रूढ़िवादी सोच यह कहती है कि एक महिला के जीवन का अस्तित्व केवल पुरुष से है वो भी उसके पति से है। इसलिए जब भारतीय समाज में एक महिला विधवा हो जाती है तो उनका जीवन और मुश्किल हो जाता है। अधिकारों और गरिमा की लड़ाई और अधिक संघर्षपूर्ण हो जाती है। पितृसत्तात्मक समाज में जब एक महिला विधवा होती है, तो उसका जीवन और मुश्किल बना दिया जाता है। गांवों में धूप-छांव की तरह जीवन बिताने वाली विधवा महिलाएं, पितृसत्तात्मक मूल्यों के बोझ, अनगिनत आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और भावनात्मक कठिनाइयों को ढोते हुए खुद के लिए और ख़ासकर खुद पर आश्रित बच्चों और परिवार के भरण-पोषण के लिए राह बनाती हैं।
विधवा महिलाओं के संघर्षों को हमेशा किस्मत और ईश्वर की मर्जी कहकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। उनके दुख, मानसिक पीड़ा और रीति-रिवाजों के नाम पर समाज से अलग-थलग करके उन्हें और पीड़ा दी जाती है। हमारे समाज में विधवापन को लंबे समय से पितृसत्तात्मक मानदंडों, सामाजिक कलंक के तौर पर चिन्हित किया गया है। इस वजह से बहुत सी महिलाओं को हाशिये पर और अक्सर बहिष्कृत जीवन जीना पड़ता है। ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मानदंड भारत में महिलाओं के जीवन को आकार देने में मौलिक भूमिका निभाते हैं। विवाह की संस्था इन मानदंडों में गहराई से उलझी हुई है और विधवा औरतें अक्सर खुद को पारंपरिक रीति-रिवाजों और सामाजिक अपेक्षाओं के चौराहे पर पाती हैं।
संगीता कहती है, “स्कूल में जाकर बच्चों को पढ़ाना सबसे अच्छा होता है। लेकिन शिक्षामित्र की नौकरी से मिली तनख्वाह इतनी नहीं होती की उससे उनके तीन बच्चों की शिक्षा का खर्च पूरा हो सके। इस वजह से रोजमर्रा की जिंदगी के खर्च उठाने के लिए मैं अपने रिश्तेदारों पर निर्भर हूं। परिवार के पुरुष मुखिया उनकी बाहरी आवाजाही पर प्रतिबंध लगाते है।
पहले समाज में विधवा महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों की सबसे प्रमुख “सती प्रथा” थी जहां एक पत्नी को उसके पति की मौत के समय उसकी चिता पर बैठाकर जला दिया जाता था। सती प्रथा तो देश में बंद हो गई है लेकिन पति की मृत्यु के बाद महिलाओं के साथ होने वाला दुर्व्यवहार आज भी समाज हमारे घर-परिवारों में व्याप्त है। ग्रामीण भारत में विधवापन को लेकर रूढ़िवादी सोच महिलाओं के सामने आने वाली कठिनाइयों को और भी बढ़ा देते हैं। विधवाओं को अक्सर बहिष्कृत किया जाता है, अशुभ करार दिया जाता है, कलंक समझा जाता है और भेदभाव और अलगाव का व्यवहार किया जाता है। उन्हें अपने परिवारों पर बोझ माना जाता है, क्योंकि वे अब पत्नियों और माताओं की अपेक्षित भूमिकाएं नहीं निभाती हैं। परिणामस्वरूप, उन्हें अक्सर पारिवारिक कार्यक्रमों, धार्मिक समारोहों और सामुदायिक समारोहों से बाहर रखा जाता है उनकी उपस्थिति को अशुभ समझा जाता है।
सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से बहिष्कार के साथ ही साथ आर्थिक चुनौतियाँ विधवा महिलाओं की असुरक्षा को और अधिक बढ़ा देती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कई विधवाओं की शिक्षा सीमित है और आर्थिक अवसरों तक उनकी पहुंच नहीं है। पति के निधन के बाद (जिनकी तनख्वाह अक्सर घर में आय का मुख्य स्रोत होती थी) उन्हें अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है जिससे उनके जन्मदाता परिवारों पर वित्तीय निर्भरता बढ़ जाती है, और अक्सर उन रिश्तों में तनाव आ जाता है। आर्थिक स्वतंत्रता की कमी अक्सर उन्हें कम वेतन वाली, कम नौकरी की सुरक्षा या सामाजिक सुरक्षा वाली श्रम-गहन नौकरियों में जाने के लिए मजबूर करती है।
मेरे सारे रंग मुझसे छीन लिए गए
ग्रामीण भारत में विधवा महिलाओं की स्थिति पितृसत्तात्मक मानदंडों, सामाजिक कलंक और आर्थिक चुनौतियों से बेहद प्रभावित हैं। सरकारी सुविधाओं तक उनकी पहुंंच नहीं है इस वजह से विधवाओं ध्यान में रखकर चलाई जाने वाली योजनाओं का लाभ नहीं ले पाती है। इतना ही नहीं घर-परिवार में भी अपने हकों से उन्हें दूर कर दिया जाता है। 39 वर्षीय संगीता यादव उत्तर प्रदेश के साई गांव की रहने वाली है। वह गाँव के सरकारी स्कूल में शिक्षामित्र के तौर पर काम करती हैं। दो साल पहले कोरोना महामारी में इनके पति का निधन हो गया। उनके पति का निधन उनकी पहचान का एक अहम हिस्सा हो चुका है। पति की मृत्यु के बाद के जीवन के संघर्षों के बारे में बात करते हुए संगीता ने बताया कि उन्हें रंगों से बहुत प्यार था लेकिन अब जीवन के रंग छूट गए है। उनका प्रिय रंग लाल है जिसे वह अब कभी नहीं पहनती।
संगीता कहती है, “स्कूल में जाकर बच्चों को पढ़ाना सबसे अच्छा होता है। लेकिन शिक्षामित्र की नौकरी से मिली तनख्वाह इतनी नहीं होती की उससे उनके तीन बच्चों की शिक्षा का खर्च पूरा हो सके। इस वजह से रोजमर्रा की जिंदगी के खर्च उठाने के लिए मैं अपने रिश्तेदारों पर निर्भर हूं। परिवार के पुरुष उनकी बाहरी आवाजाही पर प्रतिबंध लगाते है। चाहे बाजार जाना हो या अपने बच्चों के लिए छोटे से छोटा फ़ैसला लेना हो, किसी से कागज़ी बातचीत करनी हो हर चीज़ पर नज़र रखी जाती है।”
संगीता को पग-पग पर परिवार के मान और एक विधवा औरत की ‘मर्यादा’ को ध्यान में रखकर फैसला लेना पड़ता है। एक विधवा होने के नाते उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह अधिक से अधिक श्रम करें जिससे उनकी शारीरिक ऊर्जा खत्म और अन्य किसी तरह के ख्याल उनके मन में न आए जिससे घर की इज़्ज़त बनी रहे। संगीता इस पर कहती है, “उनसे हर छोटे बड़े श्रम की अपेक्षा की जाती है ताकि वो बैठकर केवल घर में रोटी न खाएं। यहां तक कि खाने और कपड़े भी निम्न श्रेणी के दिए जाते है क्योंकि यह माना जाता है कि एक विधवा औरत पौष्टिक भोजन और अच्छे वस्त्र पहन कर क्या करेगी। इस तरह के व्यवहार से उनके बच्चों के मन में हीन भावना उत्पन्न होती है कि हमारी माँ के साथ ऐसा क्यों किया जाता है। हमारी माँ दूसरी औरतों की तरह क्यों नहीं रहती है।”
पुरुषवादी समाज के ढांचे में उनसे अपेक्षा की जाती है कि विधवा महिलाएं हमेशा घर के दायरों में रहे। इस वजह से घर से बाहर निकलने पर भी हीन भावना और एक अजीब प्रकार का डर मन में बैठा रहता है। आस-पड़ोस के लोग लाचार या फिर गलत नज़रों से देखते हैं जिससे असुरक्षा का भाव हर पल बना रहता है। संगीता आगे कहती है कि पति की मृत्यु के बाद हम वहीं रहते है लेकिन बाकी सब लोग बदल जाते हैं। घर-परिवार के मुख्य फैसलों में अब उनकी राय या मशवरा नहीं लिया जाता, पति के होने पर जो समान जो पद उनका परिवार में था, अब वह सब बदल गया है। इन सबसे मन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। सोच-सोचकर सेहत बहुत बिगड़ती जाती है। आगे वह कहती है कि पति के देहांत के बाद बच्चों के जीवन संवारना ही उनका लक्ष्य रह गया है और उनकी ज़रूरतों को पूरा करना ही मकसद बन गया है।
काम की वजह से बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाई
54 वर्षीय दलित राजमनी देवी के पति की मृत्यु के बाद से लगभग 24 साल से अकेली अपने बच्चों को संभाल रही हैं। राजमनी के चार बच्चें हैं, दो बेटियां और दो बेटे। शुरू में वह फल-सब्जी बेचती थी साथ ही आस-पास मजदूरी के काम करने लगीं जैसे खेतों में सिंचाई व रोपनी के काम। अक्सर उन्हें उनके मेहनताने से कम मजदूरी मिलती थी, साथ में काम करने वाले लोग भी उनके हक में थोड़ी सेंधमारी कर लेते थे। काम के समय कई बार उन्हें जातिवाचक शब्दों से भी गुजरना पड़ता था। हालांकि बढ़ती उम्र के साथ ये टिप्पणियां कम हो गई।
राजमनी अपने जीवन के संघर्षों के बारे में बताते हुए कहती है कि घर चलाने के लिए उन्होंने हमेशा अधिक श्रम करना पड़ा है। आय का कोई अन्य साधन नहीं है हमेशा मजदूरी करके जीवन गुजारा है। बच्चे बड़े हो गए है अब तो कुछ सहारा लग गया है। बड़ी बेटी ने सिलाई सीख ली है वह भी सिलाई पर कपड़े सिल कर घर में दो पैसे कमाने में मदद करती है। बच्चों के पालन-पोषण पर वह आगे बताती है कि आर्थिक तंगी और काम में वह ज्यादातर समय घर से बाहर रही है जिस वजह से कभी बच्चों पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दे पाई है जिसका सबसे ज्यादा मलाल है। खुद अशिक्षित होने की वजह से हमेशा बाधाओं का सामना किया है शायद पढ़ी-लिखी होती तो चीजें आसान हो जाती।
तुम्हारे बच्चे ही तुम्हारा जीवन है
पति की मृत्यु के बाद शुरुआती समय को याद करते हुए राजमनी आगे कहती है, “तब घर में कोई बड़ा नहीं था और न ही मैं कभी घर से बाहर निकली थी। बच्चे छोटे थे और खुद भी बहुत कम उम्र थी तब ये ही समझ नहीं आता था कि कहाँ से शुरू करना है। मेरा हमेशा को बहुत सज-धज कर रहने का मन करता था लेकिन पति की मौत के बाद सब छीन लिया गया था। मुझे हमेशा यह याद दिलाया गया कि तुम्हारें चार बच्चें हैं और यही तुम्हारा जीवन है और इन्हीं के सहारे तुम्हें जीना है।” भावनात्मक शारीरिक ज़रूरतों के बारे में सवाल करने पर वह आगे कहती है कि उन्होंने मान लिया है कि अपने को पीछे रखकर जीना ही उनका जीवन है। उनके जीवन में कुछ चीजें अब नहीं हो सकती है और अपना ख्याल मैं उधर लेकर जाती ही नहीं थी।
संगीता, राजमनी जैसी लाखों महिलाएं हैं जिनके जीवन में उनके पति की मृत्यु के बाद समाज द्वारा सबकुछ बदल दिया गया। ऐसी अलग-अलग कहानियां है जहां महिलाओं को विधवा होने के साथ-साथ जातीय और उम्र से जुड़ी पहचान के कारण अलग-अलग अनुभवों का भी सामना करना पड़ा। घर, परिवार और रूढ़िवादी समाज की हिदायतों के बोझ को लेकर उन्हें चलना पड़ता है। परिवार और समाज में उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है। उनके हकों को छीन लिया जाता है ख़ासतौर पर परिवार में पति की मृत्यु के बाद संपत्ति पर अपने हक के लिए अपने बच्चों की परवरिश के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। बार-बार उनके चरित्र पर सवाल किया जाता है जिस वजह से महिलाएं अवसाद का बहुत सामना करती है।