पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए 1992 के 73वें संशोधन अधिनियम ने पूरे देश में पंचायती राज में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण दिया गया। यह संशोधन मूल रूप से महिलाओं की राजनीतिक और सामाजिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए की गई थी। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में इसी के साथ ही सरपंच पति जैसी अवधारणा की शुरुआत हो गई। सरपंच पति या सरपंच पतिवाद शब्द को हम उस स्थिति के रूप में समझ सकते हैं कि जब किसी पंचायत क्षेत्र में निर्वाचित महिला के स्थान पर उसके पुरुष रिश्तेदार जैसे पति, पुत्र या देवर सरपंच यानि कि प्रधान के रूप में काम करते हैं। लोकभाषा में इसका चलन सरपंच पति के रूप में हो गया। मुखिया पद से संबंधित राजनीतिक शक्ति और निर्णायक शक्ति का उपयोग करते हैं । ग्रामीण क्षेत्र की जनता में सरपंच पति पद का प्रभाव स्वयं सरपंच के पद से भी अधिक प्रभावी है ।
महिला सरपंच को क्यों न मिले उनका अधिकार
महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का उद्देश्य नारी सशक्तिकरण और महिलाओं की अधिक से अधिक राजनीतिक भागीदारी को सुनिश्चित करना है। लेकिन महिला सरपंचों की मदद करने के बहाने पुरुष ऐसे असंवैधानिक पदों के माध्यम से इन उद्देश्यों का बार-बार उल्लंघन कर रहे हैं। इससे सीधे-सीधे तौर पर महिला सरपंचों के अधिकारों का हनन हो रहा है। ऐसी तमाम कहानियां हैं जहां महिला आरक्षित सीट होने पर पुरुष अपने परिवार की महिलाओं को उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में खड़ा करते हैं और उनके जीतने के बाद पंचायत का काम और सरपंच पद से जुड़ी राजनीतिक शक्तियों का प्रयोग स्वयं प्रयोग करते हैं।
सरपंच होने के बावजूद मिटती पहचान
ऐसी ही एक कहानी चिंता देवी की है जो 2021 में सराय पकवान ग्रामसभा की प्रधान के तौर पर चुनी गई थी। चिंता देवी मैट्रिक पास हैं और एक बार पहले भी महिला आरक्षित सीट होने की वजह से प्रधान रह चुकी हैं। चिंता देवी के पति दुर्गा प्रसाद पांडेय लगभग तीन बार प्रधान रह चुके हैं। लेकिन इस बार वह प्रधानपति के तौर पर ग्रामसभा की बैठकों की अध्यक्षता कर रहे हैं। सराय पकवान ग्रामसभा के अंदर कुल तीन गांव आते हैं और कुल 2600 मतदाता हैं जिनमें 1400 पुरुष और 1200 महिलाएं हैं। यहाँ लगभग 50 फीसद जनसंख्या ब्राह्मणों की है और लगभग बाकी 50 फीसद जनसंख्या अन्य पिछड़ी जातियों की है।
इसी ग्रामसभा के वार्ड सदस्य विजय पांडेय के अनुसार चिंता देवी को चुनाव पोस्टरों के अलावा कहीं नहीं देखा है। लगभग हर उस दस्तावेज पर जिसपर ग्राम प्रधान के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती है वहां पर उनके पति दुर्गा पांडेय द्वारा मुहर लगाई जाती है। प्रधानपति की अनुपस्थिति में चिंता देवी के देवर मंटू पांडेय ये विभाग संभालते हैं। आगे विजय बताते हैं, “एक बार प्रधानपति और प्रधान देवर दोनों की अनुपस्थिति में निवास प्रमाण पत्र/ पहचान प्रमाण पत्र पर प्रधान चिंता देवी ने पर्दे के अंदर से बिना याचिकाकर्ता से मिले और बिना उसकी जांच किए हस्ताक्षर कर दे दिया। एक प्रधान के तौर पर भी उन्हें पर्दे से बाहर आने की अनुमति नहीं है।”
सरपंच होने के बावजूद अधिकारों पर जागरूकता नहीं
ग्रामसभा की महिलाएं जो अक्सर चुनाव के दिनों में घर के भीतर चाय पानी की व्यवस्था पर ध्यान देती है, वहीं पुरुष जो बाहर चुनावी समीकरण पर ध्यान देते हैं, दोनों को ही अपने ग्राम प्रधान चिंता देवी का नाम अक्सर याद नहीं होता। चिंता देवी को स्थानीय लोग ‘परधाइन’ (प्रधान की पत्नी) के तौर पर जानते हैं। वहीं दुर्गा पांडेय को अक्सर ‘प्रधानजी’ के तौर पर ग्रामसभा में जाना जाता है। चुनाव के नतीजे चाहे चिंता देवी के पक्ष में आए हों या उनके पति दुर्गा पांडेय के पक्ष में, ग्रामसभा में प्रधान दुर्गा प्रसाद को ही माना जाता है। हालांकि चिंता देवी ही सिर्फ हमारी चिंता का विषय नहीं है बल्कि ऐसी और भी कहानियां है जहां महिला सरपंचों को उनके अधिकार तक मालूम नहीं है। उनके लिए चुनाव पुरूषों का क्षेत्र है जहां सिर्फ उनके नाम का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसी तमाम कहानियों में प्रधान पति असल भूमिका निभा रहे हैं।
प्रधान बनने से समाज से जुड़ी समझ का विकास
ऐसी ही एक और कहानी है इसी जिले की 87 वर्षीय शांति देवी की जो एक बार ग्रामसभा पौनी की पूर्व प्रधान रह चुकी हैं। शांति देवी के पति स्वर्गीय बाबू नंदन यादव पौनी क्षेत्र से लगातार चार बार प्रधान रह चुके थे। शांति देवी बताती हैं, “जब वह सन 1996 में प्रधान चुनी गई तब उनकी चुनाव संबंधित विशेष रुचि नहीं थी। निरक्षर होने के कारण सारा कार्य उनके पति संभालते थे।” हालांकि वह बताती हैं कि प्रधान बनाने के बाद उनके अंदर एक विशेष प्रकार की सम्मान की भावना जगी जिससे वो मुखिया से संबंधित कार्यों को जानने-समझने में और अधिक रुचि दिखाने लगी। उनके अनुसार प्रधान बनने के बाद उनके अंदर समाज और राजनीति से जुड़ी समझ विकसित हुई। आगे वो थोड़ा मुस्कुराते हुए बताती हैं कि घर से बाहर निकलते हुए उन्हें एक विशेष प्रकार का गर्व महसूस होता था। यह पूछने पर कि क्या आप दोबारा ग्राम प्रधान बनना चाहेंगी। इस पर शांति देवी कहती है कि 1996 के बाद से महिला आरक्षित सीट नहीं हुई जिस वजह से वो दोबारा उम्मीदवार नहीं बन पाई। शांति देवी के अनुसार महिलाएं बिना अरक्षित सीट के चुनाव में नहीं जीत सकती क्योंकि उन्हें समर्थन नहीं मिलता।
हाशिये पर रही महिलाओं का कैसे होगा विकास
महिलाओं की राजनीतिक सशक्तिकरण में सरपंच पतिवाद जैसी कई रूकावटे हैं। बात और भी गंभीर तब हो जाती है जब महिला सीट में भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिला के लिए सीट आरक्षित हो जाती है। हमेशा से हाशिये पर रहने की वजह से इन समुदायों के हाथ में राजनीतिक सत्ता बहुत कम रही है। ऐसे में दलित एवं आदिवासी महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर क्षेत्र के धनशाली लोग अपने उम्मीदवार उतारते हैं, जिससे न तो महिलाओं का और न ही उनके समुदाय का राजनीतिक या सामाजिक विकास हो पाता है। समाज में विशेषकर गांवों में आज भी ऊंची जातियों का वर्चस्व है, जिसके कारण जातिगत हिंसा की घटनाएं भी आम है। सदियों से हिंसा और भेदभाव सह रहे हाशिये पर रह रहे समुदायों की कई बार सामाजिक कन्डिशनिंग भी इस तरह होती है कि सत्ता में अधिकार पाकर भी वे हीन मानसिकता से जूझते हैं और ऊंची जातियों के लोगों को खुद से अधिक समझते हैं। यह मानसिकता सराय पकवान क्षेत्र की महिला एवं बाल विकास परियोजना की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता रह चुकी इंद्रावती देवी के बातों से समझ आता है। वह बताती हैं, “जब मेरी नियुक्ति मतगणना करने के लिए की गई थी, तब एक दलित महिला ने आरक्षित सीट से जीत हासिल की थी। तब उम्मीदवार दुलारी देवी ने खुशी के मारे मेरे पैर छू लिए थे।” इंद्रावती कहती है कि महिला सरपंचों को उनके अधिकारों की सही जानकारी नहीं है। शायद इस वजह से उनके साथ जातिगत भेदभाव और हिंसा उनके सरपंच बनने के बाद भी पीछे नहीं छूटती।
इन कहानियों से हम उन हजारों महिला प्रतिनिधियों की स्थिति को समझ सकते हैं जिन्हें चुनाव में जीतने के बावजूद अधिकार नहीं मिला। हमें महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाने के लिए आरक्षण के साथ-साथ उनके प्रशिक्षण पर भी जोर देने की ज़रूरत है। महिला प्रतिनिधियों के लिए क्षमता निर्माण और नेतृत्व विकास कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए ताकि वो पंचायत के काम समझ सकें और उचित फैसले ले सकें। इसके साथ ही सरपंच पतियों के प्रभुत्व को कम करने के लिए और महिलाओं के अधिकारों से खिलवाड़ करने के लिए कानून और नीतियां बनाने की भी ज़रूरत है।