चित्रलेखा, भगवतीचरण वर्मा द्वारा लिखा एक चर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास में पाप-पुण्य की समस्या को ही लेखक ने नैतिक धरातल पर प्रेम की त्रिकोणीय कथा के माध्यम से विश्लेषित किया है। इसमें मुख्य रूप से पांच प्रमुख किरदार है। इनके जीवन में लिए हुए निर्णयों, विचारधारा और इनकी सफलता पर ही पूरी कथा की दिशा बदलती है। कहानी शुरू होती है महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्यों से, श्वेतांक और विशालदेव, जो गुरु से पाप और पुण्य क्या है, कहां रहता है आदि के बारे में जानना चाहते हैं। आचार्य महाप्रभु रत्नांबर जी कुछ विचार करके, उन्हें अपने दो पुराने शिष्यों के पास भेजने की इच्छा जताते हैं। श्वेतांक, जो क्षत्रिय हैं, जिन्हे संसार में अनुकृति है, उन्हें बीजगुप्त के पास भेजने का प्रबंध किया जाता है, जो एक भोगी है। विशालदेव, ब्राह्मण हैं, जिन्हे ध्यान तथा आराधना पर अनुकृति हैं, उन्हें कुमारगिरि के पास भेजा जाता है (उनका दावा है कि उन्होंने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है) के पास भेजा जाता है।
उनके इस मार्ग में दोनों की मुलाकात एक नर्तिका चित्रलेखा से होती है, जिनकी सुंदरता की चर्चा पूरा पाटलिपुत्र करता है। चित्रलेखा युवावस्था में ही विधवा हो जाती है और सामाजिक मोह माया को छोड़कर संयम और नियम अपनाती है। बाद में कृष्णादित्य के संपर्क में आने से प्रेम की अनुभूति करती है और दोनों जीवनभर साथ रहने का संकल्प करते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में एक विधवा महिला का दोबारा किसी पुरुष के साथ होना, विवाह करना मान्य नहीं है अतः समाज उनके इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करता है। गर्भवती चित्रलेखा और कृष्णादित्य को उनके परिवार वाले बहिष्कृत कर देते हैं। चित्रलेखा एक पुत्र को जन्म देती है। समाज की भर्त्सना और तिरस्कार से दुखी होकर कृष्णदित्य अपनी जान ले लेता है। उनका पुत्र भी अल्पायु तक ही जीवित रहता है। इन सबके बाद चित्रलेखा एक नर्तकी के आश्रय में रहते हुए संगीत और नृत्य की शिक्षा ग्रहण करती है।
अपनी नृत्य निपुणता और अद्भुत सौंदर्य से वह शीघ्र ही पाटलिपुत्र की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी का स्थान प्राप्त करती है। वह एक नर्तकी है वैश्या नही अतः बहुत से प्रतिष्ठित प्रभावशाली सामंतियों की तरफ से आए प्रस्तावों को मजबूती से ठुकरा देती है। कई सामंतियों के प्रस्ताव को ठुकरा देने वाली चित्रलेखा मौर्य जनपद के युवा सुंदर और प्रभावी सामंत बीजगुप्त से प्रभावित होकर उनके प्रेम में पड़ जाती है। दोनों साथ रहना और समय व्यतीत करना शुरू करते हैं।
कहानी आगे बढ़ती है श्वेतांक जो कि बीजगुप्त का शिष्य बन कर उनसे शिक्षा ग्रहण करने आया है। उन्होंने दर्शन, स्मृतियों, साहित्य व्याकरण का गहराई से अध्ययन किया था लेकिन यौवन की मादकता और नारी के आकर्षण से अनभिज्ञ था। बीजगुप्त के भवन में रहते हुए उसने चित्रलेखा के प्रति आकर्षण महसूस किया। उसके साथ से वह अपने मे एक विचित्र प्रकार का अनुभव करता है। जब वह उसको मदिरा का प्याला देता है तो उसके हाथों का स्पर्श उसे रोमांचित कर देता है। चित्रलेखा से प्रणय याचना कर अपने स्वामी के साथ विश्वासघात करता है। चित्रलेखा उसकी उसे वास्तविक स्थिति से अवगत कराती है। हालांकि इससे वह ग्लानि की अनुभूति करता है और बीजगुप्त से माफी मांगता है। विशालदेव, कुमारगिरी के तेज और संयम से भरे व्यक्तित्व से श्रद्धा से भर जाता है देखकर वह अपने स्वामी के अनुसार योग और साधना में लिप्त हो जाता है ।
एक बार बीजगुप्त और चित्रलेखा रास्ता भटकते हुए कुमारगिरी के आश्रम में पहुंचते हैं। दोनों को साथ देखकर कुमारगिरी असहज हो जाते हैं। वह स्त्री को मोह, माया और अंधकार मानते हैं। इससे चित्रलेखा अपने आप को अपमानित महसूस करती हैं और उनसे तर्क-वितर्क करने लगती हैं। उनके तर्को से प्रभावित होकर कुमारगिरी उनके प्रति आकर्षित होने लगते हैं। सम्राट चंद्रगुप्त के दरबार में आयोजित एक सभा में सत्य नीति ईश्वर संबंधी धारणाओं की तर्कसंगत प्रस्तुति नीतिशास्त्र मंत्री चाणक्य को विजय सिद्ध करती हैं। सभा में उपस्थित योगी कुमारगिरी अपनी प्रबल आत्मशक्ति के माध्यम से कल्पना प्रसूति और ईश्वर का रूप प्रदर्शित कर विद्वान मंडली और चाणक्य को चकित कर विजयी मुकुट का अधिकारी बन जाते है।
कुमारगिरि द्वारा कुटिया में किए गए अपमान से चित्रलेखा छुब्ध होती है और उनके आगमन से जब उनके प्रदर्शन को रोक दिया जाता है तो वे क्रोधित हो उठती है। वह लोकगीत में सच्चाई बताकर उनके साथ तर्क-वितर्क करती है और इस प्रकार स्वयं को विजयी घोषित करती है। उनके तर्क-वितर्क के माध्यम से उनपर जनता की भ्रमित करने का आरोप लगता है। सभा की प्रतिक्रिया देख चित्रलेखा स्वयं को पराजित मानने लगती है और अपना मुकुट उतरकर कुमारगिरी को पहना देती है जिससे वे बहुत लज्जित महसूस करते हैं।
पाटलिपुत्र के वयोवृद्ध धनाध्य सामंत मृत्युंजय अपने बेटी यशोधरा के जन्मोत्सव पर बीजगुप्त के साथ चित्रलेखा को भी निमंत्रित करते हैं। स्त्री समुदाय द्वारा चित्रलेखा अपना स्वागत व्यंग के साथ होने के कारण तिलमिला उठी। वे कहती है, “आज नर्तकी चित्रलेखा को हमारी समानता करके हमारे समाज में आने के लिए बधाई।” इस व्यंग से वह तिलमिला उठती है उसका अभिवादन का उत्तर उससे भी कटु होता है। वह कहती है कि अपने सौंदर्य के बल से अपना स्वागत करने के लिए अभिमानी स्त्रियों को बाध्य करने वाली को बधाई की कोई आवश्कता नहीं है। यहां लेखक ने समाज में नर्तकी के लिए संकुचित दृष्टिकोण का उल्लेख किया है वे समस्या का स्थापन करते है किंतु उसका विस्तृत विवेचन नहीं करते है।
कहानी आगे बढ़ती है बीजगुप्त के पूछने पर हालांकि वह बड़ी चतुराई से अपना छोभ छिपा लेती है। बीजगुप्तु और यशोधरा के गायन और चित्रलेखा के नृत्य के साथ वातावरण मनोरम होने लगता है। कुमारगिरी के आगमन से चित्रलेखा के नृत्य को रोक दिया जाता है जिससे चित्रलेखा एक बार फिर अपमानित होती है और इसे कला का अपमान मानती है। वह वहां से चली जाना चाहती हैं किंतु कुमारगिरी के आग्रह से रुक जाती है, उनका यह फैसला कुमरगिरी के प्रति उनकी कोमल भावना को प्रकट करता है। वह कहती है, “मेरी दृष्टि में कला का सर्वोच्च स्थान है जो कला का अपमान करता है वह मनुष्य नहीं पशु है।“
मृत्युंजय अपनी पुत्री यशोधरा से विवाह प्रस्ताव बीजगुप्त के सामने रखते है हालांकि वह चित्रलेखा को अपनी पत्नी बताते हुए उनके इस प्रस्ताव को मना कर देते है। वहीं योगी कुमारगिरी उन दोनों के संबंध को तोड़ देना चाहते है और यही बीजगुप्त के लिए सही बताते हैं। चित्रलेखा कुमारगिरी के कुटिया में उनसे दीक्षा लेकर विराग का जीवन जीने का फैसला लेती है। उसके जाने से बीजगुप्त अपने जीवन में नीरस का अनुभव करता है और इससे छुटकारा पाने और यशोधरा से दूर रहने के विचार से वह काशी जाने की योजना बनाते हैं।
इधर यशोधरा और मृत्युंजय भी उसके साथ काशी जाने की योजना बना लेते हैं। वहां यशोधरा का साथ उसे उससे विवाह कर गृहस्थ जीवन जीने की प्रेरणा देता है। श्वेतांक, यशोधरा से प्रेम करता है और अब बीजगुप्त उसके बीच में आ जाता है लेकिन फिर भी वह उन दोनों के विवाह का प्रस्ताव रखता है। बाद में बीजगुप्त यह जानकर श्वेतांक को यशोधरा से विवाह करने योग्य बना देता है। जब चित्रलेखा को श्वेतांक द्वारा बीजगुप्त के त्याग के बारे में पता चलता है तो वह उसके प्रति श्रद्धा भाव से भर जाती है। बीजगुप्त से माफी मांगती है और वे पाटलिपुत्र छोड़ कर चले जाते हैं इसी के साथ उपन्यास का अंत हो जाता है।
भगवती चरण वर्मा द्वारा लिखित यह उपन्यास जातिवाद, पितृसत्ता, रूढ़िवाद और अंधविश्वास जैसी समाजिक बुराईयों पर प्रहार है। स्त्री की स्वायत्ता के बारे में प्रश्न करता है। यह प्रेम के प्रकार और वासना में अंतर को सामने रखता है। उपन्यास की विषय वस्तु इतनी रोचक है कि इसकी लोकप्रियता के कारण इस पर दो फीचर फिल्में भी बनाई जा चुकी है।