हर मौसम में पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियां लगातार बढ़ती जा रही है। मानसून में बारिश, सर्दियों में भारी बर्फभारी की वजह से प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही है। तथाकथित ‘विकास’ के नाम पर नाजुक हिमालय को नुकसान पहुंचाया जा रहा है और आम जनता को भी बहकाया जा रहा है। सरकारें, इस विकास मॉडल पर पुनर्विचार करने के लिए राज़ी नहीं हैं और प्रकृति को होने वाला दोहन बढ़ता जा रहा है।
विकास के नाम पर पर्यावरण को होने वाले नुकसान को लेकर समय-समय पर बहुत से लोगों ने प्रतिरोध का स्वर बुलंद किया है। पर्यावरण संरक्षण के लिए इतिहास से लेकर वर्तमान तक इन आवाज़ों की लंबी फेहरिस्त है। गौरतलब है कि इस मुहिम में महिलाओं की भूमिका और हिस्सेदारी अविस्मरणीय है। महिलाएं हमेशा पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों में जमीन पर काम करने में आगे रही हैं। इतना ही नहीं वे पारिवारिक और सामुदायिक स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही हैं। लेकिन पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका का दस्तावेजीकरण का शुरू से ही काफी अभाव रहा है। नतीजन महिलाओं की भूमिका का सही आकलन नहीं हो पाता है। इस लेख के ज़रिये हम मुख्यरूप से उत्तराखंड राज्य में पर्यावरण आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा करेंगे।
हिमालय को उजाड़ने की नींव किसने रखी?
इतिहास में ब्रिटिश हुकूमत के समय से प्राकृतिक संसाधनों को नुकसान पहुंचाने की बात सबसे पहले सामने आती है। अंग्रेजों के लिए उत्तराखंड और हिमाचल पर कब्जा रणनीतिक और संसाधन के नजरियों से ज़रूरी था। साल 1814 में लड़े गए नेपाल युद्ध में इसे मूर्त रूप दिया गया। आम लोगों ने इस लूट का प्रतिकार किया। इसी दौरान, 1921 में कौसानी के पास स्थित एक जंगल से दुर्गा देवी की गिरफ्तारी हुई थी। अलग-अलग स्थानों पर जंगल सत्याग्रह चलते रहे। साल 1929 में महात्मा गांधी ने उत्तराखंड का दौरा किया। उसके बाद जल-जंगल-जमीन की लड़ाई पुख्ता रूप से राष्ट्रीय आंदोलन की साथ जुड़ गई। महिलाओं ने पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई को जमीन पर मजबूत करने का काम किया।
औपनिवेशिक सत्ता से मुठभेड़ कर रहे लोगों को यह उम्मीद थी कि आज़ाद मुल्क में उनके हकों की हिफ़ाज़त की जाएगी लेकिन निराशा हाथ लगी। जंगलों के प्रति सरकारी नज़रिए में कोई खास बदलाव नहीं देखा गया। जंगल सत्याग्रह आंदोलनों के बाद आज़ाद हिंदुस्तान के शुरुआती वर्षों में भूदान आंदोलन और नशाबंदी आंदोलन चला। मार्च 1970 में हुए टिहरी सत्याग्रह में महिलाओं की भूमिका ने ध्यान खींचा। उसके बाद महिलाओं ने अन्य आंदोलनों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
दशोली ग्राम स्वराज संघ
साल 1964 में चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में गोपेश्वर में ‘दशोली ग्राम स्वराज संघ’ की स्थापना की गई। इसी संस्था से चिपको आंदोलन का जन्म हुआ था। इस संघ की स्थापना के समय से ही जुड़ने वालों मे एक नाम श्यामा देवी का भी हैं। श्यामा देवी ने अपनी जमीन और जमा पूंजी इस संस्था को खड़ा करने में लगा दी थी। सत्याग्रह वेबसाइट में प्रकाशित लेख के अनुसार महात्मा गांधी की शिष्या मीरा बेन 40 के दशक में हिमालय के क्षेत्र में गई। ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच उन्होंने मवेशियों के ‘पशुलोक’ के नाम से एक केंद्र की शुरुआत की थी। सुंदरलाल बहुगुणा के साथ मिलकर उन्होंने भिंलगना घाटी में काम किया। उस दौर में सुंदरलाल ने महिलाओं की चिंता की वकालत की और मीरा बेन के हिमालयी पहाड़ों को बचाने के दार्शनिक और वैचारिक विचारों का ढांचा तैयार किया। महिला आंदोलन को संगठनात्मक रूप देने में गढ़वाल में सरला बेन और बिमला ने भूमिका निभाईं। वहीं कुमाऊं में राधा भट्ट ने काम किया। 60 के दशक में पहाड़ो में महिलाओं के नेतृत्व में शराब विरोधी आंदोलन चल रहा था इस आंदोलन की विरासत आगे चलकर चिपको आंदोलन को मिली।
जंगलात नीति में बदलाव की मांग लंबे समय से की जा रही थी जो कि धीरे-धीरे ज़ोर पकड़ने लगी थी। लेकिन केंद्र और राज्य दोनों सरकारें मामले को ठंडे बस्ते में डालने का प्रयास कर रही थी। 15 दिसंबर, 1972 को गोपेश्वर में पहली बार सीधे संघर्ष का एलान हुआ। 27 मार्च, 1973 को जब इलाहबाद की साइमंड कंपनी पेड़ काटने गोपेश्वर आई। तभी चंडी प्रसाद ने प्रतिरोध को चिपको शब्द दिया। उसके बाद के प्रतिरोधों को चिपको आंदोलन कहा जाता है। इस लड़ाई को धरातल पर लड़ने में और पर्यावरण को बचाने में गाँव-गाँव की महिलाएं आगे आईं।
रामपुर फाटा आंदोलन
गोपेश्वर से करीब 80 किलोमीटर दूर मंदाकिनी घाटी के पास रामपुर फाटा स्थित है। यहां भी वनों की कटाई का ठेका साइमंड कंपनी को दिया गया था। यह पहला आंदोलन था जिसमें महिलाएं प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण की लड़ाई में शामिल हुई थीं। इस आंदोलन में श्यामा देवी और इंदिरा देवी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 30 दिसंबर, 1973 को रामपुर में ग्रामीण महिलाओं ने एक जुलूस निकाला। जिसका नेतृत्व श्यामा देवी ने किया। महिलाओं के नेतृत्व में निकला यह चिपको आंदोलन का पहला जुलूस था। इस जुलूस में इंद्रा देवी, जेठुली देवी, जयंती देवी तथा पार्वती देवी ने भी शिरकत की थी।
रैणी का आंदोलन
फाटा के आंदोलन में मिली जीत ने महिलाओं को और मजबूती दी। वहीं 1 जनवरी, 1974 को रैणी के जंगल की नीलामी हो गई। 26 मार्च, 1974 के दिन मजदूरों को बस में भरकर रैणी लाया गया। गाँव के पुरुष बाहर गए हुए थे। अब जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर थी। महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी ने बागडोर संभाली। गांव की दूसरी महिलाओं के साथ वे मजदूरों से बात करने पहुंची। कुछ महिलाओं के जरिए जंगल की तरफ जाने वाले एकमात्र रास्ते को बंद करवा देती है। मजदूरों के औजार महिलाओं ने छीन लिए।
ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने की कोशिश की लेकिन वह अड़ी रही। पूरी रात वहीं काटी। 30 मार्च तक महिलाओं और मजदूरों के बीच गतिरोध बना रहा। 31 मार्च को विशाल प्रदर्शन हुआ। यह गौरा देवी और गांव की महिलाओं और बच्चियों की सूझ-बूझ का नतीजा था कि जंगल की एक टहनी भी नहीं कटी।
वायली का आंदोलन
जुलाई 1974 में वायली के जंगल को बचाने के लिए आंदोलन शुरू हुआ। जिसमें किशनपुर और मानपुर सहित आस-पास की महिलाओं ने महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी। इसमें चूमा देवी ने नेतृत्व किया था। अब महिलाओं की बीच जंगल के मामलों की समझ बन गई थी। जुलूसों में महिलाएं ने बढ़-चढकर हिस्सेदारी ली।
अदवाणी का जंगल
आपातकाल के बाद चिपको आंदोलन की तीसरी लहर आई। अदवाणी के जंगल को बचाने के लिए महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया। सुदेशा देवी, सौपा देवी, बचनी देवी पहली पंक्ति में खड़ी थीं। इसी आंदोलन के संदर्भ में दलित झाबरी देवी का जिक्र आता है। झाबरी को आंदोलन में हिस्सेदारी लेने के कारण अपने परिवार और समाज दोंनो से लड़ना पड़ा। यह गौर करने वाली बात है कि आंदोलनों में दलित महिलाओं के योगदान पर अभी बहुत कुछ जानने को नहीं मिलता है।
चाँचरीधार का आंदोलन
दिसंबर 1977 में द्वाराहाट के चाँचरीधार जंगल में आंदोलन शुरू हुआ। यहां महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई। महिलाओं ने तीखे भाषण दिए। पार्वती देवी, जीवंती देवी ने आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम किया। इसके अलावा हेंवलघाटी की महिलाओं ने भी पर्यावरण को बचाने में योगदान दिया। चिपको आंदोलन के सम्पूर्ण इतिहास में पहली बार नीलामी स्थगित हुई थी। नरेंद्र नगर के नीलामी केंद्र में 8 फरवरी, 1978 को महिलाओं ने दस्तक दे दी। यह पहली बार हुआ था जब नीलामी रोकने महिलाएं आई थीं। 9 फरवरी को नीलामी केंद्र में घुसकर नीलामी रुकवा दी। यहां नौ महिलाओं की गिरफ्तारी भी की गई थी।
ऐसे ही जनवरी 1978 में फूलों की घाटी के गांव भ्यूंढार-पुलना के लोगों ने बाँज के पेड़ काटने आ रहे मजदूरों को रोका। जिसमें मंगल दल की अध्यक्ष कुंती देवी और उनकी सहयोगियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं। अल्मोड़ा में स्थित जनोटी-पालड़ी तथा रांगोड़ी के जंगलों की कटाई को रोकने में भी महिलाओं ने हिस्सेदारी ली थी। कांती देवी, बसंती देवी और भागुली देवी ने सीधे तौर पर हुकूमत को चुनौती दी।
चिपको आंदोलन की अलग-अलग लहरों में महिलाओं की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। महिलाओं ने घर और आंदोलनों दोनों को संभाला। महिलाओं की शिरकत ने आंदोलन को अहिंसक रूप दिया। गीतों और नारों के माध्यम से आंदोलनों को ताजगी दी। हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की सक्रिय भूमिका की वजह से ही ये आंदोलन इतने बड़े और ऐतिहासिक बन सके।
स्रोतः
- हरी भरी उम्मीद- शेखर पाठक
- सत्याग्रह.कॉम