक्ति पाते हैं। लोक की स्त्रियों की भाषा का अध्ययन किया जाए तो हम देखेगें कि उनकी अभिव्यक्ति की भाषा पुरुषों काफी हद तक अलग होती है। गीतों से लेकर आम बोलचाल में प्रयोग होने वाली भाषा मे बहुत से ऐसे शब्द मिलते हैं जिनका प्रयोग सिर्फ स्त्रियां ही करती हैं, उन शब्दों का प्रयोग पुरुष नहीं करते।

क्षण बनाती है। ये स्त्रियां अपने दुख, अपमान, पीड़ा और टीस को अपनी भाषा में बरतते हुए हिंसात्मक भावों तक नहीं जाती। स्त्रियां भाषा में अन्याय और गैरबराबरी को कहते हुए हमेशा उसे एक व्यंग और संताप की रहन में ही कहतीं हैं। लोक में स्त्रियों की बोलियों का एक वृहद शब्दकोश है जो भाषा के संसार को समृद्ध और सुंदर बनाता है।


Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content