संस्कृतिकिताबें खुले गगन के लाल सितारे: स्त्री-विमर्श का एक नया संदर्भ खींचती किताब

खुले गगन के लाल सितारे: स्त्री-विमर्श का एक नया संदर्भ खींचती किताब

उपन्यास  ‘खुले गगन के लाल सितारे’ की आलोचना करते हुए वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव अपनी किताब एक सबाल्टर्न प्रस्तावना में लिखते हैं कि उतनी ही उड़ान से संतुष्ट जितना आकाश थमा दे पुरुष। यहां आलोचक स्त्री-मुक्ति के संदर्भ को पुरुष की दिखाई गई मुक्ति की राह से चलने और उससे आगे जाकर मुक्ति के सम्पूर्ण आकाश को नहीं देखना, एक सीमित चेतना की ओर इंगित कर रहे हैं।

वर्ग-संघर्ष को लेकर शुरू हुए नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास ‘खुले गगन के लाल सितारे’ स्त्री-जीवन की अनेक तहों को उघाड़ कर दर्ज करता है। साथ ही स्त्री-मुक्ति के आकाश को भी चिन्हित करता है। उपन्यास के शुरुआती हिस्से में नायिका मणि प्रथम प्रेम के रंग में ‘बादल-बादल बहता इश्क और भरी-भरी वह’ की रूमानी छवि में भीगी दिखती है। लेकिन नायिका मणि की ये रूमानी छवि ही उसका संपूर्ण सच नहीं है। आगे जाकर यही प्रेम का प्रकाश उसे मुक्ति का रास्ता भी दिखलाता है। इस उपन्यास में जो एक सच उद्घटित होता है वह यह भी कि प्रेम करते हुए भी मुक्ति का रास्ता तलाशना ही प्रेम का सही-सही अर्थ है।

मणि मुक्ति के संपूर्ण आकाश को कदम-कदम चलकर तय कर रही है। राह की रूढ़ियों और समाज-परिवार से मिल रहे संत्रास को भी झेल रही है। लेकिन जिसने मुक्ति की उस राह से परिचय कराया था उस प्रेमी से बिछोह होता है तो वह एकदम टूट जाती है। मुक्ति का प्रकाश मणि में प्रवेश कर चुका होता है इसलिए वह अपनी दोनों बड़ी बहनों की तरह परिस्थितियों से समझौता नहीं करती। एकदिन वह घर-समाज की बनाई उस चौहद्दी से निकल जाती है। यहां उसका प्रेम उसकी मुक्ति बनकर आया था। जब नक्सलबाड़ी गाँव से उठे एक सशस्त्र आंदोलन ने कॉलेज के भीतर घुसकर सत्तर के दशक की युवा पीढ़ी को छूना शुरू किया और जब तक मणि ने इस सत्य को समझकर आत्मसात किया तब तक मुक्ति की राह का उसका साथी उसका प्रेमी इंद्र गायब हो चुका था। यहीं से शुरू होता है मणि का जीवन में सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था देखने की द्वंदात्मक दृष्टिकोण और खुद के लिए मुक्ति का संघर्ष।

लेखिका मधु कांकरिया, तस्वीर साभार: Mid Day

मणि के आसपास ऐसी स्त्रियां हैं जो सामाजिक व्यवस्था द्वारा प्रताड़ित हैं। उसकी अपनी माँ की उम्र पिता की उम्र में बहुत अंतर है। उसकी माँ जिस मारवाड़ी परिवार से आई थीं वहां आर्थिक स्थिति इस घर से काफी बेहतर थी तो ये चीजें मिलकर मणि की माँ को कर्कश और कुंठित बना देती हैं। यौन-सुख और धन का अभाव दोनों अभावों ने उनके जीवन को एक अजीब कर्कश और संवेदनहीन धरातल पर खड़ा कर दिया है। उपन्यास में मणि की बहन मुन्नी का ब्याह एक ऐसे व्यक्ति से होता है जो मानसिक बीमारी का सामना कर रहा होता है। ससुराल आकर मुन्नी को उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने को कहा जाता है और मुन्नी को यह करना पड़ता है। मणि को ये सब पशुवत व्यवहार लगता है। उसका मन बार-बार इस विवाह से विद्रोह करता रहता है। पति से संबंध बनाने के बाद जब मणि मुन्नी का चेहरा ध्यान से देखती है तो उसे पहली बार मुन्नी से भी वितृष्णा होती है। इस व्यवस्था में स्त्रियों का इतना यातनापूर्ण जीवन देखकर मणि उस समय समानता और न्याय की दुनिया के स्वप्न से सजी चेतना की ओर और भी गतिशील होती है। स्त्री-जीवन की इन यातनाओं को मणि देख-समझ कर घुटती रहती थी कि मंझली बहन पारसी के जीवन का दुख नायिका मणि को एकदम से छिन्न-भिन्न कर देता है।

मणि मुक्ति के संपूर्ण आकाश को कदम-कदम चलकर तय कर रही है। राह की रूढ़ियों और समाज-परिवार से मिल रहे संत्रास को भी झेल रही है। लेकिन जिसने मुक्ति की उस राह से परिचय कराया था उस प्रेमी से बिछोह होता है तो वह एकदम टूट जाती है। मुक्ति का प्रकाश मणि में प्रवेश कर चुका होता है इसलिए वह अपनी दोनों बड़ी बहनों की तरह परिस्थितियों से समझौता नहीं करती।

उपन्यास ‘खुले गगन के लाल सितारे’ की आलोचना करते हुए वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव अपनी किताब एक सबाल्टर्न प्रस्तावना में लिखते हैं कि उतनी ही उड़ान से संतुष्ट जितना आकाश थमा दे पुरुष। यहां आलोचक स्त्री-मुक्ति के संदर्भ को पुरुष की दिखाई गई मुक्ति की राह से चलने और उससे आगे जाकर मुक्ति के सम्पूर्ण आकाश को नहीं देखना, एक सीमित चेतना की ओर इंगित कर रहे हैं। वह कहते हैं कि और यही प्रेम का रूमान औपन्यासिक विमर्श की चौहद्दियों को तय कर देता है। उनका मानना है कि लेखिका का यह रूमानी दृष्टिकोण नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर लिखित इस उपन्यास को गम्भीर राजनीतिक विमर्श बनने से रोकता है। लेकिन इस क्लासिक उपन्यास पढ़ते हुए कहीं लगता नहीं कि यह मुक्ति की कोई सीमा तय कर करता है स्त्री और पुरुष की मुक्ति का आकाश एक है लेकिन समाजिक यथार्थ एक नहीं है। आगे जाकर आलोचक खुद भी कहता भी है कि लेकिन राजनीति की भरपूर छलकन और फिसलन से समृद्ध और सीमित इस उपन्यास का स्त्री-विमर्श इसे भिन्न सार्थकता प्रदान करता है। स्त्री-विमर्श के नये आयाम को रचते हुए उपन्यास स्त्री-अस्मिता , स्त्री-स्वतंत्रता और स्त्री-अधिकार की बहस को बहुत मजबूती से स्थापित करता है। राजनीतिक संदर्भों से रचे-पगे इस उपन्यास में स्त्री-विमर्श पृष्ठभूमि के ही मूल रूप में उपस्थित है।

उपन्यास की नायिका मणि डायरी लिखती है। डायरी में लिखे उसके मन के अंतर्द्वंद्व से उपन्यास में समाज और स्त्री को लेकर एक विमर्श लगातार चलता रहता है। नायिका मणि परिवार-समाज और सत्ता की जो यथार्थ तस्वीरे देखती है उसे दर्ज करती है। उसके प्रेमी इंद्र ने कभी उसकी चेतना के पट को रसोईघर से मार्क्स -लेनिन तक पहुंचाया था लेकिन चेतना के वे अधखुले पट आज जब पूरे वेग से आध्यात्म, जीवन और चेतना जीवन-जगत और मोक्ष से संबंधित प्रश्नों से टकरा रहे हैं तो उनके समाधान के लिए किसके पास जाए मणि।

स्त्री-विमर्श के नये आयाम को रचते हुए उपन्यास स्त्री-अस्मिता , स्त्री-स्वतंत्रता और स्त्री-अधिकार की बहस को बहुत मजबूती से स्थापित करता है। राजनीतिक संदर्भों से रचे-पगे इस उपन्यास में स्त्री-विमर्श पृष्ठभूमि के ही मूल रूप में उपस्थित है।

मणि की मंझली बहन पारसी द्वारा जैन धर्म मे दीक्षा लेना मणि को कत्तई स्वीकार नहीं वह अपनी माँ से इसका विरोध करती है क्योंकि उसे लगता है कि ये सब उसकी माँ ही पारसी से करवा रही है। विवाह से पूर्व जलने की घटना में चेहरे की जिस कुरूपताओं के कारण पारसी होने वाले पति द्वारा अपमानित होती है वही तिरस्कार उसकी माँ पारसी का करती है और उसे मुंहजली कहकर ताना  देती रहती है। अपनी माँ के शंकित मन को मणि समझती है। बेटी का अविवाहित रह जाना उसके बहक जाने की आशंका पैदा करता है। उसकी माँ घर में दलील देती है कि बेटी का मन इधर-उधर बहके, भटके वह व्यभिचारिणी बन जाए तो तुम लोगो को मंजूर लेकिन धर्म की राह पर चले तो मंजूर नहीं। पारसी इस धर्म की राह में अपनी मुक्ति राह देखती है क्योंकि चेहरा जल जाने के बाद उसे लगता है कि जीवन मे अब कुछ बचा नहीं संसार से विमुखता से अपने भावी पति के मुंह फेरने से भी हुई है। वहीं, उपन्यास की नायिका मणि सोचती है कि कैसी है यह धर्म की राह? कितनी मुक्त है यह पुरुष सत्ता की जकड़बंदी से? क्या सांसारिकता से विमुख होकर भी पारसी को पितृसत्ता की दुरभिसंधि से छुटकारा मिला? इन सारे प्रश्नों का उत्तर उपन्यास की नायिका मणि धार्मिक सत्ता के विखंडन द्वारा करती है जो आखिरकार पुरुष केंद्रित ही है।

गयी रात तकिये पर सिसकती मणि ने सुना था, अम्मा पिता को फुसफुसा रहीं थीं, “मुन्नी और पारसी तो संभल गई। यह बस की नहीं इसे तो अभी से छोकरे चाहिए।” पितृसत्ता के पास अपार ताकतें हैं और असर इतना गहरा है कि उनसे शोषित स्त्रियां ही उसकी मजबूत ताकत बनकर स्त्री की मुक्ति की राह में खड़ी हो जाती हैं और जब स्त्री पितृसत्ता की लाठी तानकर खड़ी होती है तो अपनी ही संतान के लिए कितनी कठोर हो जाती हैं ये इस उपन्यास में नायिका मणि की माँ एक ऐसी ही स्त्री है जो पितृसत्ता के विचारों को पोषित करती रहती हैं।

उपन्यास की नायिका मणि सोचती है कि कैसी है यह धर्म की राह? कितनी मुक्त है यह पुरुष सत्ता की जकड़बंदी से? क्या सांसारिकता से विमुख होकर भी पारसी को पितृसत्ता की दुरभिसंधि से छुटकारा मिला? इन सारे प्रश्नों का उत्तर उपन्यास की नायिका मणि धार्मिक सत्ता के विखंडन द्वारा करती है जो आखिरकार पुरुष केंद्रित ही है।

“अभी से छोकरे चाहिए” इस अकेले वाक्य ने रातोंरात बदल दिया था उसे। पहली बार अपने भीतर की आवाज़ से नहीं बल्कि बाहरी शोर से उसे पता चला था वह हाड़ मांस की धड़कती काया नहीं बल्कि लड़की है जिसे अभी से ही छोकरी नहीं चाहने चाहिए। वर्जना निषिद्धता कुछ-कुछ अपवित्रता और कुछ अपरिभाषित सी कुंठा इस कदर उसके चारों ओर गिर गई थी कि उससे सिर्फ एक ही नाम दिया जा सकता था “लड़कीपन का घेरा,  इंद्र उसके जीवन का वह इतिहास -पुरुष था जिसनेउसे इस लड़कीपन के घोंघे से निकाल बाहर कर उसमें स्वतंत्र चेतना विकसित की थी। मुन्नी और पारसी दोनों ही इस लड़कीपन के घेरे में जकड़ी थी इस कारण वह अपने ऊपर हुए किसी भी अन्याय को समझ ही नहीं पाते थे वह फार्मूला सोच की शिकार थी वही सोचती थीं जो उसे सोचने पर विवश किया जाता था, वही देखती थी जो उन्हें दिखाया जाता था।

एक रात पारसी को जीवन की सामान्य धारा में में लौटा लाने के अंतिम प्रयास-स्वरूप मणि ने कहा था उससे “महेंद्र का इतना गम न करो, न ही अपने जल जाने को। तब पारसी इंद्र का नाम लेती है कहती है जैसे तुम इंद्र को भूल गई। पारसी बताती है कि एक पत्र उसने देख लिया था इंद्र का जिससे उसे पता चला गया है कि इंद्र उसका कोई सामान्य दोस्त भर नहीं था। यहां दो स्त्रियां हैं दोनों अपने प्रेमी से अलग होकर आगे बढ़ रही हैं लेकिन दोनों के रास्ते एकदम अलग हैं। इस उपन्यास का शीर्षक उस समय के राजनीतिक और नक्सडबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है लेकिन उपन्यास की मूल प्रसांगिकता स्त्री-विमर्श और समाज की विवाह संस्था की यातना ही है। घर-गृहस्थी में रमी स्त्रियों से लेकर धर्म जगत की स्त्रियों तक का जीवन यहां तार-तार खोला गया है।


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